Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 47
________________ पर्युषण प्रौर दशलक्षण धर्म रहे। यह समावेश और जैनियो के विभिन्न पदों की स्पष्ट होता है कि पंचमीए' का अर्थ 'पंचमी से' होना पूर्व तिथियों मे एक रूपता भी, तभी सभव हो सकती है चाहिए। इस अर्थ की स्वीकृति से प्रष्टमी के प्रोषध के जब पर्व भाद्रपद शुक्ला पचमी से ही प्रारम्भ माने जाय। नियम की पूति भी हो जाती है। क्योकि पर्व में अष्टमी कल्पसूत्र के पर्युषण समाचारी मे लिखा है-'समण के दिन का समावेश इसी रीति में शक्य है । 'अनन्तर' से भगव महावीरे वासाणं सवोस इराए मासे व इकते वासा- तो सन्देह को स्थान ही नही रह जाता कि पचमी से वासं पज्जोसे वइ ।' इस 'पज्जोसेवई' पद का अर्थ अभि- पर्यषण शुरू होता है और पर्यषण के जघन्यकाल ७० दिन धान राजेन्द्र प० २३६ भा० ५ मे 'पर्युषणामाकार्षीत्' की पूर्ति भी इसी भांति होती है। किया है । अर्थात् 'पर्यषग' करते थे। और दूसरी पोर दिगम्बर जैनो मे कार्तिक फाल्गुन और प्राषाढ़ मे कल्पसूत्र नवम क्षण में श्री विजयगणि ने इस पद की टीका अन्त के प्राठ दिनों में (प्रष्ट मो से पूणिमा) अष्टाह्निका करते हुए इसकी पुष्टि को है (देखे पृष्ठ २६८)- पर्व माने है ऐसी मान्यता है कि देवगण नन्दोश्वर द्वीप में 'तेनार्थेन तेन वारणेन है शिष्या: ? एवमुच्यते, वर्षाणा इन दिनों प्रकृत्रिम जिन मन्दिरो विम्बों के दर्शन-पूजन विशति रात्रियुक्त मासे प्रतिप्रान्ते पर्युषणमकार्षीत् ।' को जाते है। देवों के नन्दीश्वर द्वार जाने को मान्यता दूसरी पोर पर्यपणा कल्प चणि मे 'अन्नया पज्जोसवणा- श्वेताम्बरो मे भी है । वेताम्बरो की अष्टातिका की पर्व दिवसे प्राग अउन कालगण सालिवाहण भणि मो भद्द- तिथियां चैत्र सुदी ८ से १५ तक तथा प्रासोज सुदी ८ बजुण्हप वमोर पनोसवां' -(पज्जोस विजन इ) उल्लेख १५ तक है। तीसरी तिथि जो (संभवतः) भाद्र वदी १३ -अभि० पृ० २३८ से सुदो ५ तक प्रचलित है, होगी। यह तीसरी तिथि उक्त उद्धरणो मे स्पष्ट है कि भ. महावीर पर्व पग सुदी ८ में प्रारम्भ क्यो नही ? यह विचारणीय ही हैकरते थे और वह दिन भाद्रपद शुकमा वनी था। इन जब कि दो बार की तिथिया अष्टमी से शुरू है। प्रकार पचमी का दिन निश्चित होने पर भी 'पंव नीर' हो सकता है-तीर्थंकर महावीर के द्वारा वर्षा ऋतु पद की विभकिस ने सन्देह की गजाइश रह जाती है कि के ५० दिन बाद पर्यषण मनाने से ही यह तिथि परिवर्तन पर्यषणा पंचमी में होनी थी. अथवा पंचमी से होती थी। हुप्रा हो। पर यदि ५० दिन के भीतर किसी भी दिन क्योकि व्याकरण शास्त्र के अनुसार 'पनमीए' रूप तीसरी शुरू करने की बात है तब इस प्रण्टाह्निका को पंचमी के पंचमी और मातवी तीनो हो विभक्ति का हो मकना है। पूर्व से शुरू न कर पचमी से ही शुरू करना युक्ति सगत यदि ऐसा माना जाय कि केवन पंचमो मे ही पर्युषण है। ऐसा करने से 'सबीसराए मासे व इक्कते (बोतने पर) है तो पर्यषण को ७-८ या कम-अधिक दिन मनान का की बात भी रह जाती है और 'मतरिराइदिया जहणणं' कोई प्रथं ही नही रह जाता, और ना ही अष्टमी के की बात भी रह जाती है। साथ ही पर्व की तिथियां प्रोषध की अनिवार्यता सिद्ध होती है जबकि अष्टमी को (पचमी, अष्टमी, चतुर्दशी) भी अष्टाह्निका में समाविष्ट नियम से प्रपर होना चाहिए । हां, पंचमी से पर्युषण हो रह जाती है जो कि प्रोषध के लिए अनिवार्य है। तो प्रागे के दिगो में प्राठ या दस दिनों को गणना को एक बात और स्मरण रखनी चाहिए कि जनो में पूरा किया जा सकता है और प्रष्टमी को प्रोषध भी, पर्व सम्बन्धी तिथि काल का निश्चय सूर्योदय काल से ही किया जा सकता है। स भवतः इसोलिए कोपकार ने करना पागम सम्मत है। जो लोग इसके विपरीत अन्य 'भाद्रपद शुक्ल पनम्या अनतर' पृ० २५३ और 'भाद्रपद कोई प्रक्रिया अपनाते हो उन्हे भी पागम के वाक्यों पर शुक्ल पंचम्या कातिक पूणिमा यावदित्यर्थः'-पृ० २५४ ध्यान देना चाहिएमें लिख दिया है। यहाँ पचमी विभक्ति की स्वीकृति में (शेष पृष्ठ १० पर) १. मुनियो का वर्षावास चतुर्मास लगन स लकर ५० दिन बीतने तक कभी भी प्रारम्भ हो सकता है अर्थात् पाषाढ़ शुक्ला १४ से लेकर भाद्रपद शुक्ल ५ तक किसी भी दिन शुरू हो सकता है।'-जैन-प्राचार (मेहता) पृ० १८७

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