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जैन परम्परानुमोदित तपः विज्ञान
डा० ज्योतिप्रसाद जैन
तपतीति तपः', 'तप्यतेतितपः', 'तापयतीति तप:', इच्छाएँ अनगिनत है, उनकी कोई सीमा नहीं है। मौर इत्यादि रूपों में पुरातन जैनाचार्यों ने तप का शब्दार्थ एक इच्छा पूरी नहीं हो पाती कि उसके स्थान में चार किया, पर्यात तापना या तपाना प्रक्रिया जहाँ होती है, नवीन इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती है। उनका कोई अन्त वह तप है। सामान्यतया ताप का कारण अग्नि होती है नही है। परिणामस्वरूप प्रोसत व्यक्ति इच्छाम्रो का वास पौर उसके दो परिणाम होते है, भस्म हो जाना अथवा होकर रह गया है। इच्छाप्रो की पूर्ति के प्रयत्नो मे ही भस्म कर डालना, शुद्ध कर देना । लोक में तृण काष्ठ उसका संपूर्ण जीवन बीरा जाता है। वह स्वय बीत जाता कड़ा प्रादि त्याज्य, तिरस्कृत, व्यथं या अनुपयोगी वस्तुनों है, परन्तु उसको समस्त इच्छ एँ कभी भी पूर्ण नही होती को पग्नि में भस्म कर दिया जाता है अथवा किसी धातु अनगिनत इच्छाएं प्रतात एवं प्रपूर्ण ही रह जाती है । को विशेषकर, स्वर्णाषाण को प्रग्नि में तपा कर उसके इसके अतिरिक्त. उक्त इच्छानों की ति के प्रयत्नो के किट्रिमादि मल को दूर किया जाता है उसका शोधन प्रसग से वह व्यक्ति अनेक प्रकार की प्राकुलतानो, कष्टों, किया जाता है और फलस्वरूप प्रस्ततः शुद्ध सोटची स्वर्ण चिन्तामों, राग-द्वेष, मद-मत्सर, ईष्र्या-जलन, वर-विशेब, प्राप्त होता है । इन लौकिक प्राधारों पर जैनाचार मे तप
दुराचार, कदाचार, भ्रष्टाचार, पापाचार व आराधी का विधान हुआ है -
प्रवृत्तियों में बुरी तरह उलझा रहता है। उसे स्वय को विशुद्धयति हताशेन पदोषमपि काञ्चनम् । तो मुख-शक्ति का दर्शन होता ही नही, जो भी अन्य यदत्तव जोकोऽयं तप्यमानस्तपोऽग्निना ।। व्यक्ति, परिवार के, पड़ोस के, समाज, नगर राष्ट्र या
इसीलिए जहाँ तपतीति तपः' कहा, वहां स्पष्ट करने कही के भी, उसकी इच्छापूति के प्रयत्नों में बाधक होते के लिए साथ मे उसका प्रयोजन भी बता दिया- या होते लगते है, उन सबको भी वह अशान्न, दुःखी, क्रुद्ध 'विशोषनार्थ' अथवा 'कर्मतापपतीति तपः, 'कम निर्दहना- या क्षब्ध कर देता है। शोषण, अपराधो, द्वन्द्रो और सपः यचाग्निसंचित तृणादि दहति', उसी प्रकार 'देहेन्द्रिय सहारक युद्धो की जननी इच्छा ही है--विरोधी इच्छाम्रो तापाताकमक्षपार्थ तप्यतेतितपः' या 'कर्मक्षयार्थ तप्यन्ते के टकराव मे यह सब होता है। शरीरेन्द्रियाणि तपः', अथवा 'तवरेणामतावयति अनेक
इस शाश्वतिक अनुभति से प्रभावित होकर श्रमण भवोपात्तमष्ट प्रकार कर्मेति', 'भव कोडिए संचित कम्म
तीथकरों पोर उनके अनुयायो निर्ग्रन्थाचार्यों ने 'इच्छा. तवसा णिज्जदिज्जई', इत्यादि!
निरोधस्तप:' सूत्र द्वारा इच्छानिरोष को ही तप बताया। प्रतएव परिभाषा की गई 'इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठानं जब इच्छापों का ही, भले ही शनैः शनै: उन्मूलन हो गया तपः' अर्थात् प्रात्मोद्बोधनार्थ अपने मन भोर इन्द्रिय के तो उनके कारण होने वाले रागद्वेषादि विकारों का, प्रतः नियमन के लिए किया गया अनुष्ठान हो तप है। समस्त पाप प्रवृत्तियो का उपशमन होता ही चला जायेगा।
इस नियमन में सबसे बड़ी बाधा इच्छा है- नाना- फलतः साधक प्रात्मोन्नयन के पथ पर अग्रसर होता हुमा विष इन्द्रिय-विषयों को भोगने की, प्रतः उन्हें प्राप्त करने अपने शुद्ध स्वरूप को, अक्षय सुख-शान्ति की स्थिति अपने की, बटाने की संग्रह करने माविकी इच्छा है। मानवी परम प्राप्तव्य को प्राप्त कर लेगा। इसी से बाध्यात्मा