Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 84
________________ मोम् प्रह UII/ +MAN IPLEARTHAT - 5.7 T UITMIR परमागप्रस्य बीज निषिद्धजात्यन्यसिन्धरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निवणि संवत् २५०७, वि० सं० २०३८ अक्टूबर-दिसम्बर १९८१ अध्यात्म-पद वित जितके चिदेश कय, अशेष पर बमूं। दुवापार विधि-दुचार-को चy दम्॥ चित०॥ जि पुण्य-पाप थाप प्राप, आप में रम। कब राग-प्राग शर्म-बाग-नापनो शमं ॥ चित०॥ हग-ज्ञान-भान ते मिश्या प्रज्ञानतम दनं। कब सर्व जोव प्रारिराभूत, सत्व सौं छ । चित०॥ जल-मल्ललिप्त-का सुफज, सुबल्ल परिन। दलके त्रिशल्लमल्ल कब, अटल्लपद बत०॥ कब ध्याय अज-प्रमर को फिर न भव विपिन भमूं। जिन पूर कौल 'दौल' को यह हेतु हौ नमूं ॥ चित०॥ -कविवर दौलतराम कृत, भावार्थ-हे जिन वह कौन-सा क्षण होगा जब मैं संपूर्ण विभावों का वमन करूँगा । और दुखदायी अष्टकर्मो को सेना का दमन करूंगा। पुन्य-पाप को छोड़ कर आत्म में लीन होऊँगा ओर कब सुखरूपी बाग को जला वाली राग-रूपी अग्नि का शमन करूगा । सम्यग्दर्शन-ज्ञान रूपी सूर्य से मिध्यात्व और अज्ञानरूपी अंधरे का दमन करूँगा और समस्त जीवों से क्षमा-भाव धारण करूँगा । मलीनता से युक्त जड़ शरीर को शुक्ल ध्यान के बल से कब छोडूंगा ओर कब मिथ्या-माया-निदान शल्यों को छोड़ मोक्ष पद पाऊंगा। मैं मोक्ष को पाकर कब भव-बन में नहीं घूमूंगा ? हे जिन, मेरो यह प्रतिज्ञा पूरी हो इसलिए मैं नमन करता हूँ। 00

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