Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 42
________________ ४, ३४,किरण २-३ कहा, 'राजन, ये सब तो जैनकुल में उत्पन्न हुए हैं, जिन- गच्छी गुणलाभ महोपाध्याय ने अपने पढ़ने के लिए मार्ग को छोडकर अन्य कोई मार्ग इन्होने जाना ही नहीं लिखाया था।' स्वयं जयपुर के शास्त्र भंडारों मे १४ है । मैं तो न स्वयं जैन हैं और न जैनकुल में उत्पन्न हुई प्रतियां है जिनमे से एक तो (न. १३२०) गोपाचलदगं हं । तो भी जिनधर्म के व्रतों का प्रभाव सुनकर हृदय मे अर्थात् ग्वालियर में राजा वीरमदेव तोमर के शासनकाल भारी वैराग्य उत्पन्न हो गया है और मैंने दृढ निश्चय कर में मुनि धर्मचन्द्र के पठनार्थ वि० स० १४६० (सन् १४०३ लिया है कि मैं प्राज सवेरे ही जिनदीक्षा अवश्य ग्रहण कर ई.) की लिग्वित है। अन्यत्र भंडारों में भी इस ग्रंथ की लूंगी। मुझे तो यही माश्चर्य है कि इन सबने जिनधर्म के प्रतियां पाए जाने की पूरी सम्भावना है । उपरोक्त समस्त व्रतों का माहात्म्य स्वयं देखा है और सना है, फिर भी ये प्रतियों के सम्बन्ध मे ग्रंथ की भाषा संस्कृत सूचित की सब मूर्ख ही रहे। उपवासादि द्वारा शरीर को कृष तो है, प्राकार-प्रकार प्रायः सबका समान है, योर रचयिता करते हैं किन्तु संसार के विषय-भोगों के प्रति अपनी लम्प- प्रज्ञात सूचित किया गया है। इन्ही सूचियो में सम्यक्त्वटता तनिक भी नहीं छोड़ते। मेरा तो सिद्धान्त है कि कौमदी नाम की अन्य रचनायो की प्रतियों का भी उल्लेख मनुष्य को गुणों को सम्पादन करने में सदैव प्रयत्नशील है जिनमे उनके रचयितामों का नाम भी मूचित है, तथा रहना चाहिए। मिथ्या प्राडम्बर पोर दिखावे से क्या जो संस्कृत हिन्दी या हिन्दी पद्य प्रादि मे रचित हैं। प्रत. होना-जाना है। जो गाय दूध नही देती वह क्या गले मे एव इसमें संदेह नहीं है कि जिस अज्ञात वर्तक संस्कृत घंटा बांध देने से बिक जाएगी ?' सम्यक्त्व कोमदी की प्रतियो का उल्लेख किया गया है वे कुन्दलता के इस प्रोजस्वी उद्बोधन को सुनकर सब उसी ग्रंथ की है जिसका वर्णन लेख के प्रारम्भ मे सबकी आंखें खुल गयीं, सभी ने उसकी स्तुति-प्रशंसा- किया गया है और जो १६१५ ई० में बबई से प्रकाशित बन्दना की, इतना ही नहीं, सेठ, राजा, मत्री और चोर हुया था। डा. राजकुमार माहित्याचार्य ने जिस सम्यक्त्वने तथा अन्य अनेक उपस्थित व्यक्तियो ने अपने अपने कौमुदी की मदन पराजय नामक सस्कृत रूपक से तुलना पुत्रादि को गृहस्थ का भार सौपकर कुन्दलता के साथ की है, वह भी वही प्रज्ञात कतंक रचना है, इसमे कोई जिन दिक्षा ले ली। उसकी सपत्नियां, रानी, मत्री की पत्नी संदेह नहीं है ।' उनके कथनानुसार प्रो० एल्ब्रेस्ट बेबर ने पादि अनेक नारियां प्रायिका बन गई। प्रतेक स्त्री-पुरुषों इसी सम्यक्त्वकौमुदो को सन् १४३३ ई० की एक प्रति ने श्रावकों के व्रत ग्रहण किए, अन्य कितने ही कम से कम का उल्लेख किया है। इतना ही नही, उन्होंने तो मदनभद्रपरिणामी ही बने । प्रस्तु, इस सम्यक्त्वकौमुदी कथा पराजय का रचनाकाल भी सम्यक्त्वकौमुदी की बेबर वाली का सार तत्व यही है कि धर्म व्रतानुष्ठानादि क्रियाकांडों प्रति के माघार से ही निश्चित किया है। में निहित नही है, वरन् स्वयं अपने जीवन में उतारने की 'जैन ग्रन्थकर्ता और उनके अन्य' नाम से हमारे द्वारा वस्तु है, धर्म करना नही, होना है। संकलित पुरानी हस्तलिखित सूची के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थका-इस सम्यक्त्वकौमुदी या सम्यक्त्वकौमदी. सम्यक्त्वकौमुदी के कर्ता जिनदेव नामक दिगम्बर विद्वान कथा की अनेक प्रतियां उत्तर भारत के जैन शास्त्र भडारों हैं जो १४वी शती ई० मे हुए है। और जिनकी मयणमें सुरक्षित हैं । केवल राजस्थान के प्रामेर भंडार मे १३ पराजय (मदन पराजय) तथा उपासकाध्ययन नामक दो प्रतियां हैं, जिनमें से ५ सम्यक्त्व कोमदी नाम से और अन्य संस्कृत कृतियाँ ज्ञात हैं । डा० राजकुमार जी द्वारा सम्यक्त्वकौमुदीकथा नाम से दर्ज है, और वि० स०११७६ सपादित मदन पराजय की पूर्वोक्त प्रस्तावना से, जो पुस्तक से १८३८ के मध्य को लिखी हुई है। इसी भंडार के के प्रथम सस्करण के समय १९४८ ई० में लिखी गई थीं, प्रशस्ति संग्रह में तीन अन्य प्रतियों का उल्लेख प्रतीत अब इस विषय में कोई संदेह नही है कि उक्त मदन पराहोता है जिनमें से एक वि० स०१५६. की, दूसरी १५८२ जय के कर्ता जिनदेव अपरनाम नागदेव हो, जो वैद्यराज की पौर तीसरी १६२५ की है जिसे कुंभलमेरु में खरतर. मल्लुगी के पुत्र थे तथा किन्हीं ठवकर माइन्द द्वारा स्तुत

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