Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 84
________________ पभासई* (पभास) व 3/1 सक केवलं (केवल) 2/1 वि भारई (भारह)2/17 (अ)=ोर एवाऽयरिमो [(एव) + (प्रायरिपो)] एव (प्र)=वैमे ही. पायरियो (प्रायरिय) 11 सुय-सोल-बुद्धिए [(सुय)-(सील)-(बुद्धि) • 3/1] विरायई (विराय) व 31 अक सुरमझे [(मुर)-(मझ)7/1] व (प्र) =जैसे इंदो (इंद) 1/1 • छन्द की माता को प्रति हेतु '' को किया गया है। • (पापं प्रयोग) या रविता में 'ड' पौर 'उ' कभी-कभी टीपं नहीं होने, बल्कि जसे के तैसे रह जाते हैं। पिन न मापात्रों का व्याकरण, पृष्ठ 181). 59. जहा (अ) जैसे. ससी (ससि) I/! कोमुइजोगजुत्त [(कोमुड): (जोग)-(जुत) 1/1 वि] नक्लत्त-तारागणपरिवडप्पा [(नक्वत्त) + (तारा)+ (गण) + (परिवुड) + (अप्पा)][(नक्वत्त)-(तारा) -(गण)-(परिवुड)-(अप्प)1/1]से (ख) 7/1 सोहई (मोह)व 3/1 अक विमले (विमल) 7/1 वि अन्ममुक्के [(प्रम)-(मुक्क) 7/1 वि] एवं (अ)-वैसे ही गणी (गरिण) 1/1 सोहइ (सोह) व 3/1 प्रक भिक्खमझे [(भिक्खु)-(मज्झ) 7/1] * छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'ई' को 'ई' किया गया है। • समासगत शन्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में दीर्घ केन्यान पर हग्य हो जाया करते हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण. 1-4)। 60. महागरा [(मह) + (आगरा)] [(मह) वि-(प्रागर) 1/2] प्रायरिया (पायरिय) 1/2 महेसी [(मह) + (एसी)] [(मह) वि(एसि) 112 वि] समाहिजोगे [(समाहि)-(जोग) 7/1] सुय-सीलबुद्धिए* [(सुय)-(सील)-(बुद्धि) 3/1] संपाविउ (संपाव) हेक कामे (काम) 1/1 वि अगुत्तराई (अणुत्तर) 1/2 वि माराहए (पाराह) विधि 3/1 सक तोसए (तोस) विधि 3/1 सक धम्मकामी [(धम्म)-(कामि) 1/1 वि] * कविता में '' और '' कभी-कभी दोघं नहीं होते, बल्कि जैसे तैसे रह जाते हैं। (पिगलः प्राकृत भाषामों का ध्याकरण, पृष्ठ 181) | . प्राय: हेत्वयं कृदन्त के माय प्रयुक्त । दशवकालिक ] [ 62

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