Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 59
________________ जैन और बौद्ध प्रथमानुयोग 0 डा० विद्याधर जोहरापुरकर व्यक्ति के जीवन में स्वप्नों का जो स्थान है वही होगी ऐसी भी धारणा थी। दिव्यावदान के मंत्रयावदान समाजजीवन में पुराण कथानों का है। स्वप्न में जिम के अनुमार जब मैत्रेय बद्ध होंगे तो मनुष्याय प्रस्पी हजार प्रकार कुछ यथार्थ, कुछ कल्पना पौर कुछ अाशा-माशंका वर्ष होगी। जैन धारणा में ये सख्यायें काफी अधिक है। का मिश्रण होता है उसी प्रकार पुराण कथामो मे भी प्रयम तीर्थङ्कर वृषभदेव को प्रायु चौरासी लक्ष पूर्व' पोर पाया जाता है। स्वप्नों से व्यक्ति की अन्तनिहित प्रवृत्तियों अठारहवें तीथंकर भरनाय की प्रायु चौरासी हजार वर्ष का संकेत मिलता है उसी प्रकार पुराण कथाम्रो से समाज कही गई है. इसी प्रकार भविष्यकाल के तीर्थङ्करों की तानाहत प्रवृत्तिया का सकैत मिलता है । बोद्ध व मायु क्रम से बढ़ती हुई बताई गई है। जैन परपरा मे प्रारभिक युग मे प्रागम एव त्रिपिटक मे महावीर और बुद्ध के जीवन मोर पूर्वभवो की कथायें 1 ३. तीर्थङ्करत्व या बुद्धत्व र प्रकीर्ण रूप मे है। बाद मे एक साहित्य प्रकार के रूप मे दोनी परंपरामो की धारणा है कि वर्तमान के समान जैन परंपरा मे पुराण कथामो को प्रथमानुयोग यह नाम भूतकाल पोर भतकाल और भविष्यकाल में बहुत से तीर्थ दूर या बद्ध मिला । विमल का पउमचरिय, सघदास-धर्मसेन को वसु- हुए पार हे चरिय. मघटाम-मन को वहए और होगे। जैन परपरा में तीनो कालो में देवहिण्डी पोर शीलाक का च उपन्न महापरिसचरिउ ये चौबीस तीथंकरों का कथन है। पवदानों में बद्धों की प्राकृत में प्रथमानुयोग के मुख्य प्रथ है। संस्कृत में रविषेण संख्या बहुत अधिक है । बुद्ध या स्तूप की पूजा या उनको का पनवरित, जिनसेन का हरिवंशपुराण भौर जिनसेन दिये गये दान से विशुद्धचित्त होकर कोई प्राणी मैं बुद्ध (द्वितीय) तथा गुणभद्र का महापुराण ये प्रथमानुयोग के बनूं इस प्रकार चित्तोत्पाद करता है यह अवदानों में मुख्य ग्रंथ हैं । इनके अतिरिक्त हरिषेण, श्रीचन्द्र प्रादि के बुद्धत्व प्राप्ति की प्रक्रिया के प्रारभ का प्रकार है। जैन कथाकोश भी महत्त्वपूर्ण है । बौद्ध परपरा मे प्रथमानुयोग पुराणों में तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध के लिए ऐसी कोई जैसा शब्द तो नही है परन्तु विस्तृत कथासाहित्य प्रवश्य विशिष्ट घटना को निमित्त नही बताया गया है -सामान्य है। पालि में जातक और सस्कृत में प्रवदानशतक, दिव्या. रूप से तपस्या से या दर्शनविशुद्धि मादि सोलह भावनामों वदान, ललितविस्तर प्रादि बौद्ध कथा साहित्य के मुख्य से तीर्थङ्करत्व की प्रक्रिया का प्रारंभ बताया गया है।' अन्य हैं । इस लेख में हम इन दो धारापो में प्राप्त कुछ ४. बकृपा सामान्य धारणामो के साम्य-वैषम्य पर विचार करेंगे। तीर्थङ्कर पोर बुद्ध महान् लोकोपकारक है, इस विषय २. बोर्घ प्राय मे दोनों परसरामो की धारणा समान है । परन्तु प्रवदानों मानवों की प्रायु प्राचीन समय में बहुत अधिक हुमा मे दुःखित भक्तो को पुकार सुन कर बुद्ध स्वयं या इन्द्र करती थी यह दोनों परपरामों की धारणा है । दिव्याव- को पादेश देकर भकों को दुःखमुक्त करते बताये गये हैं।' दान के सघरक्षितावदान के अनुसार काश्यप बुद्ध के समय जैन पुराणो मे इस प्रकार तीर्थङ्करों की प्रत्यक्ष सहायता लोगों की प्रायु बीस हजार वर्ष थी,' चन्द्रप्रभबोधिसत्वा- का वर्णन नहीं है-उनके उपदेश या भक्ति से प्राप्त पुण्य वान के अनुसार उस बोधिसत्त्व के समय की मनुष्यायु से दुखमुक्ति बताई गई है। पपवाद रूप मे जिनप्रभ के वालीस हजार वर्ष थी। भविष्यकाल में दीर्घ मायु विविध तीर्थकल्प मे प्रश्वावबोध तीर्थकरूप में बताया गया

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