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श्रावक और रत्नत्रय
0 श्री पचन्द्र शास्त्री
मोक्ष मार्ग को इंगित करने के भाव में 'श्रावक' शब्द किंचित् झनक इस भौति है-प्रतः इसे समझ कर अपने का बहुत बड़ा महत्व है। जैन परम्परा में श्रावक प्रौर में सदा सावधान रहना चाहिए क्योंकि सम्यग्ज्ञान मौर मुनि इन दोनों शब्दों का उल्लेख प्राचीनकाल से मिलता सम्यक्चारित्र इसी सम्यग्दर्शन पर प्राधारित हैंहै। मनि अवस्था मे सर्व पाप और प्रारम्भ का पूर्णतः सम्यग्दर्शन त्याग होता है पौर श्रावक में प्रशतः । 'श्रावक' अवस्था 'शिष्यों के प्रति संबोधन करते हुए जिनवरों-- तीर्थमोक्षमार्ग को प्रथम प्रारंभिक सीढ़ी है: ससार मे डूबे कर परमदेवों तथा अन्य के वलियों ने धर्म को दर्शन मूल प्राणी को पार लगाने में श्रावक पद लकड़ी के दस्ते को कहा है अर्थात धर्म की प्रतिष्ठा प्रासादगापूरवत् भोर भौति सहारे का काम करता है तो मुनिपद नौका को वृक्ष-पातालगत जटावत् सम्यग्दर्शन के प्राधार पर है । ऐसे भांति सहारा देता है।
धर्म को स्वकर्गों से सुनकर-अन्तरंग से मनन चिन्तवन संसार समुद्र में मग्न जिस जीव से नौका का दूर का करना व मानना चाहिए और दर्शन से हीन धर्म (धर्मी) फासला हो उसे तरूसे का सहारा लेकर नाव के पास तक की बन्दना (मान्यता) नही करनी चाहिए'। श्री श्रतपहुंचना चाहिए-इसी मे बुद्धिमानी है।
सागर सूरि तो यहां तक कहते हैं कि दर्शनहीन अर्थात् तत्त्वार्थ सूत्र में मोक्षमार्ग के प्रसग में एक सूत्र माता मिथ्यादष्टि को (दान की दृष्टि से) दान भी नहीं देना है-'सम्यग्दर्शन-जान चारित्राणि मोक्षमार्गः।' इसका भाव चाहिए। क्योंकिहै सत्यत्रता, सत्य-ज्ञान और सत्य-चारित्र की पूर्णता (एकस्वपना) मोक्ष का मार्ग है । यही भाव प्रशत: 'श्रावक' विपरीत इसके- शास्त्रों में सम्यग्दर्शन की महिमा शब्द के वर्षों से सहज ही निकाला जा सकता है -'या' दिखलाई गई है और यहां तक भी कह दिया गया है कि से श्रद्धा, 'व' से विधेक मोर 'क' से किया। अर्थात् जो 'सम्यग्दर्शन संपन्नमपि मातंग देहजम्' अर्थात् शरीर से श्रद्धा-विवेक और क्रिया (चारित्र) वान् है वह श्रावक है, चाण्डाल भी हो पर यदि सम्यग्दर्शन संपन्न है तो वह देव बही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से युक्त है-ऐसा सम• तुल्य (उत्तम) है ! भाव यह है कि सम्यग्दर्शन प्रात्मगुण झना चाहिए।
है उसका इस नश्वर शरीर-पुदगलपिण्ड से साक्षात्-परमार्थ ___ श्रद्धा-सम्यग्दर्शन का अपर नाम है । प्राचार्यों ने सम- रूप कोई सबंध नहीं है। यदि कोई जीव देहादिक जड़ झाने की दृष्टि से सम्यग्दर्शन का दो भांति से वर्णन किया क्रिया प्रथवा देह के माश्रित रूप में सम्यग्दर्शन का महत्व है-निश्चय सम्यग्दर्शन पौर व्यवहार सम्यग्दर्शन । इन मानता है तो वह भ्रम में है। हमे तो ऐसा उपदेश मिला दोनों की पहिचान तो बड़ी कठिन है, पर व्यवहार मे जो है कि-प्रात्मा के अतिरिक्त प्राय पर पदार्थों में इष्टजीव शंका-माकांक्षा प्रादि दोषों से रहित हों-मौर देव- अनिष्ट की मान्यता रखना, बहिरंग की बढ़ोतरी में गवं शास्त्र-गुरु में श्रद्धा रखते हों, जिनके प्रष्टमूल गुण धारण अथवा न्यूनता में हीनता का भाव करना प्रात्मतत्त्व की हों और मद्य-मांस-मघु इन तीन मकारों का त्याग हो वे दृष्टि से हेय है । प्राचार्य ने शरीराश्रित पौर पनाश्रित जीव भी सम्यग्दष्टि की श्रेणी में पाते हैं । उक्त बातों से दोनों ही प्रकार की विभूतियों की बढ़वारी अथवा हीनता हमें व्यवहार सम्यग्दृष्टि का निर्धारण करना चाहिए। में समता भाव का ही उपदेश दिया है। उक्त विवेचन का सम्यग्दर्शन का जैसा विशद् वर्णन पाचार्योने किया है उसको सार हम तो यही समझे हैं कि