Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 61
________________ ज्ञान प्राप्ति के उपाय: अवग्रहहावायधारणाः डा० नंदलाल जैन सामान्य जनता में धार्मिक वत्ति को जगाये रखने के पावश्यकता नहीं पड़ती। संसारी जीव ही क्रमिक विकास लिये अनेक पुरातन प्राचार्यों ने समय-समय पर उपयोगी करते हए योगी होता है, फलतः उसका ज्ञान-विकास भी धर्म ग्रन्थों को रचना की है। इनका मुख्य विषय 'सम्यक- बाह्य-साधन-प्रमुख विधि से भागे चल कर अन्तर्मुखी हो दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' ही होता है। वस्तुतः जाता है, ऐसा मानना चाहिये। सामान्य जन को ज्ञानमोक्ष और उसका मार्ग साधु-जन सुलभ होता है, सामान्य । प्राप्ति के लौकिक साधनो के रूप में इन्द्रिया और मन जन के लिये तो गृहस्थ मार्ग ही प्रमुख है। जिन गृहस्थो सुज्ञात है। इनकी सहायता से पाप्त ज्ञान को मतिज्ञान के ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी पौर अन्य कर्मों का जितना कहते है। इस प्रकार, सामान्य जन मति और श्रुन-दो प्रल्प बंध या उदय होता है, वे उतना ही मोक्षमाग को ज्ञानो से ही मागे बढ़ता है। श्रुतज्ञान स्वय या दूसरों के प्रोर प्रवृत्त होते हैं। यद्यपि 'निर्वाणकांड' मे मक्तों को मतिज्ञान का रिकार्ड है। मतिज्ञान स्वय का प्रपना प्रयोग प्रपरमेय संख्यायें निरूपित की गई है, फिर भी पिछले और दर्शन-जन्य ज्ञान है । एक वैज्ञानिक भी इन्हीं दो पच्चीस-सौ वर्षों में कितने मोक्षगामी हुए है, इसका कोई ज्ञानो से वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रारंभ, विकास पौर विवरण उपलब्ध नही है। फिर भी, मक्ति में एक मनो- पुननिर्माण करता है। श्रुतसागर सूरि ने बताया है कि वैज्ञानिक प्राकर्षण है, शुभत्व की ओर बढ़ने की प्रेरणा यह ज्ञानमार्ग ही हमारे लिये सरल, परिचित पौर है। यह मार्ग निसर्गज भी बताया गया है और अधिगमज अनुभवगम्य है।' भी।' निसर्गज मार्ग विरल हो दष्टिगोचर हपा है। मतिज्ञान के नामइसलिये इसके अधिगम के विषय मे शास्त्रो मे पर्याप्त में सर्वप्रथम अपने द्वारा प्राप्त ज्ञान-मतिज्ञान की बात वर्णन पाया है। इसके एक लघु अंश पर ही यहा विचार करू । उमास्वामी ने इसके अनेक नाम बताये हैं-स्मृति, किया जा रहा है। सज्ञा चिन्ता और प्रभिनिबोध प्रादि पागम ग्रन्थों मे मति अधिगम के लिये विषय वस्तु के रूप में सात तत्व के बदले अभिनिबोध का ही नाम पाता है, कुन्दकुन्द ने पौर नव पदार्थों का निरूपण किया गया है। इनका सर्वप्रथम मतिज्ञान के नाम से इसका निरूपण किया। मधिगम प्रमाण पौर नयो से किया जाता है। इनका उमास्वामी ने इसके अनेक रूपो को वणित किया। इसके विवरण अनुयोग द्वार में विशेष रूप से दिया जाता है। अंतर्गत अनेक मनोप्रधान या बुद्धिप्रधान प्रवृत्तियां भी मति पदार्थों का अध्ययन सामान्य या विशेष अपेक्षानों से छह मे ही समाहित होती है। यह वर्तमान को ग्रहण करता है, या पाठ अनुयोग द्वारो' के रूप में किया जाता है । यह इस प्राधार पर स्मृति प्रादि को मतिज्ञान नही माना मध्ययन ही ज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान सामान्य जन को जाना चाहिये था। क्योंकि इनमे प्रतीत का भी सबंध इन्द्रिय, मन पोर भुज की सहायता से होता है । योगिजन रहता है। फिर भी प्रकलंक' ने इन्हे मनोमति मान कर प्रथवा महास्मामों को यह ज्ञान प्रात्मानुभति के माध्यम सामन्य मतिज्ञान के रूप में ही बताया है। वस्तुतः इस से भी प्राप्त हो सकता है जहां उन्हें बाह्य माधनो की माघार पर स्मृति, मना (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क, * जैन विद्या सगोष्ठी, उज्जैन, १९८० मे पठित निबंध का परिवषित रूप ।

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