Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ १२, १४,किरण २.३ अनेकान्त वह संसार को बार-बार रचता तथा उसका सहार करता मध्य तथा जैन दर्शन दोनो मे इस बात में समाना है। उसकी देह प्रति प्राकृतिक है और उसे सब संसार से है कि पात्मा स्वभाव से पालादमय है, यद्यपि यह अपने ऊपर माना गया है तथा वह संसार के अन्तनिहित भी है, पूर्व कर्म के अनुसार भौतिक शरीरों से सम्बद्ध होने के क्योंकि वह सब जीवात्मानो मे अन्तर्यामी है, वह अपने को कारण सुख व दुःख के अधीन है। जब तक यह अपनी नानाविधि भाकृतियों में प्रकट करता है, समय-समय पर मर्यादानों से विरहिन नही होती, यह नाना जन्मो मे अपनी अवतारों के रूप में प्रकट होता है और कहा जाता है कि प्राकृतियाँ बदलती हुई भ्रमण करती रहती हैं। सब पवित्र मतियों के अन्दर गुप्त रूप में उपस्थित रहता है। वस्तूपों के विषय मे यथार्थ ज्ञान अर्थात् भौतिक तथा वह सष्टि को रचता, उसको धारण करता तथा उसका TIERTER सात वर laimERI जज की विनाश करता है। वह ज्ञान का प्रदाता है, अपने को प्रोर ले जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए सबसे पूर्व एक नाना प्रकार से व्यक्त करता है, कुछ को दण्ड देता तथा स्वस्थ तथा निर्दोष नैतिक जीवन का होना मावश्यक है। अन्य को मक्त करता है। जैन दर्शन मुक्तावस्था को ही बिना किसी इच्छा अथवा फल प्राप्ति के दावे के नैतिक ब्रह्मोपलब्धि मानता है । मुक्त होने के बाद कोई प्रभीप्सा नियमों का पालन करना तथा कर्तव्य कर्मों का निभाना न रह जाने के कारण संसार के संचालन का प्रश्न ही नहीं मावश्यक है । धार्मिक जीवन हमे सत्य की गहराई में पहुंउठता । सष्टि, स्थिति तथा सहार अथवा उत्पाद, धोव्य चाने में सहायक होता है। पौर व्ययपना प्रत्येक वस्तु मे पाया जाता है। जीव का मध्त्र के अनुसार वेदों के अध्ययन से हम सत्य ज्ञान स्वरूप प्ररूपी है। मुक्तावस्था मे स्वरूप प्रकट होने पर प्राप्त कर सकते है और उसकी प्राप्ति के लिए एक उपपवित्र मूर्तियों के अन्दर उपस्थित रहने का प्रश्न ही नहीं युक्त गुरु को आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति में ब्रह्म के उठना । राग-द्वेष से विहीन होने के कारण मुक्त पुरुष एक विशेष रूप का साक्षात्कार करने की क्षमता रहती है। अथवा कैवल्यप्राप्त पुरुष न तो किसी को दण्ड देता है, न केवल देवतामो तथा तीन उच्च वर्गों के मनुष्यों को ही किसी पर अनुग्रह करता है। प्रत्येक प्रात्मा अपने कर्मों वेदाध्ययन को माज्ञा दी गई है। ध्यान के द्वारा प्रात्मा का क्षय कर मुक्त हो सकता है । देवीय कृपा से अपने मन्तःकरण मे ईश्वर का साक्षात् ज्ञान मध्व ब्रह्म पोर जीव के मध्यगत भेद को यथार्थ प्राप्त कर सकती है । जैन दर्शन के अनुसार प्रमाण और मानते हैं। उनका मत है कि यह समझना भूल है कि नयों के द्वारा पदार्थों की जानकारी होती है । ज्ञानावरण मोक्ष की अवस्था में जीव और ब्रह्म अभिन्न हो जाते है। कर्म के क्षयोपशम से एक देश ज्ञान तथा क्षय से पूर्णज्ञान पौर ससार में भिन्न है। जैन दशन सभी प्रात्मानो का प्रकट होता है। प्रत्येक प्रात्मा अपना पूर्ण विकास कर चाहे वे मुक्त हों या संसारी स्वतन्त्र, पृथक पृथक अस्तित्व परमात्मा बन सकता है। सम्यग्ज्ञान की प्रारापना का मानता है । मध्व के अनुसार मास्मा स्वतन्त्र कर्ता नही हैं. प्रधिकार सबको है। प्रशस्त ध्यान के द्वारा प्रास्मत्व की क्योंकि वह परिमित शक्ति वाला है और प्रभु उसका माग उपलब्धि होती है, देवीय कृपा का ध्यान के साथ योग दर्शन करता है। जीव को प्राकार मे मण बतलाया है नही है । जीव स्वयं प्रयत्न कर बन्धन से मुक्त होता है, मौर यह उस ब्रह्म से भिन्न है जो सर्वव्यापी है । जनदर्शन इसके लिए ईश्वर कृपा आवश्यक नही है। कोई देवीय के अनुसार प्रात्मा नैश्चयिक दृष्टि से अपने भावो का इच्छा मनुष्य को बन्धन में नहीं डालती, अपितु अपनी कर्ता है और व्यवहारिक दृष्टि से कर्मादि का कर्ता अनादिकालीन कर्म परम्परा से जीव बन्धन मे पड़ा हुआ है। मात्मा स्वरूपतः अपरिमित शक्ति वाली है । ससारी है। सम्यक श्रद्धा, ज्ञान पोर पाचरण ये तीनों मोक्ष के प्रात्मा कैवल्य प्राप्त अथवा मुक्त प्रात्मामों से प्रेरणा ग्रहण लिए मावश्यक हैं। करता है। जीव शरीर प्रमाण पाकार वाला है । मुक्ता. जैन मन्दिर के पास स्मानों से भिन्न किसी सर्वव्यापी ब्रह्म की सत्ता नहीं है। बिजनौर (उ० प्र०)

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126