Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ सम्यक्त्व कोमुखी नामक रचनाएं एवं प्रशंसित थे, प्रस्तुत सम्यक्त्वकौमुदी के कर्ता है। ई. के लगभग की प्रतीत होती है। लगता है कि मदनसम्यक्त्व कौमुदी में लेखक ने अपना कोई परिचय नही पराजय शायद प्रारम्भ की रचना है और सम्यक वकौमुदी दिया सिवाय इसके लिए प्रथम मंगल श्लोक की प्रथम लेखक के अन्तिम वर्षों की है । उपासकाध्ययन नाम की पंक्ति 'श्री वर्द्धमानमानम्य जिनदेव जगत्प्रभम्' में प्रयुक्त श्रावकाचार विषयक कृति यदि है तो शायद किसी भंडार "जिनदेव' शब्द से उनके नाम का भी सूचन हो। में दबी पड़ी हो, उस में भी नीति-सूक्तों के उद्धरणों का किन्तु मदनपराजय मे उन्होने अपना जो वश परिचय बाहुल्य होगा। जिनदेव को सम्यक्त्वकोमदो दिगम्बर दिया है, उससे विदित होता है कि वह सोमवश मे उत्पन्न परम्परा में तो स्वभावत: प्रचलित रही है, किन्तु श्वेताम्बर हुए थे । उनके पूर्वज चङ्गदेव एक यशस्वी दानी थे, जिनके परम्परा मे भी लोकप्रिय रही प्रतीत होती है, जैसा कि पांच पुत्र थे-इनमे से तीसरे पुत्र कविवर हरिदेव थे जो उसकी सं० १५६० व स. १६२५ की पूर्वोक्त प्रतियों से अपभ्रश मयणपराजय चरिउ के रचयिता थे । हरिदेव के प्रगट है। उसकी लोकप्रियता का एक साक्ष्य यह भी है पुत्र वैद्यराज नागदेव थे, जिनके दोनो पुत्र हेम और राम कि इस नाम की अनेक रचनायें परवर्तीकाल मे विभिन्न भी प्रसिद्ध वैद्य थे । राम के पुत्र दानी प्रियंकर थे, जिनके भाषामो मे लिपी गई जिनमे से कई श्वेताम्बर विद्वानों वंद्य राज मल्लुगि थे। इन मल्लुगि के पुत्र संस्कृत मदन- द्वारा भी रचित है । पराजय के कर्ता नागदेव थे। वहत सभव है कि अपने एक निकट पूर्वज का नाम भी नागदेव रहा होने से ग्रन्थकार अन्यकतक सम्यक्त्वकौमुदी कथाएं ने अपना प्रपर नाम या उपनाग 'जिनदेव' अपना लिया दिगम्बर :-संस्कृत, मुनिधर्मकीर्तीकृत, प्राप्त लिपि हो-मदनपराजय की प्राद्य प्रशस्ति में तो नागदेव नाम १५४६ ई० को है। संभवतया यह वही मुनि धर्मकीर्ति है किन्तु पांचो परिच्छेदो के पुष्पिका वाक्यो मे जिनदेव (१४४२.६६ ई०) है जो सागवाड़ा बड़साजनपट्ट के नाम दिया है । प्राप्त सूचनामो से विदित है कि कवि एक सकल काति के शिष्य तथा विमलेन्द्रकीति के गुरु थे और सदगहस्थ था और एक सम्पन्न बार्मिक वैद्य व्यवसायी तत्वरत्नप्रदीप नामक ग्रंथ के रचयिता थे। एव विद्या रसिक वश मे उत्पन्न हुअा था, जो मूलतः सोम २. सस्कृत, मंगरस या मंगिरस, प्रसिद्ध कन्नड़ साहित्य(चन्द्र) वंशी राजपूतों का था। लेखक के स्थान की कोई कार.सं. को० की रचना तिथि एक १४३०-१५०८ई. सूचना नहीं है किन्तु लगता है कि वह उत्तर भारतीय था ३. संस्कृत, खेता पडित, लगभग १७०० ई० और मध्य भारत विशेषकर ग्वालियर के प्रासपास के ४. कन्नड़, पायण्ण वर्णी, १६०० ई० किसी स्थान का निवासी था। सम्यक्त्वकौमदी की प्राचीन ५. प्रमभ्रश, महाक वि रइधू (१४२३-५८ ई.) तम उपलब्ध प्रति (१४०३ ई० को ग्वालियर मे ही लिखी गई थी और कुछ ही दशक पश्चात ग्वालियर ही अप ६. हिन्द -गुज • रत्नमति प्रायिका (ल, १५५० ई.) भ्रश भाषा के महाकवि रईघ ने उसका अपभ्रश भाषा मे जो सूरत के भट्टारक ज्ञान भूषण की शिष्या यो। रचना रूपान्तर किया था। यत: सम्यक्त्वमुदी मे उद्धत वा नाम 'समवितरसस' (८ कथाये) दिया है। सूक्तियां प्रादि जिन लेखको की है, उनमे प० प्राशाधर ७. हिन्दीपद्य, कवि कासिदास एव जगतराय, १६६५ ई० (ल. १२००.५० ई०) प्राय: सबसे पीछे के है और यदि अलग-अलग थी उल्लेख है, किन्तु संभवतया संयुक्त जिस सूक्तिमुक्तावली के भी उद्धरण है वह श्रुतमुनि रचना है। (ल० १३०० ई०) कृत ही हों तो सम्यक्त्वकौमुदी के ८. हिन्दी पद्य, जोधराज गोदीका, १६६७ रचनाकाल की पूर्वावषि १३०० ई० और उत्तरावधि ६. हिन्दी पद्य, कवि विनोदीलाल, १६६२ ई. १४००ई० निश्चित होती है । अतएव जिनदेव अपर नाम १०. हिन्दी पथ, लालचन्द्र सांगानेरो, १७६१-८५ ई० नागदेव ने इस संस्कृत सम्यक्त्वकौमुदी की रचना १३५० ११.हिन्दी, लालचन्द्र विनोदीलाल, १८२२ ई०

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126