Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 58
________________ क्षमावणी (प्राध्यात्मिक) मैं हूँ चेतन निज-स्वभाव में, मुझमें लघु-गुरु-भाव नहीं। क्षमा दान-प्रादान पराश्रित, लेन-देन का चाव नहीं। कितने जीवों ने एकाकी, मिश्रित मम अपमान किए। मैंने उनको जाना-पर, अनजाने जैसे मान लिए। क्षमा धरम मेरा है अपना मुझसे छुट नहीं सकता। कैसे लू-दूं इसे प्रात्मवर ! सूझ नहीं मुझको पड़ता। क्षमा-दान व्यापार बना अब इसमें है कुछ सार नहीं। क्यों करे, क्षमा-का दान कोई, जब, क्षमा किसी को भार नहीं।। पर्यषण में अनुभव पाया, स्वाश्रित-समरस पीने का। भाव जगा है मन में मेरे, सिद्ध-शिला पर जीने का ॥ ___मैं अपने में जीता हूं, जगती जन अपने में जीवें। अध्यात्म-पर्व का लाभ उठा, सब प्राणी समरस को पीवें।। जैसे होवें भाव प्रापके मुझको भी लखते रहना। क्षमा-रत्न अनमोल निधि ये, कभी किसी को क्या देना। प्रात्म-भाव में प्राप सदा रस स्वातम का चखते रहना। दे ले क्षमा यदि कोई तो, मौन-रूप लखते रहना ॥ जब क्षमा किसीको दान न की तबक्षमा हमारे साथ रही। क्षमा-शील होने से जगती, 'पद्म' बनेगी सौख्य मही॥ (व्यावहारिक) 'खंमामि सम्धजीवारणं, सम्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूदेसु वैरं मझ रण केरण वि ॥" 0 श्री पप्रचन्द शास्त्री

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