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कम सिद्धान्त को जीवन में उपयोगिता
तथा भाव के भेद से इसके दो प्रकार हैं। जिन भावों के कर्म से संबद्ध कैसे और क्यों कर होता है? दोनों के द्वारा पुद्गल पिण्ड माकर्षित हो यह भावकर्म है तथा समाधान अपेक्षित हैं। मात्मा में विकृति उत्पन्न करने वाले पुद्गल द्रव्यकर्म है। जिस प्रकार तेल तिल का सोना-किट्रिमा का संबद्ध पुद्गल जनित द्रव्य कर्म की संख्या ८ है। ज्ञानावरण प्रनादि से देखा जाता है मामा भोर कम का संबद्ध भी कर्म-ज्ञान पर प्रावरण डालता है। जैसे देवता के मुख प्रनादि से है। सादि सबंध मानने पर अनेक कठिनाइयो पर ढका वस्त्र देवता के विशेष ज्ञान को नही होने देता। उपस्थित होती हैं । जैसे-पहले पात्मा कर्मबंधन से मुक्त दर्शनावरण-जो मात्मा के दर्शन गुण पर प्रावरण था; उस में मनात ज्ञानादि गुण पूर्ण विकसित अवस्था में थे। डाले । इसका स्वभाव दरबारी जैसा है जो राजा के दर्शन ऐसा परिशद्ध मारमा क्यों कर्म बंधन को स्वीकार कर से रोकता है। वेदनीय कर्म-शहद लपेटी छुरी के स्वयं अपनी चिता रचने का प्रयास करेगा ? सवंदा समान है, जिसको चखने पर क्रमशः साता रूप सुख व परिशुद्ध पास्मा प्रत्यम्त अपवित्र पूणित शरीर को धारण प्रसाता रूप दुख होता है। मोहनीय कर्म-मदिरा के करने का स्वप्न में भी विचार न करेगा। समान है। मोह रूपी मदिरा नशे के कारण मात्मा को चूंकि प्रात्मा और कम सबंध प्रनादि है अतः बंध मचेत कर देती है। पौर निज स्वरूप का भान नही होने पर्याय के प्रति एकस्व होने से प्रात्मा कथंचित मूर्तिक है। देती। प्रायु कर्म सांकल के स्वभाव का है जो मात्मा को और अपने ज्ञानादि लक्षणों का परित्याग न करने के कारण शरीर मे स्थित रखती है। प्रायु कर्म जीव को मनुष्यादि कथंचित प्रमूर्तिक है। जैसे रूपादि रहित प्रात्मा रूपी द्रव्यों पर्यायों मे रोके रखता है। नामकर्म रूपी चित्रकार और उनके गुणों को जानता है। वैसे ही प्ररूपी पारमा जीव को सुग्दर-प्रसुन्दर, दुबले मोटे शरीर को रचना रूपी कर्म पुद्गल से वाया जाता है। करता है। गोत्रकर्म ऊंचे-नीचे कुल मे पैदा करता कर्मफल-वैदिक दर्शन को मान्यतानुसार जीव को है -जैसे कुंभकार छोटे-बड़े घड़े बनाता है। करने मे स्वतत्र लेकिन फन भोगने मे परतंत्र है। लेकिन अन्तराय कर्म का स्वभाव भडारी सरीखा है। भंडारी जनदर्शन में जैसे दूध पीने से पुष्टि व मद्यपान से नशा स्वतः जैसे दानादि मे विघ्न डालता है। वैसे ही अन्तराय कम ही पाता है । उसके लिए किसी अन्यकर्ता की भावश्यकता का काम सदैव रंग में भंग डालने का है। उपरोक्त मे नही होती; इसी प्रकार भले बुरे फलदान की शक्ति स्वयं चार ज्ञानावरण, दशनावरण, मोहनीय, अन्त राय जीव के कम मे होती है। कहा हैअनुजीवी गुणों का बात करने के कारण घातिया कम 'स्वय किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते। कहलाते हैं। शेष प्रायु नाम गोत्र वेदनीय प्रघातिया कम करे पाप फल देय अन्य, तो स्वय किये निष्फल होते है। है। तत्वार्थसूत्र नाम के ग्रन्थ में कर्मों के प्रानव यह मानना कि ईश्वर विश्व के समस्त चराचर (पागमन के कारण) बंध की प्रक्रिया, उत्कृष्ट जघन्य प्राणियों के समस्त कमो (कार्यो) का लेखा-जोखा रख स्थिति प्रादि का व्यापक विवेचन है। कर्मबन्ध के चार उन्हें दण्ड व पुरस्कार देता है। उस सच्चिदानन्द को भेद बतलाये । प्रकृतिबंध-कर्म परमाण प्रो मे स्वभाव संकट के सिंधु मे डालने सदृश होगा। फिर भगवाम तो का पड़ना। प्रवेशबंध-कर्म परमाणपो मे सख्या का वीतराग-बीतद्वेष होते है वे क्यो कर क्रमशः पुरस्कार पोर नियत होना, स्थितिबंष-कर्म परमाणमों मे काल की दण्ड प्रदाता होगे। मर्यादा का पड़ना कि ये प्रमुक समय तक कर देंगे। इनमें कहा भी हैफल देने की शक्ति का पड़ना अनुभागबंध है। प्रकृति कर्ता जगत का मानता, जो कम या भगवान को।
और प्रदेश पम्प का निर्धारक योग है। और स्थिति व बह भूलता है लोक मे, पस्तित्व गुण के ज्ञान को।" प्रमुभाग बंध कषाय से होते हैं।
वस्तुतः संसार मे सभी प्राणी अपने कर्मों से बंधे।। प्रश्न उत्पन्न होता है कि प्रतिक मारमा पुद्गल द्रव्य उनकी वृद्धि कर्मानुसारही होती है। शुभ कर्मोपाजित