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६, वर्ष ३३, कि० २.३
अनेकान्त
श्वेताम्बर-१. संस्कृत, अचलगच्छी जयशे वर सूरि, ४. संस्कृत, सोमदेव सूरि, १५१६ ६० । रचनाकाल 'हयेषुलोक संख्येन्दे' शब्दों मे सूचित है जिसका प्रथं स. १४५७ किया गया है, लिपि स० १५६५ की
इस प्रकार कुन १८ रचनायें हमें ज्ञात हो सकी हैं, है। यदि रचनाकाल का उपरोक्त प्रर्थ ठीक है तो यह
जिनमें से ८ सस्कृत १ कन्नड़, १ प्रप्रभ्रंश भोर ६ हिन्दी रचना १४००ई० की है।
में रचित है। इनमे से १२ दिगम्बर विद्वानों द्वारा तया
४ श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा रचित है। चारों जात श्वे. २. सस्कृत, जयचन्द्र मूरि के शिध, रवन काल सं०
रचनायें संस्कृत में है। संभव है अन्य भी कई रचनायें हों १४६२.१४०५ ई०, प्रतिलिपि सवत नहीं है, किन्तु अन्त
___ जो हमारी जानकारी में प्रभो नहीं आई है। इस सबसे में लिखा है-इति धर्म को मुनि विरचिता सम्यक्त्व.
जिनदेव (नागदेव) की सम्यक्त्वकौमुदीकथा की लोककोमदी कथा सम्पूर्ण ।" उल्लख से सदेह होता है कि
प्रियता एवं महत्व स्पष्ट हैं। उनके विशद समीक्षात्मक मद्रण प्रादि मे नामो की गड़बड़ तो नहीं हुई है ? यदि
एवं तुलनात्मक अध्ययन की प्रावश्यकता है जिससे उस पर उल्लिखित जयचन्द्र सूरि वही है जो सोमसुन्दर के शिष्य
पूर्ववर्ती साहित्यकारों का प्रभाव तथा स्वयं उसका अपने थे और जिन्होने १४४६ ई० मे अपना प्रत्यख्यान विरमण
परवर्ती साहित्यकारों पर प्रभाव प्रकाश मे पा सके। रचा था तो उनके शिष्य द्वारा उपरोक्त पथ का रचना.
उपरोक्त श्वे० रचनामों को हमने देखा नही है अतएव काल १४०५ ई० नही हो सकता।
यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होने जिनदेव की ३. संस्कृत, गुणाकर सूरि, रचनाकाल १४०७ ई०।२ रचना से ही प्रेरणा ली है अथवा उसे हो अपना आधार प्रतिलिपि १४६० ई० की है। प्रामेर भंडार मे भी इस बनाया या कि उनका प्राधार एवं प्रेरणास्रोत उससे सर्वथा ग्रंथ की प्रतियां हैं।
स्वतन्त्र या भिन्न है।
सन्दर्भ१.देखिए ज्योतिप्रसाद जैन, प्रकाशित जैन साहित्य (जन स० की १५वी शती के बजाय १४वी शती लिख गए
मित्र मण्डल दिल्ली १९५८), पृ० २३६ । २. भामेर शास्त्र भंडार जयपुर को ग्रन्थ सूची (जयपुर
८. वही, पृ० ५७। १६४८ ई०), पृ. १३२-१३३ ।
६. वही, पाद्य प्रशस्ति, पृ० १.२; तथा डा० हीरालाल ३. डा० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, प्रशस्ति सग्रह (जयपुर
जैन, मयणपराजयचरिउ, भारतीय ज्ञानपीठ १९६२, १६५.), प० ६३-६४ ।
प्रस्तावना प० ६०-६२, जबकि राजकुमार जी ने -स० १५८० को प्रति भी एक श्वेताम्बर मुनि के ।
'रामकुल' पाठ दिया है, डा० हीरालालजी ने 'सोम. लिए लिखी गई है।
कूल' पाठ दिया है, उसका प्रोचित्य भो सिद्ध किया
है-वही ठोक प्रतीत होता है। ४. राजस्थान के जैन शास्त्र भडारों को अन्य सूची,
१०. देखिए, मुनि पुण्यविजय जी के संग्रह की ग्रन्थ सूची द्वितीय भाग, १० २४१-२४२ ।
(प्रहमदाबाद १६६३),भाग १,१० १३१, न० २५५७ ५. मदनपराजय, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली द्वि० स०
१० ११. वही, पृ० १३१-१३२, न० २५५६ । १९६४, प्रस्तावना पृ० १७-१८. ४२, ५७-५८1 १ २. वही, पृ० १३१, न० २५५४; तथा भाग २, पृ. ६. वही, पृ०१८, तथा बेबर-ए हिस्टरी माफ इण्डियन २२३-२२४, न० ३८३३ । कल्चर, भा॰ २, पृ० ५५१ फुटनोट ।
-ज्योति निकुंज ७. वही, पृ० ५८, किन्तु ऐसा लगता है कि भूल से वि०
चारबाग, लखनऊ-१