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२८, ३४, किरण २-३
बुद्धि सम्मार्ग प्रदर्शाती है। इसके विपरीत प्रशुभ कर्मोदय भूधरदास जी द्वारा रचित भजन की उपरोक्त बंद में प्राणी कुमार्ग मे भटकता है।
पंक्तियो से कर्म माहात्म्य स्पष्ट रूप से झलकता है। विचारणीय है कि किसी कर्म का फल इस जन्म में तत्वार्य सूत्र में कमों की उत्कृष्ट स्थिति का विवेचन सहज मिल जाता है और किसी का जन्मान्तर में । इस प्रकार ही भयाक्रान्त करने वाला है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, कर्मफल भोग में विषमता देखी जाती है। ईश्वरवादियों वेदनीय, मन्तराय कर्म की उस्कृष्ट स्थिति तीस-कोड़ा-कोड़ी की भोर से इसका ईश्वरेच्छा के अतिरिक्त मोर कोई सागर (अपरिमित-काल) और अकेले मोहनीय कर्म को संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता। लेकिन कर्म में ही स्थिति सतर कोड़ा-कोड़ी सागर की है। घातिया को फलदान की शक्ति मानने वाला जैन सिद्धान्त इसका को उत्कृष्ट स्थिति जीव को दीर्घकाल तक भव-भ्रमण तनिकल पद्धति से उत्तर देता है। युक्ति, अनुभव, मागम कराने में सबल निमित्त है। पोर भी उल्लेखनीय है कि से भी यही सिद्ध होता है कि कर्मफल दाता ईश्वर नहीं, कर्म उदय में पाने पर फल अवश्य देते हैं। सती सीता कर्म है।
चन्दनबाला, अंजना भोर मैनासुन्दरी को कर्मों ने क्या जब जीव को कम फल का रहस्य ख्याल में पाता है। खेल नहीं खिलाये । कि प्रत्येक व्यक्ति को सकृत कर्मानुसार ही अनुकूलता- भगवान पार्श्वनाथ पर कमठ के जीव का उपसर्ग तो प्रतिकलता सफलता-असफलता मिलती है; तो वह व्यर्थ सर्वप्रसिद्ध है तीन कर्मोदय में प्रायः सुबुद्धि भी चलायमान ही खेद-खिन्न न हो सतोष प्राप्ति को धारण करता है। हो जाती है । 'जनशतक' मे भूधरदास जी असाताकोदय उसके लिए अन्य प्रगतिशील साथी से ईष्या करने का भी माने पर घयं धारण की शिक्षा देते हैंकोई प्रयोजन नही रह जाता क्योंकि उसे उसके अपने 'प्रायौ है अचानक भयानक प्रसाता कर्म। कमानुसार प्राप्त होता है। कैसा कर्म करें, जिससे श्रेष्ठ तः के दूर करिबे को बली कौन मह रे ।। फल मिले" भव्य जीव निरन्तर यही चितवन और श्रेष्ठ जे जे मन भाये, ते कमाये पूर्व पाप माप । प्राचरण करने का प्रयास करता है। कर्म-सिद्धान्त का तेई पब माये, निज उदकाल लहरे ॥ सम्यक् ज्ञान वह प्रौषधि है, जिसका हर रूप में पान एरे मेरे वीर काहै होत है अधीर याम । करने से फन की माकाक्षा नही रहती। गोंकि उसका काहु को न सीर, तू अकेलो प्राप सह रे ॥ पक्का विश्वास है कि मेरे शुभ कर्मों की शुभप्राप्ति मे भये दीलगीर' कछु पोर न विनसि जाय । इन्दनरेन्द्र (संसारी तो क्या जिनेन्द्र (मुक्त) मो फेरफार ताही ते सयाने तू तमासगीर' रह रे ।। करने में समर्थ नही। शुभाशुभ कर्मफर में ज्ञानी समभाव
निबंता-कर्म कोई कर प्राततायो नही जो प्रत्यक्ष र विचारता है कि इसमे वर्तमान को अपेक्षा में सन्मख होकर जीव को दुःख देते हों वे तो प्राणी के अम्मान्तर से संचित कर्मों का भी हाथ है।
साथ रहने वाले संस्कार प्रयास व मादते हैं जो उसने कर्म बलवान/निबंल-जैन दर्शन की मनेकान्तमय मानसिक पत्तियों वचनालापों व कायिक विकृतियों द्वारा दष्टि कचित् कम को बलवान स्वीकार करती है। अपने में प्रकित कर रखे हैं। ये संस्कार व्यक्ति की इच्छा
कर्म महारिपु जोर एक ना कान करे जी। के विरुद्ध नहीं चलते। वरन ये तो स्वयं व्यक्ति के पालेमन माने दुःख देय काहूं सों नाही रे जी॥
पोषे सहायक सायी हैं। जिन्हें वह सदा अपने सीने से कबहुं इतर-निगोद कबहुं नरक दिखावे ।
लगाये रहता है। इस जन्म में भी और जन्मान्तर में भी। सुर-नर पशु गति मांहि बहु-विध नाच नचावे ॥ यद्यपि कथन में ऐसा माना है कि ज्ञानावरणाविक कर्म मैं तो एक पनाथ ये मिल दुष्ट घनेरे । दुःख के कारण है तथापि द्रव्याधिक नय से कहा जाय तो
कियो बहुत-बेहाल सुनियो साहिब मेरे ।' जब यह जीव स्वयं विकार भाव रूप परिणमन करता है १. निराश।
२. ज्ञाता-वृष्टा-(मास्मा का स्वभाव जानना देखमा।)