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में कविवर ठाकुरसी एवं सिवदास की नेमि राजमति बेलि, के नाम उल्लेखनीय है। कविवर ठाकुरसी ने अपनी बेलि मे नेमिनाथ घोर राजुल के विवाह प्रसंग से लेकर वैराग्य धारण करने घोर प्रश्त में निर्वाण प्राप्त करने तक की घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन किया है। इसमें मेमकुमार का पौरुष, विवाह के लिये प्रस्थान पशुधों की पुकार, राजुल का सौन्दर्य वर्णन, राजुल का विलाप आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसी प्रसन मे राजुल द्वारा दूसरे राजकुमार से विवाह करने के प्रस्ताव का दृढ़ता साथ विशेष किया गया। कवि के शब्दों में उसे देखिए
जंप रखमतीय प्रणेश निविवर बंधन मेरा के बरच नेमिवर भारी, सलि के तपु लेउ कुमारी । दिगंबर को स्वर से सर नर को पैसे तिमि भवन को राई, किम प्रवस्तु बरो बस भाई ।।
हिन्दी जैन कवियों में पद साहित्य मे भी नेमि राजुल के सम्बन्ध में घनेक पद लिखे हैं । ये पद श्रृंगार, विरह एवं भक्ति सभी तरह के हैं। सबसे अधिक विरहात्मक पद म० नीति एवं कुमुद्र ने लिखे हैं। इन दोनों कवियों के पदों से ऐसा मालूम देता है मानो इन्होंने राजुल के हृदय हृदय को अच्छी तरह पढ़ लिया हो और उनके पदों से उसको घन्तरात्मा की प्रावाज हो सुनाई देती है। रस्मकीर्ति राजुल की तड़पन से बहुत परिचित थे। राजुल किसी भी बहाने नेमि के दर्शन करना तो चाहती है। लेकिन वह यह भी चाहती थी कि उसकी मोले नेमि के प्रागमन को प्रतीक्षा न करें, लेकिन वे लाख मना करने पर भीम के आगमन की बाट जोहना नहीं छोड़ते रस्नकीति कहते है
बण्यो न माने नम निठोर । सुमिरि सुमिरि गुन भये सजल घन । उमंगी चलं मति चंचल चपल रहत
न
मानत 4 निहोर ॥
मिल उठि चाहत गिरि को मारव
फोर ॥ १ ॥
नहीं रोके
प्रकान्स
।
ही चिि बिधि चन्द्र चकोर || वरश्यो० ॥
तन मन धन योवन नही भावत । रजनी न भावत भोर ।।
थियो।
रस्मकीर्ति प्रभु वेगो
तुम मेरे मन के चोर || वरज्यो० ॥
एक अन्य पद में राजुल कहती है कि नेमि ने पशुओं
की पुकार तो सुन सी लेकिन उसकी पुकार क्यों नहीं सुनी।
दूसरों के दर्द को
इसलिये यह कहा जा सकता है कि वे जानते ही नहीं है
सखी री नेमि न जानी पीर ॥
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बहोत दिवाने प्राये मेरे घरि संग लेई हलबर वीर ॥१॥ नेमि मुख निरको हरखी मनसूं अबतो होइ मनधीर । ताये पसूय पुकार सुनी करी गयो गिरिवर के वीर ||२|| चंदवदनो पोकारतो डारती, मंडनहार उर चोर । रतनकीरति प्रभू भये विरागो, राजुल चित कियो घोर ॥ ३॥
इसी तरह एक अन्य पद में राजुल अपनी सखियों से नेमि के लिवाने की प्रार्थना करती है। वह कहती है कि नेमि के बिना योवन, चंदन, चन्द्रमा ये सभी फीके लगते है माता, पिता, सनियाँ एवं रात्रि सभी उत्पन्न करने वाली है । इन्ही भावो को रत्नकीर्ति के एक पद मे देखिये---]]
सखि को मिलावे नेम नारिदा ।
ता बिन तन मन योवन रजत है, चारु चंदन पर चंदा ॥ १ ॥ कामन भुवन मेरे जीवा लागल, सह मन को फंदा । तात मात घर सजनी रजनी, वे प्रति दुख को कंदा ॥ २॥ तुम तो शंकर सुख के दाता, करम प्रति काए मंदा । रतनकीरति प्रभु परम दयालु, सेवत प्रमर नरिया || ३ || लेकिन कवि अथ राजुल को सुन्दरता का वर्णन करने लगता है तो वह उसमें भी किसी से पीछे नही रहना चाहता ।
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चनो मृगलोचनो, मोचनी वंजन मीन । बास जीरो मेणि श्रेणिय मधुकर दोन युगल गल बाये शशि, उपमा नाशा कीर । अपर विक्रम सम उपना, दंतम निर्मल नीर । चिबुक कमल पर घटपद, धानश्व करे सुधापान ।
प्रोमा सुम्दर सोभली बूरूपोतने मान ।।१२॥