Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 39
________________ पोम पहम 3ীকাল परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्षसिन्धरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष ३४ किरण २-३ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण मवत् २५०७, वि० सं० २०३७ अप्रैल-सितम्बर १९८१ अनेकान्त-महिमा अनंत धर्मरणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयीमूतिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥ जेरग विरणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा रण रिणव्वडइ । तस्स भुवनेक्कगुरुणो रगमो अणेगंतवायस्स ॥' परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्ध-सिन्धुरभिधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥' भदंमिच्छादंसरण समूह महियस्स अमयसारस्स। जिरावयणस्स भगवरो संविग्गसुहाहिगमस्स ॥' परमागम का बीज जो, जैनागम का प्राण । 'अनेकान्त' सत्सर्य सो, करो जगत कल्याण ॥ _ 'अनेकान्त' रवि किरण से, तम प्रज्ञान विनाश । मिट मिथ्यात्व-कुरीति सब, हो सद्धर्म-प्रकाश ॥ अनन्त-धर्मा-तत्त्वों अथवा चैतन्य-परम-आत्मा को पृथक-भिन्न-रूप दर्शाने वाली, अनेकान्तमयी मूर्ति-जिनवाणी, नित्य-त्रिकाल ही प्रकाश करती रहे-हमारी अन्तर्योति को जागृत करती रहे। जिसके बिना लोक का व्यवहार सर्वथा हो नहीं बन सकता, उस भुवन के गुरु-असाधारणगुरु, अनेकान्तवाद को नमस्कार हो। जन्मान्ध पुरुषों के हस्तिविधान रूप एकांत को दूर करने बाले, समस्त नयों से प्रकाशित, वस्तुस्वभावों के विरोधो का मन्थन करने वाले उत्कृष्ट जैन सिद्धान्त के जीवनभूत, एक पक्ष रहित अनेकान्तस्याद्वाद को नमस्कार करता हूँ। मिथ्यादर्शन समूह का विनाश करने वाले, अमृतसार रूप; सुखपूर्वक समझ में आने वाले; भगवान जिन के (अनेकान्त गभित) बचन के भद्र (कल्याण) हों। DDO

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