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कार्यकारण भाव), प्रोर अभिनिबोध ( अनुमान व्याप्तिज्ञान) को जिन दार्शनिकों ने पृथक् प्रमाण माना है, उनका निरसन कर जनों ने इस सभी को मतिज्ञान में समाहित कर लिया। भट्टाचार्य ने चिन्ता और अभिनिबोध को वर्तमान प्रागमन और निगमन तर्क शास्त्र के समरूप बताकर पाश्चात्य तर्कशास्त्र की मौलिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया है ।
उमास्वामी के मतिज्ञान के अनन्तरों के दिग्दर्शक सूत्र की टीकामों में धनयतरस्य (पर्यायवाची) पद पर नेक प्रकार के प्रश्नोत्तर किये गये है। इनमे इसी सूत्र में वर्णित 'इति' शब्द को इत्यादि वाचक, प्रकार वाचक या ( अभिधेयार्थवाचक) के रूप में माना है । जब 'इति' को इत्यादि वाचक मानते है, तब मतिज्ञान के कुछ अन्य पर्यायवाची भी बताये जाते हैं इनमे प्रतिभा, बुद्धि मेघा, प्रज्ञा समाहित होते हैं ।' इन सभी पर्यायवाचियों के विशेष लक्षण पूज्यपाद ने तो नही दिये है पर अकलक मोर श्रुतसागर ने दिये है। इनके अनुसार, मतिज्ञान के इन विभिन्न नामरूपों से उसकी व्यापकता तथा क्षेत्रीय विविधता का स्पष्ट सामात होता है क्योंकि प्रत्येक नाम एक विशिष्ट प्रर्थ और वृत्ति को प्रकट करता है। मतिज्ञान की प्राप्ति के चरण
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सामान्य जन को मतिज्ञान कैसे उपलब्ध होता है ? इस विषय पर ध्यान जाते ही उमास्वामी के दूसरी सदी के 'तत्वार्थ सूत्र' का 'प्रवप्रहेहावायधारणा: ' (१,१५ ) स्मरण हो आता है । यद्यपि श्रागम ग्रन्थो मे भी इनका उल्लेख पाया जाता है,' ( इससे इनकी पर्याप्त प्राचीनता सिद्ध होती है) पर साधारण जन के लिये तो 'तत्वार्थ सूत्र' ही भागम रहा है । सचमुच मे, संद्धान्तिक प्राधार पर यह सूत्र एवं इसकी मान्यता सर्वाधिक वैज्ञानिक है । इस मान्यता मे ज्ञान प्राप्ति के लिये वे ही चरण बताय गये है जो भाज के वैज्ञानिक चौदहवी सदी में अपने पर अनुभब से बता सके । काश, इन्हें हमारे प्रागन मोर तत्वार्थ सूत्र मिले होते ?
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इस सूत्र के अनुसार, मतिज्ञान प्राप्ति के पांच चरण होते हैं- प्रथम इन्द्रिय मोर पदार्थों के प्रत्यक्ष या परोक्ष सपर्क से निराकार दर्शन, फिर साकार सामान्य ज्ञानात्मक
वह फिर किंचित् मम का उपयोग कर विचारपरीक्षण करने से वस्तु विशेष का अनुमान ईहा, इन्द्रियसवद्ध वस्तु विशेष का उपलब्ध तथ्यों और विचारों के प्राधार पर निर्णय-वाय या अपाय, मौर तब उसे भावी उपयोग के लिये ध्यान, स्मरण मे रखना - धारणा । ये क्रमिक चरण है, पूर्वोत्तरवर्ती है। इन्ही चरणों को वैज्ञानिक जगत अपनी स्वय की पारिभाषिक शब्दावली" मे निम्न प्रकार व्यक्त करता है :
१. प्रयोग और निरीक्षण २. वर्गीकरण
३. परिणाम निष्कर्ष उपपत्ति प्रवाय
४. नियम सिद्धान्त
धारणा
इनमें से प्रथम चरण को छोड़ अन्य चरणों मे मन और बुद्धि की प्रमुखता बढती जाती है । तुलनात्मक दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे यहाँ धारणा शब्द का अर्थ कुछ सीमित यों में किया गया है। वस्तुतः यह शब्द अनेकार्थक है और इसे केवल स्मरण मात्र नही मानना चाहिये | इसे उपरोक्त चार चरणों से प्राप्त इन्द्रिय और मन के उपयोग से निष्कषित ज्ञान के व्यापकीकरण या सैद्धान्तिक निरूपण के समकक्ष एव श्रुत के आधार के रूप में मानना चाहिए । यही परिभाषा इसे नियम या सिद्धान्त के समकक्ष ला देती है। इस प्रकार ज्ञानप्राप्ति की वर्तमान चतुश्चरणी वैज्ञानिक पद्धति 'मवग्रहेावायचारणा' का नवीन संस्करण ही है। इस पर प्राधारित धर्म या दर्शन को वैज्ञानिकता प्राप्त हो, इसमें प्राश्चर्य नही करना चाहिये । मतिज्ञान के भेव और सीमायें
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दर्शन घोर प्रवग्रह ईहा
शास्त्र में ग्रहादि को मतिज्ञान के भेद के रूप में माना गया है। इसमें ग्रह का विशेष वर्णन है क्योंकि यह हमारे ज्ञान का प्रथन और मूलभूत चरण है। यह श्रुत निःसृत भोर प्रश्रुत प्रनिःसृत के रूप में दो प्रकार से उत्पन्न हो सकता है ।" यह व्यक्त रूप से धौर प्रव्यक्त रूप से भी उत्पन्न हो सकता है। प्रव्यक्त प्रवग्रह चक्षु मोर मन को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों के कारण ही होता है अव्यक्त भवग्रह दर्शन की समतुल्यता प्राप्त कर सकता है, ऐसा भी कहा गया है । भवग्रह के विपर्यास में,