Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 72
________________ १४ वर्ष ३४,कि..1 अनेकान्त 'न सम्यक्त्वसमें किचित्काल्ये त्रिजगत्यपि । संसारी जीव अपनी प्रज्ञानतावश जिस इन्द्रिय जन्य श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं मान्यत्तनुभृताम् ॥ सुख को सुख समझ रहे है वह सुख नहीं अपितु दुख ही व्यवहार में हम जिन उत्तम क्षमा-मार्दव मार्जव शौच है। क्योंकि उसमें अनाकुलता पौर स्थायित्व नहीं । सुख सस्य, संयम, तप, त्याग प्राचिन्य मौर ब्रह्मचर्य को धर्म परमसुख वह है जिसके प्रादि मध्य अन्त्य तीनों सुखरूप का रूप मानते हैं उन धर्मों की जड़ में भी सम्यग्दर्शन बैठा हों। जिसमें दुख और प्राकुलता का लेश न हो। ऐसा हमा है। प्रतः मिथ्यादृष्टि के उत्तम क्षमादि होना सर्वथा परमसख सर्वकम क्षय लक्षण मोक्ष में है और वह मोक्ष प्रशक्य हैं । यदि कोई कुलिंगी उक्त धर्मों का पासरा लेता सम्पदर्शन रूपी सीढ़ी के बिना नहीं मिल सकता । प्रर्थात है और उनके पासरे मिथ्यात्व सहित अवस्था में धर्म सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल की प्रथम सीढ़ी है । इसलिए मानता है तो वह धर्म एव उसके स्वरूप को नहीं जानता दर्शन से भ्रष्ट नही होना चाहिए। क्योंकिसम्यग्दष्टि का धर्म ऐसे किसी प्रपच से सम्बन्ध नही रखता 'नहि सम्यक्त्व समं किचित्रकाल्ये त्रिजगत्यपि । जिसमें संसार-वर्धक क्रिया-कलापों का ससर्ग भी होता हो। योऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनुभताम् ।' कहा तो यहां तक है कि अर्थात तीनों कालों और तीनों लोकों में शरीरबारियों 'भयाशास्नेहलोभाच्च कुवेवागम लिगिन। को सम्यक्त्व सदृश कोई कल्याणकारी और मिथ्यात्व के प्रणामं विनयं चंद न कुयुः शुटवृष्टयः॥ सदश कोई प्रकल्याणकारी नहीं है। प्रति सम्यग्दृष्टि जीव किन्हीं भी और कैसे भी सांसारिक सुख अर्थात् माध्यात्मिक दृष्टि में तुच्छ कारणों के उपस्थित होने पर कुदेव कुशास्त्र और कुगुरुषों सुख तो भन्य साधनों से भी प्राप्त हो सकते है । पर मोक्ष की मान्यता नहीं करता । मूलरूप मे धर्म भी वही है जहां सुख के लिए सम्यग्दर्शन होना अवश्यम्भावी है। प्राचार्यों शुद्ध प्रात्म-द्रव्य के अतिरिक्त पर पदार्थों में निजत्व की ने जहां पुण्य की महिमा का वर्णन किया है वहां सम्यकल्पना प्रथवा उन पर पदार्थों से ख्याति-पूजादि की चाह ग्दर्शन को ही प्रधानता दी है । यथामादि का पूर्ण प्रभाव होता है और किसी भी लोभ-माशा 'सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा। प्रथवा स्नेह के वश से पर-पदार्थों की प्रशसा नहीं की मोक्खस्स होह हे जइ विणियाण ण सो कुणई ।' जाती है। हाँ, पदार्थ स्वरूप भवगम की दृष्टि से उनके अर्थात् सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से ससार का कारण यापातथ्य स्वरूप पर विचार और वर्णन करने मे दोष नहीं होता । स्वाध्यायो देखेंगे कि उक्त गाथा मे पुण्य के नहीं। सार यह कि धर्म के अस्तित्व में सम्यग्दर्शन की पूर्व सम्यग्दर्शन का उल्लेख किया गया है। यदि मात्र पुण्य उपस्थिति परमावश्यक है । प्रात्म-पुरुषार्थी का प्रयत्न होना से ही मोक्ष मिलता होता तो प्राचार्य इस गाथा में सम्यचाहिये कि उसका एक भी क्षण सम्यग्दर्शन की माराधना ग्दर्शन जैसे महत्वपूर्ण शब्द का प्रयोग पुण्य के पूर्व में न के बिमान जाय । करते । और मण्यत्र मोक्ष विधि में पुण्य प्रकृति के नष्ट सम्यग्दर्शन-महिमा के प्रकरण में प्राचार्य कुन्दकुन्द करने का विधान: करने का विधान भी नहीं करते। यदि कदाचित् सम्यस्वामी कहते हैं ग्दर्शन-हीन पुण्य को ही मोक्ष का कारण मान लिया जाय सण भट्टा भट्टा, बंसण भट्टस्स पत्थि णिवाणं। तो ज्ञान ने कौन सा अपराध किया है जिसे प्रात्म-गुण सिझति चरियभट्टा, सण भट्टा ग सिझंति ॥३॥ होने पर भी सम्यग्दर्शन के प्रभाव में मोक्ष का कारण न अर्थात् दर्शन से भ्रष्ट जीव भ्रष्ट हैं। उनके सर्वकर्म. माना जाय । विचित्र सी बात होगी कि एक पोर तो क्षयलक्षण मोक्ष नहीं है। चारित्रभ्रष्ट (व्यवहार-चारित्र. प्रास्मा से सर्वथा विपरीत और कर्म प्रकृति-रूप-पुण्य को भ्रष्ट) जीव तो कदाचित् ठिकाने पर मा मात्मोपलब्धि सम्यग्दर्शन की उपेक्षा कर मुक्ति का दाता मान लिया को प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव जाय और दूसरी भोर पास्मा के निज तत्व-ज्ञान गुण को मारमोपलब्धि नहीं पाते । माशय है कि सम्यग्दर्शन के प्रभाव में सभ्यपना भी न दिया जाय ।

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