Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 10
________________ पाटलिपुत्र वाचना, (प्रायः ईसा पूर्व 300) के समय जो कुछ पुरातन पदों का संग्रह निश्चित हुआ होगा उसमें से कुछ (बौद्ध "थेरगाथा" "सुत्तनिपात' एवं "धम्मपद" की तरह) सूत्रकृतांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि प्राचीनतम आगमों के अन्तर्गत संकलित है । आर्य फल्गुमित्र के समय (लगभग ईस्वी 100) तक मूल संग्रह में कुछ पद्यों के स्थानांतर, स्खलन, विशृंखलन और कहीं-कहीं वर्णविकार या शब्द-विकृति तथा अध्ययनों में परिवर्तन भो हुआ होगा। आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में हुई माथुरी वाचना (प्रायः ईस्वी 350-353) के मध्य उसके जो प्रारूप और आंतरिक व्यवस्था निश्चित बनी होगी उसी का ही स्वरूप आज हमारे सामने उपस्थित दशवकालिक सूत्र में है। आचारांग (प्रथम श्रुत-स्कन्ध), सूत्रकृतांग, दशवकालिक, उत्तराध्ययन में (और ऋषि-भाषितानि में भी) जो प्राचीन पद्य हम देखते हैं वे निर्ग्रन्थ दर्शन की प्राचीनतम मान्यतायें, उस युग के दृष्टिकोरस, आदर्श, लक्ष्यों, और इन सबको ध्यान में रखते हुए निश्चित किया हुआ साधनामार्ग, आत्मसाधन एवं आचार-प्रणालिका के द्योतक हैं । साथ ही पश्चात् कालीन आगमों की भेद, प्रभेद, उपभेद, मूलभेद-उत्तर भेद की वैदुष्यलीला से प्रायशः सर्वथा मुक्त ही हैं । और, न उनमें नय-न्याय, प्रमाण-प्रमेय, आप्त-अनाप्त, अकान्त-अनेकान्त की दर्शनिक चतुराइओं का ढक्का-निनाद ही सुनाई पड़ता है । इनमें वर्णित कथन एकदम सीधे, सरल, सरस और साफ हैं । कथन का सारा ही जोर आत्म-गुण के विकास पर ही दिया गया है, और वह भी संयम एवं सच्चरित्र के रास्ते से । जिस युग में यह आगम रचा गया था उस युग में प्रायः सब ही भारतीय मुख्य धर्म-विचारधाराओं में इसी प्रकार का उपदेश दिया गया है, ऐसा दिखाई दे जाता है । इनमें जो कुछ भी कहा गया है वह भी सचोट, अंतर [ चयनिका x]

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