Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 46
________________ ८ वर्ष ३३, किरण २-३ अनेकान्त विवरण-'उत्कर्षतः पर्यषणाकल्पश्चतुर्मासं यावद्- --वर्ष के चतुर्मास के सर्व पों में और जीवन में भी भवति, प्राषाढ़ पूणिमाया: कार्तिकणिमा यावदित्यर्थः। यथा शक्ति स्व-स्त्र धार्मिक कृत्य करने चाहिए। (यह जघन्यत: पुन: सप्ततिरात्रिदिनानि, भाद्रपदशुक्लपवम्याः विशेषतः गृहस्थ धर्म है)। इसी श्लोक की व्याख्या में कातिकपूर्णिमां यावदित्यर्थः-शिवादो कारण समत्पन्ने पर्वो के सबंध में कहा गया है किएकतरस्मिन् मासकल्पे पर्युषणाकल्पे वा व्यत्यासितं विपर्य- "तत्र पर्वाणि चंवमुचःस्तमपि कुयुः। 'प्रदम्मि च उद्दसि पुणिमा य तहा मावसा हवद पव्वं -अभि० रा. भाग०.५ १.० २५४ मासंमि पव्व छक्कं, तिन्नि अपवाई पक्खंमि ॥' पर्युषण कल्प के समय को उत्कृष्ट मर्यादा चतुर्मास 'चाउद्दसमुद्दट्ठ पुण्णमासी ति सूत्रपामाण्यात्, १२० दिन रात्रि) है । जघन्य मर्यादा भाद्रपदशुक्ला पंचमी महानिशीथेतु ज्ञान पंचम्यपि पर्वत्वेन विश्रुता । 'प्रटमी से प्रारम्भ कर कार्तिक पूणिमा तक (सत्तर दिन) की च उद्दमीसं नाण पंचमीसु उववासं न करेइ पचि उत्तमित्याहै। कारण विशेष होने पर विपर्यास भी हो सकता है दिवचनात् ।-एष पर्वसु कृत्यानि यथा-पौषधकरणं प्रति ऐसा उक्त कथन का भाव है। पर्व तत्करणाशक्ती तु अष्टम्यादिषु नियमेन । यदागमः, इस प्रकार जनों के सभी सम्प्रदायों में पर्व के विषय 'सव्वेसु कालपव्वे पु, पसत्यो जिणमए हवइ जोगो। में अर्थ भेद नहीं है और ना ही समय की उत्कृष्ट मर्यादा प्रदमि च उद्दसीसु प्र नियमेण हवइ पोसहियो ।' मे ही भेद है । यदि भेद है तो इतना ही है कि '(१) --धर्म स० (व्याख्या) ६६ दिगम्बर श्रावक इस पर्व को धर्मपरक १० भेदों (उत्तम --पर्व इस प्रकार कहे गये है- अष्टमी, चतुर्दशी, क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत् संयम-तपस्त्याग, त्याग किचन्य पूणिमा तथा अमावस्या, ये मास के ६ पर्व है और पक्ष के ब्रह्मचर्याणि धर्म ) को अपेक्षा मनाते है और प्रत्येक दिन ३ पर्व है । इसमे 'च उद्दसट्टमट्टिपुणिमासु' यह सूत्र प्रमाण एक धर्म का व्याख्यान करते है। जबकि श्वेताम्बर सम्प्र है । महानिर्शाथ मे ज्ञान पचमी को भी पर्व प्रसिद्ध किया दाय के श्रावक इसे आठ दिन मनाते है । वहां इन दिनों है। अष्टमी, चतुर्दशी और ज्ञान पंचमी को उपवास न मे कही कल्पसूत्र की वाचना होती है और कही अन्तः कृत करने पर प्रायश्चित का विधान है। इन पदों के कृत्यों सूत्रकृतांग की वाचना होती है। और पर्व को दिन की मे प्रोषध करना चाहिए । यदि प्रति पर्व मे उपवास की गणना पाठ होने से 'अष्ट'- प्रान्हिक (अष्टान्हिक-अठाई) शक्ति न हो तो अष्टमी, चतुर्दशी को नियम से करना कहते है । साधुनों का पयूषण तो चार मास हो है। चाहिए। प्रागम मे भी कहा है-'जिनमत मे सर्व निश्चित दिगम्बरो मे उक्त पर्व भाद्रपद शुक्ला पचमो से पों में योग को प्रशस्त कहा है और अष्टमी, चतुर्दशी के प्रारम्भ होता है और श्वेताम्बरो में पंचमी को पूर्ण होता प्रोषध को नियमत: करना बतलाया है। है । दोनो सम्प्रदायो मे दिनो का इतना अन्तर क्यो ? ये उक्त प्रसंग के अनुसार जब हम दिगम्बरो में देखते शोध का विषय है। और यह प्रश्न कई बार उठा भी है। समझ वाले लोगों ने पारस्परिक सौहार्द वृद्धि हेतु ऐसे है तब ज्ञान होता है कि उनके पर्व पचमी से प्रारम्भ होकर प्रयत्न भी किए है कि पर्युषण मनाने की तिथियां दोनो मे (रत्नत्रय सहित) मासान्त तक चलते है, और उनमे एक ही हों। पर, वे असफल रहे है । प्रागमविहित उक्त सवं (पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी और पयंषण के प्रसग मे और सामान्यतः भी, जब हम तप पूर्णिमा) पर्व प्रा जाते है ।, जब कि श्वेताम्बरों में प्रच. प्रोषष प्रादि के लिए विशिष्ट रूप से निश्चित तिथियो लित पर्व दिनों में प्रष्ट मो का दिन छट जाता है-उसकी निमिलता है कि पूर्ति होनी चाहिए। बिना पूर्ति हुए पागम की प्राज्ञा "एव पर्वसु सर्वेसु चतुर्मास्या च हायने । निय मेण हवा पोसहियो' का उल्लंघन ही होता है। वैसे जन्मन्यपि यथाशक्ति स्व-स्व सत्कर्मणा कृति ॥" भी इसमे किसी को आपत्ति नही होनी चाहिए कि षषण -धर्म सं०६६ पु०२३८ काल में अधिक से अधिक प्रोषष की तिथियों का समावेश

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