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सम्यक्त्व कौमुदी नामक रचनाएं
D डा. ज्योतिप्रसाद जैन,
जैन परम्परा के मध्यकालीन धर्म कया साहित्य में सम्यक व गुण की प्राप्ति हो अथवा इसे सुनकर भव्यजनों 'सम्यक्त्व कौमुदी' एक पर्याप्त लोकप्रिय रचना रही है। का सम्यक्त्व दृढतर हो, इस उद्देश्य से इस सम्क्त्व कोममी हमारे अपने संग्रह में इम नाम की एक पुस्तक है जो हिन्दी अथवा सम्यक्त्व कौमुदी कथा का प्रणयन किया था । यतः जनसाहित्य प्रसारक कार्यालय बबई द्वरा वी०नि० स० यह सम्यक् वपोषक कथा शारदीय कौमुदी महोत्सव वाली २४४१ अर्थात् २० अगस्त १९१५ ई० मे प्रकाशित हुई रात्रि मे घटित घटनापो का वर्णन करती है, इसलिए भी थी, पुस्तक के मम्पादक थे ५० उदयलाल काशलीवाल और इसका सम्यक्त्व कोमदी कथा नाम स य क है। रचना में हिन्दी अनुवाद के कर्ता थे पं० तुलसीराम काव्यतीर्थ, जो कही कोई प्राद्य या अन्त्य प्रशस्ति, पुस्तिका अथवा सन्धिसंभवतया वही वाणीभषण प० तुलसीगम थे जो धाद मे वाक्य भी नही है और लेखक अपने नाम, स्थान, समय, दि० जैन हाईस्कूल बडौत मे घर्माध्यापक रहे थे । पुस्तक परम्परा ग्रादि की कही भी कोई सकेत सूचना नही करता मे सम्पादक का कोई वक्तव्य नही है और हानुवादक की है। वह यह भी कोई सकेत नही करना कि यह रचना जो डेढ पृष्ठीय प्रस्तावना है उसमे भी ग्रथ प्रतियों, कर्ता किसी पूर्ववर्ती रचना पर आधारित या उससे प्ररित है। के नाम-स्थान-समयादि का कही कोई सकेत नही है। पूरी रचना को पढ़ जाने से यही प्रतीत होता है कि पह पुस्तक के प्रारम्भ के १४८ पृष्ठो मे सरल चालू भाषा मे इस नाम की प्रथम रचना है, और लेखक की मौलिक प्रवाह पूर्ण अनुवाद है। तदनन्तर ११० पृष्ठो मे मूल कृति है। लेखक अध्ययनशील, विचार रसिक, चयनपट, धर्म संस्कृत रचना प्रकाशित है। इसी पुस्तक का पुन: प्रकाशन मर्मज्ञ एव उदाराशय कवि व साहित्यकार है। किसी प० नायगाम प्रेमी ने अपने जैन ग्रथ लाकर कार्यालय प्रकार के साम्प्रदायिक व्यामोह, पक्ष, प्राक्षेर प्रादि से भी बम्बई से मन १६२८ मे किया था।' इम मूल संस्कृत वह दूर है, तथापि पूरी रचना से और विशेषकर मंगला. 'सम्यक्त्व कोम दो' में प्रानमा तीन मगन इलोको को चरण एवं ग्रन्थ को उत्थानिका की पारम्परिक शैली से यह छोड़कर प्रार शेष सम्पूर्ण भाग प्रति मा सुबोध गद्य में सर्वथा स्पष्ट है कि वह दिगम्बर प्राम्नाय का अनुयायी रचित है । विन्तु पग-पग पर उक्तं च, तथाच तथाचोक्तं, था। रथा प्रादि कहकर पूर्ववती जैन,जैन विचित्र साहित्य से सर्वप्रथम लेखक मिनदेव जगत्प्रभु श्री बद्धमान को, प्रसंगोषयुक्त सुभाषित नीतिय नय, सूकि या आदि उद्धृत गौतम गणेश को, सर्वज्ञ के मुख से निकली मा भारती की गई है, जिनकी सख्या लगभग २७० है मोर जो रचना (सरस्वती या जिनवाणी) को प्रोर गुरुपों को, अर्थात् देव. का कुछ कम प्रायः प्राधा भाग घर है। इस प्रकार यह शास्त्र-गुरु को नमस्कार करके मनुष्यों को सम्यक्त्व गुण रचना पंचतंत्र, हितोपदेश आदि को शो की एक उत्तम
लाभ हो इस हेतु से प्रस्तुत कौमुदी का प्रणयन करने की रोचक एव शिक्षाप्रद नीतिकथा बन गई है।
प्रतिज्ञा करता है। तदनन्तर राजगृह नगर के विपुलाचल प्रथम मगल श्लोक के हितीय चरण 'वक्ष्येह कौमुदी पर्वत पर अन्तिम तीर्थंकर भगवान श्री वर्द्धमान स्वामी के नणां सम्यक् गुण हेतवे' और ग्रन्थात में प्रयुक्त वाक्य 'इमा सम सरण के प्रागमन की सूचना बनमाली से प्राप्त कर सम्यक्त्वको मुदीकथा पुण्या भो भव्या: दृढतर सम्यक्त्व महामण्डलेश्वर श्रेणिक परिजन-पुरजन सहित वहां जाता घार्यताम्' से स्पष्ट है कि विद्वान लेखक ने मनुष्यों को है, पूजा-स्तुति मादि करता है और अबसर पाकर गौतम,