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जैन धर्म पांच अणुव्रत
उसे दूसरों की बुराई नहीं करनी चाहिए और असभ्य इस सिद्धान्त के अनुसार वाह्य मोर अभ्यन्तर वस्तुओं वचन नहीं बोलना चाहिए ।
के प्रति लालसा रखना ही परिग्रह है । वाह्य परिग्रहो में वचन के चार प्रकार होते है-कुछ वचन तो प्रसत्य खेत, घान्य, धन, बरतन, प्रासन, शय्या, दास दासी, पशु होते हुए भी सत्य माने जाते है-जैसे 'वस्त्र बनता है। और वस्त्र प्राते है, जबकि अन्तरंग परिग्रह चौदह हैयहां पर वस्त्र बनना यद्यपि असत्य है, किन्तु लोक व्यव- मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषबेद, नपुमकवेद, हास्य, रति, परति हार में प्रचलित होने से उसे सत्य माना जाता है । कुछ शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ । अगर वचन सत्य होते हुए भी असत्य होते है-जैम कोई व्यक्ति प्र.न्तरिक परिग्रह से छुटकारा पाना हो, तो वाह्य सपति दस दिनो पर किसी वस्तु को देने का वादा करके भी को अपने से अलग हटाना ही होगा। परिग्रह से ही हिसा समय पर नहीं देता, वरन पन्द्रह दिनो बाद देता है । कुछ बढती है, प्रतः बुद्धिमान गृहस्थ को इससे अपना मन वचन सत्य सत्य कहे जाते है-जैसे जिस वस्तु को जैसा हटाना चाहिए, तभी वह परिग्रह परिमाणवन का पालन देखा गया है, वैसा ही कहना सत्य-सत्य है। चौया वचन कर सकता है । जब अपने साथ जन्म लेने वाला शरीर ही असत्यासत्य है, जिसे सफेद झूठ की सज्ञा दी जा सकती है। बिछुड जाता है, तब धन सम्पत्ति और स्त्री-पुत्र की चिन्ता
उपरोक्त अनुदेशो का शत् प्रतिशत पालन तो कोई करने से क्या लाभ होगा! मनिही कर सकता है, अत: इसे मानने वाले को सत्य वर्तमान परिस्थितियो मे अपरिग्रह का सिद्धान्त हमारे महाव्रती कहा जाता है । पर गृहस्थ और सामान्य जीवन लिये इसलिये भी आवश्यक हो जाता है, क्योंकि इसो के के क्रम में कोई व्यक्ति इन निर्देशो का अक्षरश: पालन नही द्वारा समाज और देश से प्रायिक असम नता को दूर किया कर सकता, अतः वसे सत्य को सत्य अणुव्रत कहा जा जा सकता है और हर व्यक्ति अपनी जरूरत को प्रावश्यक सकता है। अगर किसी वचन से किसी भी तरह की सत्य वस्तु पा सकता है। प्राज धन-सम्पत्ति, भूमि और प्रतिष्ठा हिसा होती है, तो वैसा नही बोलना चाहिए । अन्ततः के पीछे व्यक्ति पागल हो रहा है, जिससे व्यक्ति-व्यक्ति सत्य तथा प्रसत्य को अहिंसा और हिंसा की तुलना की के तथा राष्ट्र, राष्ट्र के बीच तनाव बढ़ रहा है। प्रपरिजा सकती है और सत्य वचन से ही अहिंसा संभव भी है। ग्रह पूजीवाद भोर कम्युनिज्मवाद के बीच की चीज है,
अस्तेय जैनधर्म का तीसरा व्रत है और इसका साधा. जिस पर चलकर वास्तविक समाजवाद की प्राप्ति की जा रणत: अर्थ होता है 'पराई वस्तु को ग्रहण न करना।' जो सकती है। मनुष्य निर्मल प्रचौर्य ब्रत का पालन करते है, वे किसी भी जैन धर्म का अन्तिम प्रोर महत्वपूर्ण व्रत है ब्रह्मचर्य । वस्तू को लेने के अधिकारी नहीं होते, जब तक कि वह जो व्यक्ति अपने पापको काम विकार से पूर्णत: मुक्त कर वस्तु उन्हें सौप न दी जाए । दूसरी तरफ अस्ते याणवत लेता है, वह ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन करता है । प्रादर्श पालन करने वाले व्यक्ति आम तौर से प्राकृतिक वस्तुप्रा गहस्थ को ऐसी वार्ता नहीं करनी चाहिए, जो कामोका उपयोग-उपभोग कर सकते है, जैसे पानी, घास, टीपक हो. ऐसे रसो का सेवन नही करना च मिट्री वगैरह । किसी के द्वारा छुट गई या भूली हुई वस्तु काम-विकार की वृद्धि हो और न ऐसी पुस्तकें ही पढ़नी को स्वय लेना या दूसरे को सौप देना इस नियम के प्रति- चाहिए । परायी स्त्री के साथ रमण करना, अप्राकृतिक कल है । जिस धन का कोई मालिक नही होता, वह राज्य व्यभिचार करना, दूसरो के विवाह कराने में प्रानन्द का होता है तथा उसे स्वयं रख लेना उचित नहीं कहा लेना-ये सारी बाते ब्रह्मचर्यव्रत की घातक है और इनसे जा सकता । चुराने के विचार से किसी वस्तु को उठाना प्रपने प्रापको अलग रखना सच्चे अर्थो मे इस नियम का चोरी के उपाय बतलाना, चोरी का सामान खरीदना, पालन करना है। कम या अधिक तोलना और गलत तरीके से धन कमाना भगवान महावीर द्वारा इस प्रणवत को विशेष महत्व ये सभी जन सिद्धान्त के विरुद्ध है।
देने के पीछे भी एक कारण था। छठी शताब्दी ई० पू०