Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 52
________________ १४, वर्ष ३४ कि० २-३ का महावीर कालीन धर्म और समाज पूरी तरह व्यभिचार जातिवाद, हिंसा र भ्रष्टाचार के शिकंजे में जकड़ा पड़ा था । तत्कालीन हिन्दू धर्म के ठेकेदारों ने मन्दिरो प्रौर मठों में देशवासियों के रहने की प्रथा का प्रचलन कर दिया था, जिससे धार्मिक अनुष्ठानों पर चोट तो पहुंचती ही थी, धर्म के नाम पर विलासिता भी बढ़ती जा रही थी। दूसरी तरफ समाज मे स्त्रियों की दशा अत्यन्त शोचनीय हो रही थी और वे मात्र भोग-विलास की वस्तु वनकर रह गयी थी। आगे चलकर कई स्त्रियो का वर्णन भाता है, जो न सिर्फ अपने समाज श्रौर वर्ण, वरन् राष्ट्रीय समस्याओं पर भी अपना विचार देने की क्षमता रखने लगीं और समाज में उनका स्थान प्रतिष्ठा एवं गौरव का हो गया । ऐसे समय में भ० महावीर ने पुनः इन व्रतो की (पृष्ठ ११ का शेषाश ) ५. विभाचलम्मि रण्णे मेघणादो इंदजियसहिय । मेघवरणाम तित्यं णिव्वाणगया णमो तेसि ॥ ६. महाशैल विन्ध्याचल दृष्टि पाहा तथा मस्तकी तीर्थं श्राहेति माहा । तेथे मेघनाद मुनि इद्रजया । मेघवर्ष तीर्थं झाली मुक्ति श्रिया ॥ ( तीर्थ नन्दन संग्रह में चिमणा पडित को तीर्थं वन्दना मे) ७. बृहत्कथाकोष कथा १०६ श्लोक २५७ स्थापयित्वा यतो दुर्गे विन्ध्ये भक्तिपरायणः । दस्युभिः पूजिता सा चनता पुष्पकदम्बकः ॥ ८. कथाकोष संधि ४२ कडवक २१ सहु सघेण खवती कलिमल गय विहरति सा विभाचलु । दुग्ग विन.भिल्लेहि पवत्तिय दुग्ग विझवासिणि ते वुसिय || ६. विविधतीर्थंकल्प प्रकरण ४५ विन्ध्याद्रो मलयगिरी च श्री श्रेयांसः । प्रतिष्ठानपुरे प्रयोध्यायाँ दिन्ध्याचले माणिक्यदण्डके मुनिसुव्रतः । प्रति व्याख्या कर धर्म को स्थिर रखा । जैनधर्म के उपरोक्त पाँचो व्रतों और नैतिक नियमों पर ध्यान देने से पता चलता है कि उनका सम्बन्ध मात्र जैनधर्म से न होकर परिवार, समाज और राष्ट्रीय नीतियों एव सिद्धान्तों से है । इनके पीछे जहाँ प्राध्यात्मिक भावना है, वही यह विश्व की प्रगति, शान्ति पोर सहृदयता में सहायक हो सकती है । बाज विश्व में हिसा, व्यभिचार और कटुता बढ़ती जा रही है। क्या हम जंनधर्म के पचअणुव्रत के माध्यम से इन्हे समाप्त करने में समर्थ नही हो सकते ? श्रवश्य ही ! १०. महापुराण पर्व ३० श्लोक ६५ से ६४ भूभूता पतिमुत्तुगं पृथुवश धृतायतिम् । परंरलंध्यमद्राक्षीद् विन्ध्याद्रिस्वमिव प्रभुः || इत्यादि 1 ११. चउपन्न महापुरिसचरिय पृ० ३०९ वियडगिरिकडयकूडनिविडम्मि उद्धद्वाइय तुंगत रुस कडिल्ल मि 'बहुसाव यसस्ससकुलम्मि विझाडइरण्णगहणम्मि पंचसयजूहा - व्याख्याता इतिहास विभाग. यू० प्रार० कालेज, रोसड़ा ( समस्तीपुर ) दिवई प्रासि करिराया । १२. हरिवंशपुराण सर्ग १७ श्लो० ३६ विन्ध्य पृष्ठेऽभिचन्द्रेण चेदिराष्ट्रमधिष्ठितम् । १३. बृहत्कथाकोष कथा ११८ ततो जरत्कुमारोऽपि हित्वा द्वारावतपुरीम् । कृत्वा विन्ध्यपुरं तस्थो विन्ध्यपर्वतमस्तके || १४. उत्तरपुराण पर्व ७४ इलो० ३८६ । १५. धर्मपरीक्षा परिच्छेद ११ इलो० ४० । १६. पार्श्वचरित सर्ग १२ इलो० ५५ यत्रास्पदं न लभते जिन शासन ते तेजो रवेरिव तमः प्रसरापहारि । सा बन्मोहनमयी जिन चित्तवृत्तिः न श्यामिका त्यजति विध्य गिरेर्गुहेव ॥ १७. पासणाहचरिउ संधि ११ कडवक १० ते भिडिय महारहसावले व श्रवरुप्परु असुरसुरिन्द जेव । णं उत्तर दाहिण गयवरिद णं सझ विझ इह महिहरिद ॥ १८. प्रबन्धकोष प्रकरण ६ विक्रेण विणा वि गया नरिदभवणेसु होति गारविया विभो न होई वंझो गएहि बहुएहि वि गएहिं ॥ माणस रहिएहि सुहाई जह न लब्भंति रायहसे हि । तह तस्स वि तेहि विणा तीरु तंगा न सोहति । - महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर

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