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जैन साहित्य में विन्ध्य चंचल
तीस इलोकों में विन्ध्य क्षेत्र का वर्णन मिलता है।" उपमान के रुप में प्राचार्य कहते हैं कि यह पर्वतराज ऊंचा है, इसके वंश सन् १०१३ मे प्राचार्य अमित गति द्वारा रचित धर्म(-बांस) विस्तीर्ण है और इसे लाधना कठिन है । इसके परीक्षा मे कथन है कि तिलोतमा के विलास विभ्रम देख शिखरों से बहते हुए झग्ने विमानों को पताकामो जैसे कर ब्रह्माजी का हृदय उसो प्रकार विदीर्ण हन्ना जैसे नर्मदा दिखते है । यह पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र तक फना है। से विन्ध्याचल विदीर्ण हमा है। १५ अनेक नदिई इसको वयें है। बांस और हाथियों के सन् १०२५ मे प्राचार्य वादिगज द्वारा रचित पावं. मस्तको से निकले मोती इसमें बिखरते है। अनेक रगों को चरित में कथन है कि सूर्य के समान अन्धकार के विस्तार ध तय यहा मिलती हैं। जब दावानल भडकता है तो इसके को दूर करने वाला प्रभु का उपदेश शिस चित्त में स्थान शिखर मानो सुवर्णवेष्टित दिखते है। इसमें बड़े-बड़े हाथी नही पाता वह बन्ध और मोह से युक्त चित्त विन्ध्य पर्वत
और भुजंग रहते है। किरात लोग उपहार के रूप मे की गुहा के समान ही कानेपन को नहीं छोडता। गजदन राजा को अर्पित करते है। इसके बीचोबीच नर्मदा सन् १०७७ मे प्राचार्य पद्मकीर्ति द्वारा रचित पासनदी भमिरूपी महिला की वेणी के समान दिखती है। णाहचारिउ में पार्श्वनाथ पौर यननराज के युद्ध के वर्णन
नौवी शताब्दी मे ही प्राचार्य शीलांक द्वारा रचित मे दो योद्धानों के द्वन्द्व का वर्णन इन शब्दो में है.-वे च उपन्न महापूरिसचरिय में मेघकुमार के पूर्व भव वर्णन में प्रभिमानी महारथ ऐसे भिडे जमे प्रसुरेन्द्र और सरेन्द्र हों बताया गया है कि विकट शिखरो से भरे, ऊचे वृक्षों से या उत्तर और दक्षिण दिशामो के गजेन्द्र हों या सह्य पीर व्याप्त, हजारो श्वापदो से परिपूर्ण विन्ध्य अरण्य मे वह विन्ध्य पर्वतराज भिड़े हों।" पांच सौ हाथियो के झंड का स्वामी था।"
सन् १३४८ में राजशेखर सूरि द्वारा रचित प्रबन्धकछ सन्वों में विध्य का नाममात्र उल्लिखित है- कोष में बप्पभट्रि मूरि प्रबन्ध में कथन है कि जब बप्पट्टि वर्णन नही है । सन् ७८३ मे पुन्नाटसघीय प्राचार्य जिन. राजा प्राम के राज्य को छोड़कर धर्मपाल के राज्य में चले सेन द्वारा रचित हरिबंशपुगण मे कथन है कि विन्ध्यक्षेत्र गये तो दुखी होकर माम राजा ने उनके पास यह सन्देश मे राजा अभिचन्द्र ने चेदिराष्ट्र मे शुक्तिमती नगर को भेजा-विन्ध्य पर्वत के बिना भी राजामो के महलो मे बड़े स्थापना की।" बृहत्कथाकोष (जिसका एक सन्दर्भ ऊपर हाथी होते है और बहुत से हाथी चले गये तो भी विन्ध्यमा चुका है) की कथा ११८ मे कथन है कि श्री कृष्ण पर्वत वन्ध्य नही होता। तात्पर्य यह है कि राजा और को मत्यु का कारण मैं बनगा यह सुनकर जरत कुमार ने विद्वान एक दूसरे के बिना नही रह सकते ऐसा नहीं है । द्वारावती छोड़कर विन्ध्यपर्वत क्षेत्र में विध्यपुर में रहना परन्तु जैसे सरोवर राजहंस की पोर गजहंस सरोवर की शुरू किया। प्राचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण में राजा शोभा बढाने में सहयोगी है उसी प्रकार राजा विद्वान् की श्रेणिक के पूर्व भव वर्णन मे बताया है कि वह विन्ध्यक्षेत्र और विद्वान राजा की प्रतिष्ठा बढ़ाने में सहयोगी होते मे एक वनचर था।"
सन्दर्भ१. निर्वाण भक्ति श्लोक २६ द्रोणीमति प्रबलकुण्डलमेढ़के दिग्वाससा शासनम् ।।
च भारपर्वततले वरसिद्धकूटे । ऋष्यद्रिके च विपु. ३. पद्मचरित सर्ग ८० श्लोक १३६ विन्ध्यारण्य महास्थ. लाद्रिबलाहके च विन्ध्ये च पोदनपुरे वृषदीपके च ।। ल्यां सामिन्द्रजिता यतः । मेवनाद: स्थितस्तेन तीर्थ २. शासन चतुस्त्रिशिका श्लोक ३२ यस्मिन् भूरि विधातु- मेघरव स्मृतम् ॥ रेकमनसो भक्ति नरस्याधुना तत्काल जगतां त्रयेऽपि ४. निर्वाण काण्ड गाथा १२ वडवाणीवरणयरे दक्षिणविदिता जनेन्द्रबिम्बालया: । प्रत्यक्षा इव भान्ति निर्मल- भायम्मि चूलगिरिसिहरे । इंदजियकुंभयण्णा णिवाणदशो देवेश्वराभ्यचिता: विन्ध्ये मरुहि भासुरेऽतिमहिते गया णमो तेसि ॥ (शेष पृष्ठ १४ पर)