Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 20
________________ प्रानन्द कहां है? 0 श्री बाबूलाल जैन, नई दिल्ली प्रात्मा की तीन प्रवस्थाए होती है-बहिरात्मा, है, मैं इन रूप नहीं, मैं अपने निज चैतन्य रूप हूं पथवा अन्तरात्मा और परमात्मा । यह अभी बहिरात्मा है यानी मैं तो 'ब्रह्मोस्मि' हूं यह जाने । अपने को इनसे अलग देखे इसकी दृष्टि, इसका सर्वस्व बाहर मे है, पर मे है, धन- तो दुखी-सुखी होने का कोई प्रयोजन ही नहीं रहे। जैसे दौलत में है, परिवार मे है, शरीर म है, अपने प्रापम यानी किसी नाटक मे कोई प्रादमी पार्ट कर रहा है, उसको चैतन्य में नही है। इसलिए यह मानता है कि मैं मनुष्य धनिक का पार्ट दिया तो वह कर देता है, भिखारी का हं. मैं धनिक हं, मैं गरीब हूँ, मैं रोगी हूँ, सुखी हूं, दुखी हू दिया है, तो वह कर देता है, भिखारी का पार्ट करते हुए परन्तु कभी यह नही देखता कि मैं सच्चिदानन्द है। अपने को भिखारी मानकर दुखी नही होता है और राजा भरीरादि धन-वैभव तो माथ मे लाया नही, साथ मे का पार्ट कर राजा मानकर महकार नहीं करता। क्योकि जायगा नही, जो जन्म से पहले था मरने के बाद रहेगा वह जानता है कि यह तो मात्र कुछ देर का पार्ट मात्र नहीं, यह तो संयोग वस्तु है। कुछ समय मात्र के लिए है। मैं इस रूप नही, मै तो अपने रूप ही है। इसी प्रकार संयोग हमा है। किसी होटल में ठहरते है उस कमरे को यह प्रात्मा कमजनित अनेक प्रकार के पार्ट कर रहा है। प्रपना कमरा भी कहते है, उस कमरे में अनेक प्रकार का कभी धनिक का, कभी भिखारी का, कभी स्त्री का, कभी सामान भी होता है, उसको काम में भी लेते है परन्तु पुरुष का पुरुष का, कभी पशु का। अगर यह प्रपन यह जानते है कि इसमें हमारा कुछ नही है, कुछ समय क मापको यानी पार्ट करने वाले को जान पहचाने, जो ___ सचिदानन्द चतन्य है तो उसे कम जनित अवस्था म नही इसलिए उनमे प्रहबुद्धि भी नही होती पोर मासक्ति दुख सुख नही हो, यही अन्तरात्मपना है याने अपने का भी नही होती और उसके बिगड़ने-सुधरने स दु.ख-सुख जान लिया, अब उसके लिए वह पार्ट हो गया, अब तक भी नहीं होता। उसी प्रकार यह चैतन्य पात्मा १००-५० उस प्रसली मान रखा था, जहा अपने का पहचाना उसका वों के लिए इस शरीर रूपी होटल में पाकर ठहरा है। प्रसलीपना खत्म हो गया। अब वह पार्ट उसे सुखी-दुखा इसमे इसका अपना अपने चाय के अलावा कुछ नहीं है नही बना सकता। नरक का पार्ट हो-चार घण्ट यहां तक कि शरीर भी यही रह जाता है, इसका अपना है। यह १००.५. वर्ष का नही है परन्तु पार्ट तो पार्ट ही होता तो इसके साथ जाना चाहिए था। बात तो ऐसो है चाहे वह कितने समय का ही क्यो न हो। ही है परन्तु यह भ्रम से इसे प्राना मानता है, इसे अपना धन वैभव का याना-जाना तो पुण्य-पाप के प्रधान रूप मानता है और जब इसे अपना मानना है तो इसम है परन्तु यह तत्व-ज्ञान प्राप्त करना अपने अधीन है। सम्बन्धित परिवारादि है 4 भी उसा अपन हो जाते है इसलिए हे चैतन्य नझे प्रानन्द को प्राप्त करना है तो और जो अन्य संयोग है उम भी पपना मान लेता है, तब प्रपो को जानने का पूरा करना चाहिए । जंस तून सपने उममे अहम् बद्धि पैदा होन म ह भाव बनना है-- को मान रखा है। वमा तू नही, तू तो उन अवस्थाम्रो ____मैं सुनी-दुपी, मैं र..राव, मेरो घन ग्रह गोधन को जानने वाला चैतन्य है। यह जानकर जो अपना नही प्रभाव मरे सुत लिय, मैं मबलदीन, बे रूप सुभग मुख- उममे हटे और जो अपना है उसमें लीन हो जाए ता प्रवीन'। इन सयोगों के अनुकूल होन पर ग्रह कार करता कम का सम्बन्ध दूर हो जाए। क्योकि जब कम-जनित है और विपरीत होने पर गम है. यही इनका बहिरात्म- प्रवस्थानों को अपना जानकर दुखी-सुखी होता था तब पना है। इसी से यह दुखी है वह कैसे दूर हो यह प्रश्न है ? नया कर्म का बन्ध होता था। जब अपने को कर्मकृत अगर यह अपने को पहचान ले कि मैं एक अकेला प्रवस्था से अलग जान लिया तो कम क कार्य के हर्षचैतन्य हूं बाकी सब कर्म के नाम महाने वाले सयोग [शेष पृ० २३ पर]

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