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परम्परानुमोदित तपः विज्ञान
उपसाधको की बहुलता होगी वह समाज भी सुखशान्ति का अनुभव करेगा, सबत होगा, उसमें घोषण
अभ्यास करने से लाभान्वित होते ही है। अनशन ऊनोदर प्रादि बाह्य तपों के प्रयास से शरीर को स्वस्थ, निरालस कष्टसहिष्णु सहज ही बनाया जा सकता है मोर प्रायश्वित, विनय, स्वाध्याय प्रादिभ्यन्तरसपो के पास से अपने मन एवं बुद्धि को निमंत बनाया जा सकता है। अहंकार का प्रभाव, विनय, परमतरता धनुकम्पा, सेवाभाव और निःस्वार्थ दृष्टि की प्राप्ति होती है, न् परीक्षण तथा चित्तवृत्तियों को एकाग्र करने की क्षमता बढती है। गृहस्थों के मार्गदर्शन के लिए रचित 'द्वतीय नीतिकाव्य तिरुक्कुरल की गूहि है कि अपनी पीडा सह लेना और अन्य जीवों को पीड़ा न पहुंचाना, यही तपस्या का स्वरूप है।' अन्यत्र भी कहा गया है कि 'दुख को पी जाना ये तपस्या है।' 'दिन मे दूगर गए उसी साधना के लिए योग्य होते है जब एक श्रेष्ठ हों
या घोर अपरा वृद्धि को स्थान नहीं रहेगा। जिस राष्ट्र के नागरिक, प्रशासक तथा राजनेता ऐसे उपानुष्ठान मे प्रास्था रखेंगे धोर उसे अपने अपने आचरण में लाने के लिए प्रयत्नशील रहेंगे उस राष्ट्र में भान्तरिक सुखशान्ति एव उन्नति तो होगी ही, इतर राष्ट्रो के साथ भी उसके संबंध सहयोग एवं सहमस्तित्व साधक तथा मधुर होंगे। इस संबंध में यह भी ज्ञातव्य है कि सम्यक् तप की साधना दही संभव है जहाँ व्यक्ति एवं समाज कुछ विकसित होते है। निदान्त सभ्य वर प्रज्ञ व्यक्ति प्रथवा व्यक्ति समुदाय तो तपश्चरण के महत्व से अनभिज्ञ और
पर शिकन न हो मोर 'न्ति तस्ि - दूसरे के प्रयो महन करने के बराबर कोई नप नहीं है। महा गाधी की भीति है कि धर्म का पहला और बानि कदम है। वास्तव तप की महिमा महान है। तप द्वारा ही मनुष्य अपने प्रभीष्ट पद को प्राप्त करता है और पाप या अपूर्णता को दूर करके अपने चरित्र को उज्ज्वल तथा पवित्र बनाता है। धीर पुरुष नप द्वारा ही बार में उस्मृति के विराजमान होता है।
किन्तु व्यक्ति विशेष के जीवन में तप भाव की प्रतिष्ठा हो जाती है तो उसका प्राध्यात्मिक विकास वेग से होने लगता है। निरा गमाज में ऐसे व्यक्ति पर्याप्त संख्या में होते हैं, उसमें जो यह सावना नही करते वे भी उसने प्रभावित रहते ही है और परिणाम स्वरूप उस समाज का विकास उत्तरोत्तर होता ही चला जाता है । प्रतः तत्सबंधित राष्ट्र का भी समुचित विकास होता है। मानव सस्कृति की उत्कृष्टता कामूः। चार तप साधना ही है ।
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अब जो व्यक्ति तप के इस निचोड़ को जानतासमभता प्रोर मारता है वह अपने व्यक्तित्व का तो भौतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास करेगा ही, जिनम व्यक्तियों के सम्पर्क में वह प्रायेगा उनके उन्नयन मे भी सहायक होगा। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वह केला नहीं रहता । अतएव जिस परिवार में ऐसी तप साधना चलती है उम्र परिवार के सदस्य सुशाधि प्रनुभव करेंगे ये पता ही नहीं, दूसरों का ध्यान, उनको सुधाकर जिस समाज में ऐ
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इस प्रकार तपानुष्ठान न केवल एक धार्मिक, साम्प्रदायिक व प्राध्यात्मिक मूल्य ही है, न केवल वैयकि पारमोन्नयन के लिए परमावश्यक साधन है, वरन् पारिपारिक, गामाजिक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय हित-सुख सपादन में भी उनका अपरिमित महत्व है। अपने दुःखटोंको समभाव से पी जाना घोर भ्रम्य किसी को पीड़ा न पहुंचाना, न भरसक पहुंचने देना, यह तप पूत मनोवृति एवं तत प्रेरित तप्रवृत्ति समस्त प्राणियों के हिये-सुख की सफल मध्यादिका है ।
पीति निकुञ्ज, चारवाण, लखनऊ
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