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मध्वदर्शन और जनदर्शन
D डा. रमेशचन्द जैन,
मध्वदर्शन विशुद्ध नवादी दर्शन है । जनदर्शन द्व. यदि हम पदार्थों के मध्य भेद को स्वीकार नहीं करते तो वादी होते हुए भी प्रत्येक जीवात्मा के स्वतन्त्र प्रदय तत्त्व हम विचारो मे परस्पर भेद की व्याख्या भी नही कर सकते। को स्वरूपतः मानता है । मध्व' ज्ञान के तीन साधनो को हमारा ज्ञान हमे बतलाता है कि भेद विद्यमान है। हम स्वीकार करते है-- प्रत्यक्ष, प्रनुमान और शब्द प्रमाण। उन्हे केवल मात्र प्रौपचारिक नही मान सकते, क्योंकि प्रोपजैन दर्शन में प्रमाण के केवल दो भेद किय गए है- चारिकता भेद उत्पन्न नही करतो । जैन दर्शन संसार को १. प्रत्यक्ष और २. परोक्ष । परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत सर्वया अयथार्थ नही मानता है। पदार्थों के मध्य भेदाभेद स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तक, प्रागम और अनुमान प्रमाण माते है जिसके माधार पर एक वस्तु दूपरी से मिलती-जुलती है। मध्व दशन मे उपमान प्रमाण का अनुमान की हो है अथवा पृथक् अस्तित्व रखती है । इस प्रकार वस्तु का कोटि वा पाना गया है। जैन दर्शन में उपमान प्रमाण का स्वरूप सामान्य विशेषात्मक है। अन्तर्भाव प्रत्यभिज्ञान प्रमाण में किया गया है । मध्व के मध्व के मत मे पदार्थ दो प्रकार के होते है-स्वतन्त्र अनुमार प्रत्यक्ष और अनुमान स्वय विश्व की समस्या को और परतन्त्र । ईश्वर जो सर्वोपरि पुरुष है, वही एकमात्र हल करने में सहायक नही हो सकते । प्रत्यक्ष की पहुच स्वतन्त्र पदार्थ (यथार्थ सता) है। परतन्त्र प्राणी दो प्रकार उन्ही तथ्यों तक है जो इन्द्रियगोचर है। अनुमान हमे काइ के है --(१) भाववाचक (२) प्रभाववाचक । भाववाच । नवीन तथ्य नही दे सकता । यद्यपि अन्य साधनो द्वारा के दो वर्ग है-एक चेतन प्रात्माएं है पोर दपरे अचेतन प्राप्त हए तयो की परीक्षा करने तथा उन्हे क्रमबद्ध करने पदार्थ, जसे प्रकृति और काल । पचेतन पदार्थ या तो नि-य मे यह सहायता प्रवश्य करता है । जैन दशन के अनुसार है, जैसे कि वेद या नित्य पोर अनित्य जैस-प्रकृति, काल जानकारी के दो ही साधन है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। और देश अथवा अनित्य जैसे प्रकृतिजन्य पदार्थ । जनप्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है (१) साध्यबहारिक प्रत्यक्ष दर्शन प्रत्येक पदार्थ की स्वतन्त्र सत्ता को मानता है, किसी प्रौर (२) परमार्थिक प्रत्यक्ष । इन्द्रिय और मन के निमित्त को सर्वोपरि नही मानता है। उसके अनुसार ससार की मे जो जानकारी होती है, वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का सारी वस्तुयें भावाभावात्मक और नित्यानित्यात्मक है । विषय है तथा प्रतीन्द्रिय ज्ञान पारमायिक प्रत्यक्ष का विषय
मच के अनुमार तीन वस्तुयें प्रनादिकाल से अनन्नहै। अनुमान द्वारा हमे परोक्ष रूप से तथ्यों की जानकारी
काल तक रहने वाली है जो मोलिक रूप से एक दूसरे से होती है। मध्ध के मत मे यथार्थ सत्ता के मत्वज्ञान के
भिन्न हे प्रर्थात् ईश्वर, प्रात्मा और जगत् । यद्यपि ये सब लिए वेदो का प्राश्रय पावश्यक है। जैन दशन दो को
ययार्थ प्रौर नित्य है, फिर भी पिछले दो प्रर्थात् प्रात्मा प्रमाण नही मानता है, उसके अनुसार अपने प्रावरण के
तथा जगत् ईश्वर से निम्न श्रेणी के तथा उसके ऊपर क्षयोपशम या क्षय से ही यथार्थ मत्ता की जानकारी होती
प्राश्रित हैं । जैन दर्शन जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश है। मध्व के अनुसार ज्ञाता तथा ज्ञात के बिना कोई ज्ञान और काल इन छहो द्रव्यों को प्रनादि मनन्त स्वीकार उत्पन्न नही हो सकता । ज्ञान के कर्ता अथवा ज्ञात प्रमर करता है। नंश्चयिक दृष्टि से ये सभी स्वाश्रित है । इनमें पदार्थ के बिना ज्ञान के विषय मे कुछ कहना निरर्थक है। से कोई भी निम्न प्रथवा उच्च श्रेणी का नहीं है, सभी जैन दर्शन ज्ञान और ज्ञेय का पार्थका मानते हुए भी जीवन
मध्व ब्रह्म में सब प्रकार की पूर्णता मानते हैं । ब्रह्म स्वीकार नहीं करता है।
___ तथा विष्णु को एक रूप माना गया है और कहा गया है मध्व के अनुमार यह ससार प्रयथार्थ वस्तु नही है। कि वह अपनी इच्छा से संसार का सचालन करता है।