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णमोकार मंत्र
सब मात्मा की अपनी चीज नहीं है। अगर प्रात्मा को जो निज में पठन-पाठन करते है और दूसरों को पठनअपनी होती तो नष्ट नहीं होती इसलिए वर्तमान में उनका पाटन कराते हैं । ये अपना प्रात्म साधना मे लगे हैं। निज मेरा साथ संयोग है अब अगर मैं उनमे संयोग न मान कर स्वरूप मे पभी पूर्ण स्थिरता को प्राप्त नही हुए है इसलिए अपनापना मानता हूं तो यह मेरी गलती है, यही चोरी है, बाहर मे शास्त्रादि का अध्ययन निज मे करते है और यह अपराध है दूसरे की चं.ज हमारे पास में रहने से भी प्रौरों को कराते हैं । यह कार्य उस राग की कणी का है जो हमारी नही हो सकती। हमारा अपना तो उतना ही है शेष रह गयो । ऐसे उपाध्याय को मैं नमस्कार करता हूं। जो कुछ सिद्ध मात्मा के पास है। उममे जो कुछ ज्यादा उन लोक के सवं माधुप्रो को नमस्कार करता हूं मेरे पास है। वह कर्मजनित, पर रूप है; मेरा अपना नही जिन्होंने निज प्रात्म-स्वरूप को प्राप्त किया है, पर से हो सकता, उसमे अपनापना नही माना जा सकता । अगर भिन्न निज स्वभाब को अपने रूप से जाना है। अपने ज्ञान मैंने अपनापना माना है तो यह अपराध है प्रोर उस स्वभाव मे ज्ञाता दृष्टापने के वे मालिक है, उसमे वे जागृत अपराध का फल बंधन है -क्योकि वह मात्मा के अपने है। जागति दो तरह से हो सकती हैनिज रूप में नहीं है। इसलिए इनका प्रभाव हो सकता वहिर्मुखी पौर अंत मखी। बहिमखी जागति होगी है। कोयले की कालिमा उसकी अपनी है । बाहर में पाई तो अंतर्मवता अधकार पूर्ण हो जायेगी, वह मूछित हो हुई नही। उसका अपना अस्तित्व हैं। वह दूर नही हो जायेगी। अगर जागति प्रतर्मुखी है तो बाहर की तरफ सवती। परन्तु स्फटिक मे झलकने वाली कालिमा उसकी
मूर्छा हो जायेगी। मन्तर्मुखता का प्रगर विकास हा तो अपनी नही, बाहर से भाई हुई हैं । वह दूर को जा सकता तीसरी स्थिति जागति की उपलब्ध होती है, जहाँ अन्तर है। सिद्ध वे है जिन्होने इस कालिमा का नाश किया है। मिट जाता है मात्र प्रकाश रह जाता है। वह पूर्ण जागृत इससे मालम देता है कि यह कालिमा बाहर से प्राई हुई
स प्राई हुई स्थिति है । परन्तु बहिर्मुखता मे कोई कभी तीसरी स्थिति है और नाश हो सकती है। जिस प्रकार स उन्हान मे नही पहच सकता। तीसरी स्थिति में पहुंचने को पुरुषार्थ के द्वारा अपनी कालिमा नष्ट की है वसे ही में अवता जरूरी है। बाहर से भीतर पाना है फिर अपने सी पार्थ के द्वारा अपनी कालिमा नष्ट कर सकता हूं। में समा जाना है। मर्जी का प्रथं है हम बाहर है, बाहर (३) तीसरा, (४) चौथा प्रौर (1) पांचवा पद।
का अर्थ है हमाग ध्यान अन्य पर है। जहां ध्यान है वही है- णमो पाइरियाणम् -णमो उवज्झायाणम् - णमो
पर हमारी भक्ति लगी हुई है और जहां ध्यान नही है वहीं लोए सव्व साहूणम्
मूर्खा है। इस अन्तर्मुखता का नाम ही जागरण है। इस इन तीन मत्रों मे साधुग्रो को नमस्कार किया गया है। लि। जो पूरी तरह जग गया वह साधु है। जो सो रहा है, लोक के मर्व साधूनों को नमस्कार किया गया है। उन जो निज स्वभाव मे मूछित है, जो दुनिया में, वम के कार्य साधनो मे तीन कोटि होती है। एक वे जो प्राचाय है मे जाग रहा है वह साधु है । वह जागरण भीतर इतना उनको नमस्कार है। प्राचार्य वे है जो निज मे मात्म- होजाताना
हो जाता है उहा न के बल बाहर की पावाज सुनाई देना साधना करते हैं और दूसरो से प्रात्म साधना करवाते है। बन्द होती है परन्तु अपनी श्वास की धड़कन भी सूनाई निन्द्रीने आत्मा को प्राप्त किया है. निज स्वभाव को-प्राप्त पडं, अपनी पाख की पलक का, हिलना भी पता चले. किया है और उसी में लगे हुए है। प्रभी तक निज स्वभाव
भीतर के विचार का पता चले और उनके जानने वाले मे पूर्ण रूप से ठहरने मे, रमण करने में, वे समर्थ नही
का ज्ञान भी बना रहे। ऐसी साधना ये तीनों प्रकार के हए है इसलिए जो राग का प्रश बचा हुआ है उस राग माधु करते हैं। ऐसे लोक के सर्व साधु नमस्कार करने के प्रश की वजह से दूसरों को प्रात्म साधना की प्ररणा योग्य हैं । उनको नमस्कार हो। करते है । गुरु रूप से उनका उपकार करते है।
पं. टोडरमल जी ने भी मनि का स्वरूप निम्न प्रकार इसके बाद उन साधुनों में दूसरा पद है उपाध्याय का से ही लिखा है।