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२२, पर्ष ३४, कि० २.३
अनेकान्त
है कि भरुकच्छ के राजा के घोडको जब अश्वमेघ में ७. स्त्रियों को हीनतर स्थिति बलि दिया जा रहा था तब उसके उद्धार के लिए मनि- यद्यपि दोनों परपरामों में समता का बड़ा सम्मान है सुब्रत तीर्थङ्कर प्रतिष्ठान नगर से एक रात्रि में माट योजन तथापि स्त्रियों के विषय में दोनों को धारणा अनुदार है। चलकर भरुकच्छ पहुंचे और उस प्रश्व को पूर्व जन्म कथा बौद्ध ग्रंथ सद्धर्म पुण्डरीक में कहा गया है कि ब्रह्मपद, शक सुनाकर प्रतिबोधित किया।
पद, महाराजपद, चक्रवतिपद और बुद्धपद स्त्री पर्याय में
प्राप्त नही होते ।" जैन परपरा का भी इस विषय में तियंच प्रतियोष
प्रायः यही मत है । अपवाद रूप में श्वेतांबर परंपरा में प्रश्वावबोध के समान अन्य अनेक जैन कथानों मे।
महिल तोयंकर को अवश्य स्त्री बताया गया है।" जैसाकि पशु-पक्षी नमस्कार मात्र या उपदेश श्रवण से प्रतिबोधित
सुविदित है-स्त्रियों की मुक्ति प्राप्ति श्वेतांवर पोर होते बताये हैं। पाश्र्वनाथ कथा में नाग-नागिनी मरणा
दिगबर संप्रदागों में विवाद का विषय रहा है। सन्न स्थिति में राजकुमार पावं का उपदेश सुनकर देवपद प्राप्त करते है।" जीवन्धर कथा मे एक कुत्ता जीवघर ८. देवस्थिति से नमस्कार मंत्र सूनकर यक्षपद प्राप्त करता है।" इसो जैन कथानों में तीर्थंकरों के और बौद्ध कथानों में प्रकार बौद्ध कथानों में भी पशु-पक्षियो के उद्धार के प्रसग बद्धों के दर्शन-पूजन के लिए देवों के प्रागमन का वर्णन प्रायः वणित हैं। दिव्यावदान के शुकपोत कावदान मे दो तोतों मिलता है। अन्तर यह है कि अवदानो में बुद्ध के प्रादेश का वर्णन है जो बिल्ली द्वारा पकड़ जाने पर नमो बुद्धाय से देवराज वर्षा कर भक्तों को दुःखमुक्त करते है या धन कहते हुए प्राण त्याग कर देवपद पाते है।" इसी अन्य के देकर किसी बैल को बचाते हैं। तीर्थंकरों की कथानों में प्रशोकवर्णावदान के अनुसार वैशाली में मारा जा रहा देबों को ऐसे कोई कार्य करने को नहीं कहा गया है। एक बल बुद्ध की कृपा से मुक्त होता है और प्रगले जन्म दिव्यावदान के मांधातावदान में त्रास्त्रिश देवों की मायु में प्रत्येक बुद्ध होता है।
मनुप्यों की गणना से ३६०००० वर्ष बताई है।" स्पष्ट
___ है कि जन कल्पना इस विषय में काफी बढ़ी-चढ़ी है जिसमें ६. निदान
देवों की न्यूनतम प्रायु दस हजार वर्ष पोर अधिकतम जैन कथानों में तपस्वी अपने तप का प्रमक फल तीस सागर बताई गई है।५ मांधातावदन में देवलोक प्राप्त हो ऐमी इच्छा करे उसे निदान कहा गया है। सुभोम समेह पर्वत के ऊपर बताया गया है ।" जैन कल्पना भी चक्रवर्ती की कथा," त्रिपृष्ठ नारायण की कथा," कस वही है। परन्तु इस वदान में राजा माघाता देवलोक की कथा" मादि में इसके उदाहरण बताये गये हैं । बौद्ध में जाकर इन्द्र के अर्धासन पर बैठने का सम्मान प्राप्त कथानों में ऐसे सकल्प को मिथ्या प्रणिधान व हा गया है। करता है ।२८ ऐसी बात जैन कथानों में संभव नही है । दिव्यावदान के कोटि कर्णावदान के अनुसार एक उपाप्तिका दिव्यावदान के नगरावलबम्किावदान मादि में वर्णन मिलता का पुण्य इतना अधिक था कि वह त्रास्त्रिश देवो में है कि देवों का ज्ञानदर्शन अपने स्थान से नीचे प्रवृत्त हो उत्पन्न होती परन्तु मिथ्या प्रणिधान के कारण वह प्रेत- सकता है-ऊपर नही।" जैन कथामों में भी इसी प्राशय महधिका बनी।" बौद्ध कथामों में प्रणिधान शुभ रूप में का वर्णन मिलता है।" जैन कथामों में देव अपनी नियत भी वणित है। जैसाकि कार बताया है-मैं बुद्ध बनें ऐसे प्राय पूर्ण होने के बाद नियत गति में जन्म लेते बताये गये चित्त के उत्पाद से बुद्धत्व की प्रतिक्रिया प्रारम्भ होती है। हैं। देवगति में वे उत्तरकालीन गति में परिवर्तन नहीं कर दिव्यावदान के मैत्रेयावदान में शख चक्रवर्ती का प्रसंग है सकते ।" इसके विपरीत दिव्यावदान के सूकरिकावदान में जिसने पूर्व जन्म में मैं चक्रवर्ती बनं ऐसा संकल्प किया कथन है कि एक देव जो सूकर योनि में उत्पन्न होने वाला था।"-इसमें अशुभत्व का कपन नहीं है।
(शेष पृष्ठ २७ पर)