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आज के संदर्भ में एक समीक्षा
जैनधर्म के पांच अणुव्रत
0 श्री विनोदकुमार तिवारी
जैन धर्म की शिक्षाओं एवं नियमों के लिए स्वयं जैनधर्म के सिद्धान्तो के अनुमार हिंसा तीन तरह की महावीर स्वामी के जीवन चरित्र से बढ़कर और कुछ भी हो सकती है-मानसिक, शारीरिक और मौखिक । लोग नहीं है। उनका जीवन स्वयं ही प्राज के जैन बन्धनों के प्रायः कहते है कि ऐसा कोई भी कार्य नही है जिसमे हिंसा लिए एक शिक्षा है, जिस पर विवेक और विचार को न हो, अर्थात् खाने-पीने, चलने-फिरने मोर सास लेने मे पावश्यकता है। जैन धर्म में मुख्य पांच व्रत हैं- भी जीवहिंसा होती है। यह कथन सत्य भी है, पर इसका अहिंसा, अमृषा, प्रस्तेय, अपरिग्रह पौर प्रमथन, अर्थात यह तात्पर्य नही कि अहिंसा अव्यवहार्य है। जैन मत के हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, चीरी मत करो, परिग्रह अनुसार यदि सावधानी रखते हुए किसी से कोई मर मत रखो और व्यभिचार मत करो। इन सबो पर अलग- जाता है अथवा दुखी हो जाता है, तो यह हिंसा नही होती मलग विचार की पावश्यकता है, पर उपरोक्त व्रों से यह ससार में हर जगह विशाल प्रोर सूक्ष्म जीव है और वे तो स्पष्ट होता ही है कि इनके द्वारा मनुष्य की उन वत्तियो अपने निमित्त मरते भी है, पर इस जीव घात को हिसा का नियन्त्रण करने का प्रयत्न किया गया है जो समाज में नहीं कहा जा सकता। वास्तव में हिंसा रूप परिणाम ही मुख्य रूप से बैर-बिरोध की जनक हा करती है। व्यक्ति हिंसा है। अगर एक शिकारी बन्दूक लेकर बैठा हो और मूलत: अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर ही सारी क्रियाए सारे दिन वह एक भी शिकार न दर पाये, तो भी वह करता है और जब तक उसे अच्छी और बरी क्रियानो का पापी ही कहा जायेगा, क्योकि उसका मन जीवहत्या में रम मापदण्ड नही मिलता, वह अपने प्राप पर अकुश नही रहा है । पर वही दूसरी तरफ एक किसान अपने खेत में लगा सकता। हिंसा, चोरी, दुराचार, झूठ और परिग्रह हल चला रहा हो और उसके परिणामस्वरूप असख्य जीवो ये पाचो बरे कार्य है, सामाजिक पाप है पोर जितने हो का घात हो रहा हो, तो भी वह किसान सकल्पी हिंसक अंश मे व्यक्ति इनका परित्याग करेगा, उतना ही वह सौम्य नही कहा जा सकता, क्योकि उसकी इच्छा और अभिलाषा पौर समाज हितषी माना जायेगा और अगर इन पाचो खेत जोतकर अनाज पैदा करने में है, जीवो को मारने में पापों को न करने का व्रत ले लिया जाए, तो समाज और नहीं। प्रत। यद्यपि प्रत्येक क्रिया मन, वचन, और शरीर देश विवेकशील, तिक, शुद्ध और प्रगतिशील बन सकता से होती है. पर वचन मोर शरीर से होने वाली क्रिया का है। भोर प्रात्मा की शुद्धि भी हो सकती है इसलिए प्रत्येक मूल भी मन ही है, अत: मन को सावधान रखने का व्रत का स्वरूप अलग-अलग जान लेना आवश्यक है। प्रयत्न करना चाहिए। मन की चंचलता व्यक्ति को कहाँ
प्रमाद के योग से प्राणियो के प्राणों का घात करना से कहां ले जाती है और इस दौरान व्यक्ति अपना लक्ष्य हिसा है और उनकी रक्षा करना महिसा है। महिंसा पाच भूल जाता है । फलस्वरूप वह धूत, प्राखेट, मद्यपान और व्रतों का केन्द्र बिन्दु है पौर शेष व्रत इसके सहायक हैं, मांसाहार का शिकार हो जाता है । एक महिसाव्रती को माधार हैं, ठीक वैसे ही जैसे अन्न के खेत की रक्षा और इन चीजो से सावधान रहना चाहिए पोर तभी वह सामारखवाली के लिए उसके चारों तरफ चारदीवारी बना दी जिक, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय दुख के क रणों पर विचार जाती है। इन नैतिकतामों को पूरी तरह मानने वाले को कर सकता है तथा इनका समाधान कर सकता है। 'महाव्रती' मोर अंशतः मानने वाले को 'प्रणवती' कहा जाता सत्याणुव्रत पालक को सदा हित मौर मित बोलना
चाहिए, किसी बात को घटा-बढ़ाकर नहीं रखना चाहिए