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पर्युषण और दशलक्षण धर्म
जिनों के सभी सम्प्रदायों में पर्युषण पर्व की विशेष महत्ता है। इस पर्व को सभी अपने-अपने ढंग से सोत्साह मनाते हैं। व्यवहारतः दिगम्बर धावकों में यह दश दिन श्रीर श्वेताम्बरों में म्राठ दिन मनाया जाता है। क्षमा आदि दश मंत्रों में धर्म का वर्णन करने से दिगम्बर इसे 'दशलक्षण धर्म' घोर श्वेताम्बर आठ दिन का मनाने से अष्टाहिका (मठाई) कहते हैं ।
"परीति सर्वत क्रोधादिभावेश्य उपशम्यते यस्यां वा पर्युपशमना" अथवा "परि: सर्वथा एवक्षेत्रे जघन्यतः सप्त दिनानि उत्कृष्टतः षण्मासान् ( ? ) वसनं निरुक्तादेव पर्युषणा" अथवा परिसामस्त्येन उपणा । "प्रमि० रा० भा० ५ पृ० २३५-२३६ ।
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो परम्परायें ऐसा मानती पर्युषण के अर्थ का विशेष खुलासा करते हुए अभि है कि उत्कृष्ट पर्यूषण चार मास का होता है। इसी हेतु धान राजेन्द्र कोष में कहा हैइसे चतुर्मास नाम से कहा जाता है। दोनो ही सम्प्रदाय के साधु चार मास एक स्थान पर ही वास करते हुए तपस्वाओं को करते है यतः उन दिनों (वर्षा ऋतु में जीवोत्पत्ति विशेष होती है । और हिंसादि दोष होने की अधिक सम्भावना रहती है और साधु को हिसादि पाप सर्वथा वज्यं है । उसे महात्रतो कहा गया है ।
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जिसमें कोचादि भावों को सर्वतः उपशमन किया जाता है अथवा जिसमें जघन्य रूप से ७० दिन और उत्कृष्ट रूप से छह मास (?) एक क्षेत्र मे किया जाता है, उसे पण कहा जाता है। प्रथवा पूर्ण रूप से वास करने का नाम पयूषण है।
"वसवणा कप्पा वर्णन दोनों सम्प्रदायों मे है। दिगम्बरों के भगवती मारापना (मूताराधना) में लिखा है:
पज्योषण, परिवसणा, पजुसणा, वासावासो य (नि० चू० १०) ये सवशब्द एकार्थवाची हैं ।
पर्युषण (पर्युपशमन) के व्यत्तिपरक दो एवं निक लते है - (१) जिसमे क्रोधादि भावो का सर्वतः उपशमन किया जाय अथवा (२) जिसमे जघन्य रूप मे ७० दिन "प्रौर उत्कृष्ट रूप में चार मास पर्यन्त एक स्थान मे वास किया जाय। ( ऊपर के उद्धरण में जो छह मास का उल्लेख है वह विचारणीय है ।)
श्री पद्मचन्द्र शास्त्री
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चाहिए । यदि कोई श्रावक चार मास को लम्बी अवधि तक एकत्र वास कर धर्म साधन करना चाहे तो उसके लिए भी रोक नहीं पर उसे चतुर्मास अनिवार्य नहीं है | अनिवार्यतः का प्रभाव होने के कारण ही श्रावकों में दिगम्बर दम सौर श्वेताम्बर आठ दिन की मर्यादित अवधि तक इसे मानते है और ऐसी ही परम्परा है।
प्रथम अर्थ का सबध प्रभेदरूप से मुनि, श्रावक सभी पर लागू होता है । कोई भी कभी भी कोवादि के उपशमन (पर्युषण) को कर सकता है। पर, द्वितीय अर्थ मे साधु की अपेक्षा हो मुख्य है, उसे चतुर्मास करना ही
दोसमा नाम दशमः वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एस्त्रावस्थानं भ्रमण त्यागः । एकावस्थानमित्यय मुर्ग: कारणःपेक्षया तु होनाधिक वाऽवस्थानम् । पज्जोसवण नामक दसवा कल्प है । वर्षाकाल के चार मामो मे एकत्र ठहरना अन्यत्र भ्रमण का त्याग करना, एक सौ बीस दिन एक स्थान पर ठहरना उत्सर्ग मार्ग है। कारण विशेष होने पर फोन वा अधिक दिन भी हो सकते है । भगवती श्रारा० ( मूला रा० ) प्राश्वास ४ पृ० ६१६ । श्वेताम्मे 'पपणा करुप' के प्रसंग मे जीतकल्प सूत्र मे लिया है-
'चा उम्मासुक्कोसे, सत्तरि राइदिया जोणं । ठितद्वितमतरे, कारणं वच्चासितऽणयरे ॥
- जीत क० २०६५ पू० १७६