Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ घुमानी मीर नपर्शन २७ प्रोटे गोरस (४२०.४११ ई० पू०) ने इन्द्रियजन्य ज्ञान इन्द्रियजम्य ज्ञान है और यह ज्ञान किसी विशेष ज्ञान के अतिरिक्त अन्य प्रकार के ज्ञान को नहीं माना। पदार्थ का बोध है। जिस घोड़े को मैंने देखा है, उसके न प्रोटेगोरस का यह कथन चार्वाक दर्शन से मिलता-जलता विद्यमान होने पर भी उमका चित्र मेरी मानसिक दृष्टि है; क्योंकि चार्वाक ने भी प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य मे मा जाता है। किसी विशेष घोडे को देखने या उसका किसी प्रकार का प्रमाण नहीं माना । इसके खण्डन स्वरूप मानसिक चित्र बनाने के अतिरिक्त मेरे लिए यह भी जैनदार्शनिकों ने धर्मकीति के उस कथन को प्रायः उद्धृत सम्भव है कि मैं घोड़े का चिन्तन करूं। ऐसे चिन्तन में किया है। जो उन्होंने अनुमान प्रमाण की सिद्धि के प्रसङ्ग मैं किसी विशेष रंग का ध्यान नहीं करता, क्योकि यह में कहा है तदनुसार किसी ज्ञान मे प्रमाणता और किसी रग सभी घोड़ों का रंग नहीं। मैं ऐसे विशेषणों का ज्ञान से अप्रमाणता को व्यवस्था होने से, दूसरे (शिष्यादि) ध्यान करता हूं जो सभी घोड़ों में पाए जाते है और सबके मे बद्धि का प्रवगम करने से और किसी पदार्थ का निषेध सब किसी अन्य पशु जाति में नहीं मिलते। ऐस चिन्तन करने में प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अनुमान प्रमाण का सद्भाब का उद्देश्य घोड़े का प्रत्यय निश्चित करना है। ऐसे प्रत्यय सिद्ध होता है। प्रमाणता-प्रप्रमाणता का निर्णय स्वभाव. को शब्द मे व्यक्त करना घोड़े का लक्षण करना है। हेतु जनित एनुमान से, कार्य से कारण का ज्ञान कार्य हेतु जनदर्शन में पदार्थ स्वभाव से ही सामान्य विशेष रूप जनित अनुमान से पोर प्रभाव का ज्ञान अनुपलब्धि हेतु माने गए है, उनमें सामान्य और विशेष की प्रतीति कराने जनित अनुमान से किया जाता है। इस प्रकार प्रोटेगोरस के लिए पदार्थान्तर मानने की प्रावश्यकता नही।" प्रात्मा का केवल इन्द्रियजन्य ज्ञान को ही स्वीकार करना सिद्ध पुद्गलादि पदार्थ अपने स्वरूप से ही अर्थात् सामान्य पौर नहीं होता है। विशेष नामक पृथक पदार्थों की बिना सहायता के ही जा यस (४२७ ई० पू०) ने निम्न तीन धाराम्रो सामान्य विशेष रूप होते है। एकाएक और एक नाम से को सिद्ध करने का यत्न किया-- कहीं जाने वाली प्रतीति को अनुवति अथवा सामान्य १ किसी वस्तु की भी सत्ता नही । कहते है। सजातीय और विजातीय पदार्थों से सबंधा २. यदि किसी वस्तु का अस्तित्व है तो उसका ज्ञान अलग रहने वाली प्रतीति को व्यावत्ति प्रथवा विशेष हमारी पहुच के बाहर है। कहते है । इसी सामान्य तथा बिशेष की व्याख्या सुक रात ३ यदि ऐसे ज्ञान की सम्भावना है तो कोई मनुष्य ने उदाहरण देकर की है। अपने ज्ञान को किसी दूसरे तक पहुचा नही सकता। प्लेटो (४२७-३४७ ई० पू०) के मतानुसार प्रत्ययों जैन दर्शन के अनुसार सत्ता सब पदार्थों में है। वस्तु का जगत अमानवीय जगत है; इसकी अपनी वस्तुगत कोसत्ता को प्रत्यक्ष मोर परोक्ष ज्ञान के द्वारा जाना जाता सत्ता है। दृष्ट पदार्थ इमको नकल है। कोई त्रिकोण है कोई भी मनुष्य अपने ज्ञान को किसी दूसरे तक पहुंचाने जिमकी हम रचना करते है, त्रिकोण के प्रत्यय को पूर्ण मे निमित्त हो सकता है। नकल नही। हर एक विशेष पदार्थ में कोई न कोई पश्चिम मे सुकरात (४६६-३६६ ई०पू०) लक्षण मर्णता होती ही है। इमी अपूर्णता का भेद विशेष पदार्थों और प्रागमन दोनों का जन्मदाता है, इसलिए उसका को एक दूसरे से भिन्न करता है। मारे घोड़े घोड़े के प्रत्यय स्थान चोटी के दार्शनिको मे है। उसके अनुसार ज्ञान के की प्रपूर्ण नकलें है। सारे मनुष्य मनुष्य के प्रत्यय की कई स्तर है। मैं धोड़े को देखता हूँ.-सका कद विशेष प्रघगे नकलें है कोई प्रत्यय पदाथों पर आधारित नही. कद है। उसका रंग विशेष रग है। उसकी विशेषतामो प्रत्यय तो उनकी रचना का प्राधार है। प्रत्यय और के कारण मैं उसे अन्य घोड़ों से अलग करता है। मेरा उसको नकलो का भेद सामान्य प्रौर विशेष के रूप में १५. स्वतोऽनुबत्तिव्यतिवृत्तिभाजो भावान भावान्तर नेपरूपाः । परात्मतत्त्वादशात्मतत्वाद् द्वय वदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति ॥ प्राचार्य हेमचन्द्रः प्रन्ययोगव्यवच्छेदनानिशिका-४

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126