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१० वर्ष ३४,किरण ।
अनेकान पीछे प्रसिद्ध हुमा । प्रत्यय और पादर्श एक ही है। कहलाने के योग्य हैं।
नदर्शन उपर्युक्त प्रत्ययों एवं उसकी नकलों को जनदर्शन में प्रत्यक्ष के दो भेद माने गए हैंमाग्यता को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार दृष्ट १. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष २. पारमार्थिक प्रत्यक्ष । इन्द्रिय पदार्थ किसी प्रत्यय की नकल नही, वास्तविक है। ज्ञान और मन को सहायता से जो ज्ञान हो, वह माव्यावहारिक में ऐसी शक्ति है कि वह पदार्थों को जानता है। ज्ञान में प्रत्यक्ष है। यह यथार्थ रूप में परोक्ष ज्ञान हो है। क्योकि झलकने के कारण हो पदार्थ ज्ञय नाम को पाते हैं। इसमे इन्द्रिय और मन के अवलम्बन को प्रावश्यकता होती सामान्य से रहित विशेष और विशेष से रहित सामान्य है। इन्द्रिय और मन के द्वारा जो जानकारी होती है, वह की उपलब्धि किसी को नहीं होती। यदि दोनो को पूरी तरह से यथार्थ हो, ऐसा नहीं है। काच, कामला निरपेक्ष स्थिति मान ली जाय तो दोनों का हो प्रभाव हो प्रादि रोग के कारण किसी को रंग के विषय मे भ्रान्ति जायगा । कहा भी है
हो जाय तो इसका अर्थ यह नहीं है कि सारे ऐन्द्रियक "विशेष रहित सामान्य खरविषाण की तरह है भोर ज्ञान भ्रान्त है। यदि सारे ऐन्द्रियिक ज्ञान को भ्रान्त सामान्यरहित होने से विशेष भी वैसा ही है।" माना जाय तो लोक व्यवहार का हो लोप हो जायगा
वस्तु का लक्षण प्रक्रियाकारित्व है और यह लक्षण प्लेटो के ज्ञान के प्रथम दो स्तरो का समावेश साव्यव. अनेकान्तवाद मे ही ठीक-ठीक घटित हो सकता है। गो हारिक प्रत्यक्ष मे हो जाता है। जैनदर्शन मे इसे के कहने पर जिस प्रकार खुर, ककुत, सास्ना, पूंछ, सीग ज्ञान की श्रेणी में रखा गया है। तत्त्वज्ञान इस ज्ञान से मादि अवयवो वाले गो पदार्थ का स्वरूप सभी गो व्यक्तियों ऊँचा अवश्य है, क्योकि इसमें युगपत् अथवा प्रयुगपत में पाया जाता है, उसी प्रकार भैस प्रादि की व्यावत्ति भी सारे पदार्थों का ज्ञान होता है। केवल केवली भगवान हो प्रतीत होती है।" प्रतएव एकान्त सामान्य को न मान युगपत् सारे पदार्थों को जानते है, अन्य ससारी प्राणियों कर पदार्थों को सामान्य विशेष रूप हो मानना चाहिए। मे से जिन्हें तत्त्वज्ञान होता है वे प्रयुगपत् ही पदार्थों प्लेटो ने ज्ञान के तीन स्तर स्वीकार किए। सबसे निचले को जानते है। तत्त्वज्ञानी जैसा सत् को देखता है, उसो स्तर पर विशेष पदार्थों का इन्द्रियजन्य ज्ञान है। ऐसे ज्ञान प्रकार असत् को भी देखता है। क्योकि वस्तु केवल भाव. में सामान्यता का प्रश नही होता जो पदार्थ मझे हरा रूप नही, अभावरूप भी है। दिखाई देता है और तीसरे को रगविहीन दिखाई देता है।
प्लेटो के विचार में सृष्टि रचना एक स्रष्टा को क्रिया पदार्यों के रूप, उनके परिमाण प्रादि के विषय मे ऐसा ही है। स्रष्टा प्रकृति को प्रत्यपों का रूप देता है। जैन भेद होता है। प्लेटो के अनुसार एसा बोध ज्ञान कहलाने सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि स्वयसिद्ध है। कोई सर्वदष्टा
सदा मे कर्मों से प्रछता नही हो सकता, क्योंकि बिना का पात्र ही नहीं; इसका पद व्यक्ति को सम्मति का है।
उपाय के उसका सिद्ध होना किसी तरह नहीं बनता।" इससे ऊपर के स्तर का ज्ञान रेखागणित में दिखाई देता
प्लेटो का प्रत्यय विशेष पदार्थों के बाहर था। प्रारस्तू है। हम एक त्रिकोण की हालत में सिद्ध करते हैं कि
(३८४-३२२ ई०पू०) का तत्त्व प्रत्येक पदार्थ के अन्दर उसको कोई दो भुजायें तीसरी से बड़ी है और कहते है।
है। सभी घोड़े घोड़ा श्रेणी में हैं; क्योंकि उन सब में कि यह सभी त्रिकोणों के विषय में सत्य है। गणित के
अपनी-अपनी विशेषतानों के साथ सामान्य प्रश भी प्रमाणित सत्यों से भी ऊँचा स्तर तत्त्वज्ञान का है जिसमे विमान है। यह सामान्य प्रश भी उस सामान्य अंश से सत् को साक्षात् देखते हैं, तत्त्वज्ञान ही वास्तव मे ज्ञान भिन्न है, जो मारे गदहों में पाया जाता है पोर उम्हे १६ निविशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् ।
१८. नास्पृष्टः कर्मभिः शश्वद् विश्वहश्वास्ति कश्चन । सामान्य रहित त्वेन विशेषास्तवदेव हि ।।
तस्यानुपायसिदस्य सर्वथाऽनुपपत्तितः ।।६।। मीमांसा इलोकवातिक
प्राप्तपरीक्षा १७. मल्लिषेण : स्यावादमंजरो पृ० १२४ ।