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प्राकृत भारती पुष्प-37
दार्वकालिक-चयनिका
सम्पादक : कमलचन्द सोगारपी
प्रोफेसर, दर्शन विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय
उदयपुर (राजस्थान)
प्रकाशक:
प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ,
मेवानगर
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प्रकाशक: देवेन्द्रराज मेहता सचिव, प्राकृत भारती अकादमी जयपुर सुलतानमल जैन अध्यक्ष, जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ मेवानगर
द्धितीय संस्करण
मूल्य पच्चीस रुपये © सर्वाधिकार प्रकाशकाधान
प्राप्ति-स्थल : 1. प्राकृत भारती अकादमी
3826, यति श्यामलालजी का उपाश्रय मोतीसिंह भोमियों का रास्ता
जयपुर-302 003 (राजस्थान) 2. श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ
पो. मेवानगर, स्टे. बालोतरा 344 025, जि वाड़मेर (राज.)
कण्ड्स प्रिन्टर्स एण्ड स्टेशनर्स जौहरी बाजार, जयपुर-302 003
Daśavaikālika-Cayanikā Kamal Chand Sogani/Udaipur/1987.
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पं. दलसुख भाई मालवणिया पं. बेचरदास जीवराज दोशी
एवं डॉ. नेमिचन्द शास्त्री
को सादर समर्पित
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प्रकाशकीय
प्राकृत भारती अकादमी और श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर के संयुक्त प्रकाशन के रूप में प्राकृत भारती का 37वां पुष्प " दशवैकालिक चयनिका" पाठकों के करकमलों में प्रस्तुत करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है ।
"दशवैकालिक" संस्कृत का स्वीकृत रूप है और इसके प्राकृत रूप हैं: - दसवेकालिय दसवेयालिय और दसवेतालिय । निश्चित समय पर पठन योग्य इस ग्रन्थ में मुख्यतः दस अध्ययन होने के कारण इसका नाम दशर्वकालिक ही रूढ हो गया ।
अल्पवयस्क क्षुल्लक निर्ग्रन्थ / श्वमरण, अल्पतम समय में ही निर्ग्रन्थ के आचार धर्म का स्वरूप हृदयंगम कर, तदनुरूप आचरण कर, ग्रात्मसिद्धि के सोपान पर चढ़ सके, इसी दृष्टि से मनक-पिता श्रुतघर आचार्य शय्यंभव ने श्रागम शास्त्रों का दोहन कर सार रूप में इस लघुकायिक ग्रन्थ / शास्त्र का निर्मारण किया था । आगमों एवं ग्राचार शास्त्र का नवनीत होने के कारण परवर्ती श्राचार्यों ने इस दशवैकालिक को महत्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित कर दिया और यह नैतिक प्रावधान कर दिया कि जो भी नवदीक्षित हो वह जब तक इस शास्त्र का अध्ययन / योगोद्वहन न कर ले तब तक उसे वृहद् 'दीक्षा प्रदान न की जाए। इस परम्परा का श्राज भी प्रांशिक रूप में यथावत् पालन हो रहा है । प्रांशिक रूप में इसलिये कि अब दस अध्ययनों में से प्रारम्भ के चार अध्ययनों को मूल मात्र ( अर्थ
दशवेकालिक ]
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विवेचन सहित नहीं) कण्ठस्थ करवाकर, योगोदहन करवाकर बड़ी दीक्षा देते हैं।
इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय और इसके अन्तरंग स्वरूप का परिचय देते हुए श्री दलसुख मालवणिया ने "दसकालिक सुत्तं" की प्रस्तावना पृष्ठ 4-5 पर लिखा है:
"इस ग्रन्थ में भिक्षुओं के धर्ममूलक प्राचार का निरूपण है। खासकर निम्रन्थ मुनियों के प्राचार के नियमों का विस्तार से निरूपण इस सूत्र में है। उसमें संयम ही केन्द्र में है । वह भिक्षु यदि संयत है तो जीव हिंसा से बचकर किस प्रकार अपना संयमी जीवन धैर्यपूर्वक बितावे इसका मार्गदर्शन इसमें है । अतएव भिक्षु के महाव्रत तथा उसके आनुषंगिक नियमों का वर्णन विस्तार से करना अनिवार्य हो जाता है । यही कारण है कि इसमें पांच महावंत और छठा रात्रिभोजन विरमण व्रत की चर्चा की गई है। संयम का मुख्य साधन शरीर है और शरीर के लिए भोजन अनिवार्य है। वह भिक्षा से ही सम्भव है। अतएव किस प्रकार भिक्षा ली जाय जिससे देने वालों को तनिक भी कष्ट न हो-और भिक्षु को-योग्य भिक्षा भी मिले यह कहा गया है । जीव में समभाव की पुष्टि अनिवार्य मानी गई है जिससे मनोवांछित भिक्षा न भी मिले तब भी क्लेश मन में न हो तथा अच्छी भिक्षा मिलने पर राग का आविर्भाव न हो यह जीवन मंत्र दिया गया है । संयत पुरुष की भाषा कैसी हो-जिससे किसी के मन में उसके प्रति कभी भी दुर्भाव न हो-यह भी विस्तार से प्रतिपादित किया गया है । यह तभी संभव है जब उसमें प्राचार शुद्धि हो अर्थात् कषाय-राग-द्वेष आदि से मुक्त होने का जागरूक प्रयत्न हो, अहिंसा हो, दयाभाव हो और अपने शरीर के कष्टों के प्रति उपेक्षा हो । लेकिन आचार-शुद्धि का.. मुख्य कारण सुगुरु की उपासना भी है, vi]
[ चयनिका
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अतएव विनय का विस्तार से वर्णन इसमें किया गया है। अन्त में सव का सार देकर सच्चा भिक्षु कैसा हो यह संक्षेप में वर्णित है ।
___ इस सूत्र में दो चूलिका भी जोड़ी गई हैं । उनका उद्देश्य भिक्षु को अपने संयमी जीवन में दृढ़ रहने का उपदेश देना-यह है । अर्थात् इसमें गृहस्थ जीवन की हीनता और संयमी जीवन की उच्चता का प्रतिपादन अनिवार्य हो गया है ।
इस प्रकार संयमी जीवन के अनेक प्रश्नों को लेकर इस ग्रन्थ में निरूपण होने से इसी सूत्र से नये भिक्षु का पठनक्रम शुरू होता है । इसे भिक्षु जीवन की प्रथम पाठ्य पुस्तक कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा।"
प्राकृत भारती का प्रारम्भ से ही यह उद्देश्य रहा है कि प्राकृत भापा में सन्हब्ध विशाल पागम साहित्य का स्वरूप, सारांश सर्व साधारण समझ सके। इसी दृष्टि से अकादमी डा. कमलचन्द जी सोगाणी, प्रोफेसर दर्शन विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से चयनिकायें तैयार करवाकर प्रकाशित कर रही है । इस शृंखला में अभी तक डा. सोगाणी द्वारा चयनित-"आचारांग-चयनिका, समणसुत्तं चयनिका, वाक्पतिराज की लोकानुभूति"-प्रकाशित कर चुकी है । दशवकालिक चयनिका प्रस्तुत है और उत्तराध्ययन एवं सूत्रकृतांग की चयनिकायें शीघ्र ही प्रकाशित होंगी।
हमें हार्दिक प्रसन्नता है कि हमारे इस प्रयत्न से प्रबुद्ध पाठकों में आगमों के अध्ययन के प्रति रुचि जागृत हुई। उन्होंने इसको सराहा, सहर्ष स्वीकार किया और चयनिकाओं का अध्ययन किया । इसी के फलस्वरूप अल्प समय में ही आचारांग-चयनिका का द्वितीय संस्करण भी अकादमी को प्रकाशित करना पड़ा।
दशवकालिक ]
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. आचारांग-चयनिका के समान इस चयनिका में भी दशवकालिक सूत्र के विशाल कलेवर में से मणि-मुक्ताओं के समान वैशिष्ट्य पूर्ण केवल एक सौ गाथाओं का चयन है और साथ ही प्रत्येक सूत्र का व्याकरण की दृष्टि से शाब्दिक अनुवाद भी । व्याकरणिक विश्लेषण में प्राकृत व्याकरण को दृष्टि में रखते हुए प्रत्येक शब्द का मूल रूप, अर्थ और विभक्ति आदि का सरल परिचय भी दिया गया है । हमारा विश्वास है कि आगमों के अध्ययन को सार्वजनीन सुलभ वनाने से पाठक में जैन आगम/दर्शन/धर्म के सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा उत्पन्न हो सकेगी और समाज में एक नयी चेतना का उदय हो सकेगा, जो अभ्युदयकारी सिद्ध होगी।
डा. सोगाणी इस अकादमी के संस्थापन काल से ही अंग रहे हैं और अकादमी के विकास में प्रयत्नशील भी । उनके चयनिकानिर्माण के प्रशस्त प्रयत्न के प्रति अकादमी कृतज्ञ है । साथ ही "पुरोवचन" के लेखक श्री मधुसूदन जी अ. ढांकी सह निदेशक, अमेरीकन इन्स्टीट्यूट आफ इंडियन स्टडीज, वाराणसी के प्रति भी हार्दिक आभार व्यक्त करता है।
पुस्तक की सुन्दर छपाईं के लिये अकादमी फ्रेन्ड्स प्रिन्टर्स एवं स्टेशनर्स, जयपुर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करता है ।
सुलतानमल जैन
अध्यक्ष श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ
श्व. नाकाड़ा पाश्वनाथ तीर्थ
मेवानगर
देवेन्द्रराज मेहता
सचिव प्राकृत भारती अकादमी
जयपुर
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पुरोवचन
जिन वर्धमान महावीर की उत्तरापथ की परम्परा में उनके . गणधर-शिष्य सुधर्मा से चौथे पट्टधर हुए आर्य शय्यंभव वा स्वायम्भुव (प्रायःईसा-पूर्व 375-300) । आगमिक व्याख्याकारों की ईस्वी छट्ठी शताब्दी से चली आयी परम्परा के अनुसार अत्यन्त प्रतिष्ठित आगम दशवकालिक सूत्र के वे रचयिता थे। उन्होंने उसकी रचना अपनी गृहस्थ पर्याय के पुत्र एवं तत्पश्चात् स्वशिष्य वाल मुनि, अल्पायुषी "मनक" के उपदेशार्थ की थी । दशाश्र तस्कन्ध (कल्पसूत्र) की स्थविरावलि का प्राचीनतम हिस्सा, जो आर्य फल्गुमित्र (ईस्वी 100-125) पर्यन्त पाकर ही अटक जाता है, उसमें आर्य शय्यंभव के लिये जो 'मनक पिता" का उद्बोधन किया गया है वह संभवतः उपरकथित अनुश्र ति की ओर संकेत ही नहीं, अपितु एक तरह से समर्थन भी करता है।
वर्तमान में उपलब्ध दशकालिक सूत्र. यदि शोध दृष्टि से देखा जाय तो, भाषा एवं छन्दादि से और विशेष कर भीतरी वस्तु से निःशंक रूप से ईसा पूर्व की रचना है। इस रचना में जो "बाल मुनि" के लिये ही हो सकती हैं वे गाथाएं तो हमें पूरे प्रथम अध्ययना में, द्वितीय अध्ययन में कुछ, और शेष आठ अध्ययनों में इधर-उधर बिखरी हुई देखने में आती हैं । (इस विषय पर मैं अन्यत्र चर्चा कर रहा हूँ।) दशवैकालिक सूत्र का अधिकांश भाग. तो प्रौढवय के मुनियों के लिये ही है, लेकिन वह हिस्सा है बहुत ही प्राचीन । और, दशवकालिक ]
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पाटलिपुत्र वाचना, (प्रायः ईसा पूर्व 300) के समय जो कुछ पुरातन पदों का संग्रह निश्चित हुआ होगा उसमें से कुछ (बौद्ध "थेरगाथा" "सुत्तनिपात' एवं "धम्मपद" की तरह) सूत्रकृतांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि प्राचीनतम आगमों के अन्तर्गत संकलित है । आर्य फल्गुमित्र के समय (लगभग ईस्वी 100) तक मूल संग्रह में कुछ पद्यों के स्थानांतर, स्खलन, विशृंखलन और कहीं-कहीं वर्णविकार या शब्द-विकृति तथा अध्ययनों में परिवर्तन भो हुआ होगा। आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में हुई माथुरी वाचना (प्रायः ईस्वी 350-353) के मध्य उसके जो प्रारूप और आंतरिक व्यवस्था निश्चित बनी होगी उसी का ही स्वरूप आज हमारे सामने उपस्थित दशवकालिक सूत्र में है।
आचारांग (प्रथम श्रुत-स्कन्ध), सूत्रकृतांग, दशवकालिक, उत्तराध्ययन में (और ऋषि-भाषितानि में भी) जो प्राचीन पद्य हम देखते हैं वे निर्ग्रन्थ दर्शन की प्राचीनतम मान्यतायें, उस युग के दृष्टिकोरस, आदर्श, लक्ष्यों, और इन सबको ध्यान में रखते हुए निश्चित किया हुआ साधनामार्ग, आत्मसाधन एवं आचार-प्रणालिका के द्योतक हैं । साथ ही पश्चात् कालीन आगमों की भेद, प्रभेद, उपभेद, मूलभेद-उत्तर भेद की वैदुष्यलीला से प्रायशः सर्वथा मुक्त ही हैं । और, न उनमें नय-न्याय, प्रमाण-प्रमेय, आप्त-अनाप्त, अकान्त-अनेकान्त की दर्शनिक चतुराइओं का ढक्का-निनाद ही सुनाई पड़ता है । इनमें वर्णित कथन एकदम सीधे, सरल, सरस और साफ हैं । कथन का सारा ही जोर आत्म-गुण के विकास पर ही दिया गया है, और वह भी संयम एवं सच्चरित्र के रास्ते से । जिस युग में यह आगम रचा गया था उस युग में प्रायः सब ही भारतीय मुख्य धर्म-विचारधाराओं में इसी प्रकार का उपदेश दिया गया है, ऐसा दिखाई दे जाता है । इनमें जो कुछ भी कहा गया है वह भी सचोट, अंतर
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निष्पन्न और नित्य सांसारिक जीवन की अनुभूति में से लिया गया है । सव ही उपमायें एवं उदाहरण वास्तविक हैं, जो लोकभाषा एवं 'जनानुभव में से अनायास ही आये हैं । उस युग के मुनिजनों के विचार और चर्चा सम्बद्ध प्रचलित कविता-प्रवाह में से लेकर, यहाँ कुछ व्यवस्थित रूप में संकलित कर प्रस्तुत किये गये हैं, ऐसा प्रतीत होता है।
डा. कमलचन्द सोगानी जी ने आचारांग-चयनिका की तरह इस दशवकालिक सूत्र-सरोवर में से भी उत्तमोत्तम पुडरीक चुन कर एक प्रकार से सारग्राही और सुरभियुक्त पद्यकुसुमावलि सानुवाद प्रस्तुत की है। अनुवाद केवल शब्दशः न होते हुए पद्यों के अन्तरंग को प्रकट करने वाला है और इस हेतु उन्होंने बहुत परिश्रम भी किया है । चयनकार डा. सोगानी, प्राकृत भारती अकादमी के सचिव श्री देवेन्द्रराजजी मेहता एवं अकादमी के ही निदेशक महो. पंडित विनयसागर जी इस सार्थक प्रकाशन के यशःभागी हैं।
मधुसूदन ढांकी
दणकालिक ]
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সন[সুনা
यह सर्व विदित है कि मनुष्य अपनी प्रारम्भिक अवस्था से ही रंगों को देखता है, ध्वनियों को सुनता है, स्पर्शों का अनुभव करता है, स्वादों को चखता है तथा गंवों को ग्रहण करता है। इस तरह उसकी सभी इन्द्रियाँ सक्रिय होती हैं । वह जानता है कि उसके चारों
ओर पहाड़ हैं, तालाव हैं, वृक्ष हैं, मकान हैं, मिट्टी के टीले हैं, पत्थर हैं इत्यादि । आकाश में वह सूर्य, चन्द्रमा और तारों को देखता है । ये सभी वस्तुएँ उसके तथ्यात्मक जगत् का निर्माण करती हैं। इस प्रकार वह विविध वस्तुओं के बीच अपने को पाता है। उन्हीं वस्तुओं से वह भोजन, पानी, हवा आदि प्राप्त कर अपना जीवन चलाता है। उन वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने के कारण वह वस्तु-जगत का एक प्रकार से सम्राट बन जाता है । अपनी विविध इच्छाओं की तृप्ति भी बहुत सीमा तक वह वस्तु-जगत से ही कर लेता है । यह मनुष्य की चेतना का एक आयाम है ।
धीरे-धीरे मनुष्य की चेतना एक नया मोड़ लेती है। मनुष्य समझने लगता है कि इस जगत में उसके जैसे दूसरे मनुष्य भी हैं, जो उसकी तरह हँसते हैं, रोते हैं, सुखी-दुःखी होते हैं । वे उसकी तरह विचारों, भावनाओं और क्रियाओं की अभिव्यक्ति करते हैं । चूँ कि मनुष्य अपने चारों ओर की वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने xii 1
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का अभ्यस्त होता है, अतः वह अपनी इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्यों का उपयोग भी अपनी आकांक्षाओं और आशाओं की पूर्ति के लिए ही करता है । वह चाहने लगता है कि सभी उसी के लिए जीएँ । उसकी निगाह में दूसरे मनुष्य वस्तुनों से अधिक कुछ नहीं होते हैं । किन्तु उसकी यह प्रवृत्ति बहुत समय तक चल नहीं पाती है । इसका कारण स्पष्ट है । दूसरे मनुष्य भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति में रत होते हैं । इसके फलस्वरूप उनमें शक्ति - वृद्धि की महत्त्वाकांक्षा का उदय होता है । जो मनुष्य शक्ति-वृद्धि में सफल होता है, वह दूसरे मनुष्यों का वस्तुत्रों की तरह उपयोग करने में समर्थ हो जाता है । पर मनुष्य को यह स्थिति घोर तनाव की स्थिति होती है । अधिकांश मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस तनाव की स्थिति में से गुजर चुके होते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि यह तनाव लम्बे समय तक मनुष्य के लिए असहनीय होता है । इस असहनीय तनाव के साथ-साथ मनुष्य कभी न कभी दूसरे मनुष्यों का वस्तुत्रों की तरह उपयोग करने में असफल हो जाता है । ये क्षण उसके पुनर्विचार के क्षण होते हैं । वह गहराई से मनुष्य - प्रकृति के विषय में सोचना प्रारम्भ करता है, जिसके फलस्वरूप उसमें सहसा प्रत्येक मनुष्य के लिए समान भावे का उदय होता है । वह अव मनुष्य मनुष्य की समानता और उसकी स्वतन्त्रता का पोषक बनने लगता है । वह अव उनका अपने लिए उपयोग करने के बजाय अपना उपयोग उनके लिए करना चाहता है । वह उनका शोषण करने के स्थान पर उनके विकास के लिए चिंतन प्रारम्भ करता है । वह स्व-उदय के बजाय सर्वोदय का इच्छुक हो जाता है । वह सेवा लेने के स्थान पर सेवा करने को महत्त्व देने लगता है । उसकी यह प्रवृत्ति उसे तनाव मुक्त - कर देती है और वह एक प्रकार से विशिष्ट व्यक्ति बन जाता है । उसमें एक असाधारण अनुभूति का जन्म होता है । इस अनुभूति को ही हम मूल्यों की अनुभूति कहते हैं । वह अब वस्तु-जगत में जीते
दशवेकालिक ]
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हुए भी मूल्य - जगत में जीने लगता है । उसका मूल्य-जगत में जीना धीरे-धीरे गहराई की ओर बढ़ता जाता है। वह श्रव मानव मूल्यों की खोज में संलग्न हो जाता है । वह मूल्यों के लिए ही जीता है और समाज में उनकी अनुभूति बढ़े इसके लिए अपना जीवन समर्पित कर देता है । यह मनुष्य की चेतना का एक-दूसरा ग्रायाम है ।
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दशवैकालिक में चेतना के इस दूसरे ग्रायाम की सवल अभिव्यक्ति हुई है । इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसे समाज की रचना करना है, जिसमें मनुष्यों एवं मनुष्येतर प्राणियों को मारना व उनको मरवाना दोनों ही समाप्त हो जाएँ (२२) | सभी प्राणियों में जीने की इच्छा इतनी वलवती होती है कि कोई भी प्राणी किसी भी स्थिति में मरना नहीं चाहता है (२३) । इसलिए किसी भी प्रकार का वध उचित नहीं कहा जा सकता है । दशवेकालिक ने हिंसा की पराकाष्ठा को ही दृष्टि में रख कर प्राणियों को न मारने व उन्हें न मरवाने की ओर हमारा ध्यान केन्द्रित किया है । व्यक्तिगत स्तर पर हत्याएँ तथा राष्ट्रों के स्तर पर युद्ध मारने व मरवाने के ही व्यापक रूप हैं | सौन्दर्य प्रसाधन, आहार, आर्थिक विकास तथा वैज्ञानिक प्रयोगों के नाम पर मनुष्येतर प्राणियों को मारना व उन्हें मरवाना दशवैकालिक को मान्य नहीं है । वह अविकसित सामाजिक जीवन की विवशता हो सकती है, पर उपादेय नहीं कही जा सकती है । सामाजिक जीवन कुछ इस प्रकार का होता है कि समाज में व्यक्तिगत स्तर पर या समूह के स्तर पर कई वार संघर्ष की स्थितियाँ खड़ी हो जाती हैं। इन संघर्षो को मिटाने के लिए ऐसे रास्ते खोजे जाने चाहिए जहाँ जीवन लीला समाप्त करने वाली पद्धतियों का ही अन्त हो जाए । मारने व मरवाने के साधन रूप में आणविक और प्रणाणविक हथियारों पर होने वाले खर्च को यदि गरीबी, भुखमरी, रोग और अशिक्षा को मिटाने के लिए लगा दिया [ चयनिका
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जाए तो मानव जाति जीवन में उच्च मूल्यों का साक्षात्कार कर शाश्वत सुख को प्रोर बढ़ सकती है । ग्रतः दशवैकालिक का शिक्षण है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी प्राणी को न मारे और न ही उसे मरवाये ( २३ ) | सब प्राणियों के प्रति करुणा भाव प्रदर्शित करने की यह शैली महत्त्वपूर्ण सर्जनात्मक आयामों को अपने में समेटे हुए है (२१) । दशवैकालिक के अनुसार यह अहिंसा है ( २१ ) | व्यक्तिगत एवं सामाजिक ( राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ग्रहण किया गया यह अहिंसा-त्रत व्यक्ति एवं समाज की काया पलट कर सकता है ।
सब प्राणियों के प्रति करुणा की अनुभूति का आधार होता है, उनमें स्व-तुल्य आत्मा का भान होना ( ७, ८) । प्राणियों को श्रात्म-तुल्यता का ज्ञान ग्रहिसा की आधारशिला है । इस संवेदनशीलता के विकास के साथ कि 'सब प्राणियों का सुख-दुःख अपने समान होता है' मनुष्य हिंसा के मार्ग को छोड़ देता है और वह स्वपर हित को समझ लेता है (८)
'सव प्राणियों के प्रति करुणा भाव' (२१) की साधना के लिए हिंसा से दूर होना तथा हिंसा से दूर होने के लिए वस्तुओं के प्रति अनासक्ति का अभ्यास आवश्यक है । अतः दशवैकालिक का कथन है कि अहिंसा, संयम और तप धर्म है (१) । प्राणियों के प्रति करुणा भाव अहिंसा है; हिंसा से दूर रहना संयम है; और वस्तुनों के प्रति अनासक्ति का अभ्यास करना तप है । इस तरह से संयम और तप हिंसा के साधन हैं। यहाँ यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इस सूत्र ( १ ) में साध्य - साधन - रूप पूर्ण जीवन अभिव्यक्त है । इसीलिए जो धर्म अहिंसा, संयम और तप को अपने में गूंथे हुए हैं, वह ही प्राणियों का कल्याण कर सकता है । इसी से मनुष्य स्व-पर
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के विकास हेतु समर्थ होता है (४७) । स्व-अधीन भोगों के प्रति अनासक्त होने वाला ही त्यागी-तपस्वी कहलाता है (२) ।
दशवकालिक में ५७५ सूत्र हैं, जो दस अध्ययनों तथा दो चूलिकाओं (परिशिष्टों) में विभक्त हैं । इनमें सामाजिक-नैतिक व्यवहार तथा आध्यात्मिक विकास के सूत्र वर्णित हैं । इसमें साधनामय जीवन-पद्धति का विशद कथन है । यहाँ आध्यात्मिक गुरु का महत्त्व विवेचित है । अहंकार-रहितता (विनय) को धर्म (शान्ति) का मूल कहा गया है । अहंकारिता अशान्ति की जनक मानी गयी है । पूज्यता और साधुता के जीवन-मूल्य इसमें प्रतिपादित हैं । यहाँ निःस्वार्थ जीवन की दुर्लभता को इंगित किया गया है । सामान्य क्रियाओं को भी जागरूकतापूर्वक करने का निर्देशन सूत्रों से प्राप्त है । चार कषायों-क्रोध, मान, माया और लोभ को अनिष्टकर कहा गया है । ध्यान, स्वाध्याय और अनासक्तता का महत्त्व प्रदर्शित है। जीव-अजीव की प्रकृति को समझने के द्वारा ही साम्यावस्था की प्राप्ति बताई गई है । वचन-शुद्धि पर बल दिया गया है ।
दशवकालिक के इन ५७५ सूत्रों में से ही हमने १०० सूत्रों का चयन 'दशवकालिक-चयनिका' शीर्षक के अन्तर्गत किया है । इस चयन का उद्देश्य पाठकों के समक्ष दशवकालिक के उन कुछ सूत्रों को प्रस्तुत करना है, जो मनुष्यों में अहिंसा, संयम, तप. स्वाध्याय, ध्यान, अनासक्तता, जागरूकता, विनय, साधुता आदि की मूल्यात्मक भावना को दृढ़ कर सकें, जिससे उनमें नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की चेतना सघन बन सके । अब हम इस चयनिका की विषयवस्तु की चर्चा करेंगे : जीव-अजीव-विवेक और उसका फल :
___ मनुष्य केवल शरीर नहीं है । यह शरीर सीमित, नश्वर और xvi ]
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जड़ है । बहुत गहराई से मोचने, विचारने और अनुभव करने पर यह प्रतीत होता है कि मनुष्य में कुछ ऐसा भी है जो असीमित, अनश्वर और चेतन है । इस तरह से मनुष्य सीमित और असीमित का, नश्वर और अनश्वर का तथा जड़ और चेतन का मिला-जुला रूप है । इस मिले-जुले रूप के कारण ही सुख-दु:खात्मक अवस्था होती है । इस सुख-दुःखात्मक अवस्था के कारण ही मनुष्य इस जगत में अपने से भिन्न दूसरे प्राणियों को पहिचानने लगता है (७) । सामान्यतया ऐसा होता है कि मनुष्य अपने सुख-दुःख को तो समझ लेता है, पर संवेदनशीलता के अभाव में दूसरे प्राणियों की सुखदुःखात्मक अवस्था को नहीं समझ पाता है । अत; दशवकालिक का शिक्षण है कि जीवन में अहिंसा के विकास के लिए यह आवश्यक है कि हम दूसरे प्राणियों को आत्म-तुल्य समझे। दूसरे प्राणियों के सुखदुःखात्मक अस्तित्व का भान होना ही 'करुणा' उत्पन्न होने की पूर्व शर्त है (८) । यहाँ यह समझना चाहिए कि करुणा की उत्पत्ति मनुष्य के भावात्मक विकास की भूमिका में होती है । किन्तु, ज्यों ज्यों मनुष्य में अवलोकन-शक्ति और चिन्तनशीलता का विकास होता है, त्यों-त्यों वह मनुष्यों की तथा मनुष्येतर प्राणियों की विभिन्न सुख-दुःखात्मक अवस्थाओं के समाजातीत सूक्ष्म कारण को समझने का प्रयास करता है । यह सच है कि सामाजिक व्यवस्थाओं के बदलने तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों से प्राणियों की सुख-दुःखात्मक अवस्थाएँ बदली जा सकती हैं, लेकिन यह हो सकता है कि बाहर सब कुछ ठीक हो, फिर भी मनुष्य अशान्ति, भय, शोक आदि अनुभव करे । इस दुःखात्मक अवस्था का कारण अन्तरंग है । यह निश्चित है कि यह कारण अन्तरतम चेतना नहीं हो सकती है। यह मानना युक्ति-युक्त लगता है कि जिन सूक्ष्मताओं से यह अवस्था उत्पन्न होती है, वह पूर्व में अजित 'कर्म' है जो अजीव है, अचेतन है। इस तरह से जीव चेतन है, 'कर्म' अचेतन है, अजीव है । इनका सम्बन्ध दशवकालिक
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कैसे हुआ ? यहाँ यह विचारना अभीष्ट नहीं है । किन्तु हमारा या किसी भी प्राणी का संसार में पदार्पण चेतना की शक्तियों का सीमितीकरण है, अर्थात् चेतना या जीव का कर्म-युक्त होना है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जब तक हम चेतना या जीव की शक्तियों को तथा सीमितीकरण के कारण अजीव या कर्म को नहीं समझेगे, तव तक हम चेतन-शक्ति के विकास की ओर उन्मुख नहीं हो सकते (१०) । जीव (चेनन) और अजीव (कर्म) को समझे विना हमारे यह समझ में आना कठिन है कि संयमित जीवन का क्या उद्देश्य है ? उसका क्या महत्त्व है ? यह सच है कि जो मनुष्य चेतना या जीव की शक्तियों तथा कर्म या अजीव के प्रभाव को समझने की ओर . चल पड़ा है, वह कर्मों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए चेतनशक्ति के विकास की ओर चल पड़ता है । अतः संयम की ओर झुक जाता है (११) । जब मनुष्य कर्मों से उत्पन्न विभिन्न अवस्थाओं को समझने लगता है, तो जीवों की विभिन्न स्थितियाँ समझ में आने लगती हैं (१२) । इसका परिणाम यह होता है कि पशुवत् प्रवृत्तियों को तथा भोगात्मक वृत्तियों को वह छोड़ देता है। साथ में आसक्ति को तथा आसक्ति के कारण जो वाह्य संयोग रहते हैं, उनसे भी परे होने लगता है (१५) । अनासक्त भाव की ओर बढ़ते जाने से कर्म निस्तेज होकर समाप्त होने लगते हैं, तो अनन्त ज्ञान, साम्यावस्था
आदि गुण प्राप्त हो जाते हैं (१६ से २०) । यही जीव-अजीव (कर्म) के विवेक से उत्पन्न फल है। यही आध्यात्मिक मूल्यों की साधना का परिणाम है । जव कोई व्यक्ति आसक्ति के प्रभाव से भोगात्मक वृत्ति में रम जाता है और आध्यात्मिक मूल्यों को छोड़ देता है, तो यह कहना उचित है कि वह मूच्छित व्यक्ति है और अपने उज्ज्वल भविष्य को धूमिल कर रहा है. (६४) । दशवैकालिक की यह धारणा बड़ी मनोवैज्ञानिक है कि मनुष्य मंगलप्रद और अनिष्टकर दोनों को ही सुनकर समझता है (8) । संभवतया कहने xviii ]
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का अभिप्राय यह है कि आध्यात्मिक व्यक्तियों का संसर्ग और उनसे जीवन की गहराइयों का श्रवण चित्त पर स्थायी प्रभाव डालता है और वह व्यक्तित्व-परिवर्तन का प्रेरक बन जाता है। साधना के प्रायाम :
आसक्ति जीवन को संकुचित करती है; हिंसा जावन को मलीन बनाती है; कपायें चेतना की शक्ति को प्रस्फुटित नहीं होने देती हैं (३५).। साधना जीवन को सार्वलौकिक बनाती है, निर्मल करती है और चेतना की शक्तियों को प्रकाश में लाती है। जीवन में साधना के इस महत्त्व के कारण ही दशकालिक ने कहा है कि व्यक्ति शीघ्र ही सिद्धि-मार्ग को समझे और भोग से निवृत्त होवे, क्योंकि जीवन अनित्य है और आयु सीमित है (३३) । इसलिए जब तक किसी को बुढ़ापा नहीं सताता है, जब तक किसी को रोग नहीं होता है, जब तक किसी की इन्द्रियाँ क्षीण नहीं होती है, तब तक ही उसे साधना में उतर जाना चाहिए (३४) ।
उचित साधना से ही सर्वोत्तम की प्राप्ति सम्भव है। इससे ही इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण होता है (२८, ४१) । यहाँ यह समझना आवश्यक है कि साधना के मार्ग पर चला हुआ व्यक्ति ही हमें प्रशस्त वोध दे सकता है। अत: दशवकालिक का कथन है कि व्यक्ति मूल्यों के साधक का आश्रय लें और उससे ही हित-साधन को पूछताछ करे (४१)। इसके साथ साधना का ज्ञान भी साधनामय जीवन की आवश्यक पूर्व शर्त है । इस ज्ञान के लिए ग्रालस्य को त्यागकर स्वाध्याय में लीन रहना जरूरी है (४०) । स्वाध्याय में लगा हुया व्यक्ति सावनामय जीवन से चेतन-शक्तियों का विकास कर लेता है और दूसरों को भी इस मार्ग की ओर चलाने में समर्थ हो जाता है (४७) । दणकालिक का' स्पष्ट विश्वास है कि जो दशवकालिक]
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व्यक्ति नैतिक-याध्यात्मिक ग्रन्थों का अध्ययन करके ध्रुत-साधना में संलग्न होता है, वह मूल्यात्मक ज्ञान को प्राप्त करता है तथा एकाग्रचित्त वाला बन जाता है । वह स्वयं मूल्यों में जमा हुअा रहता है और दूसरों को भी मूल्यों में जमाता है।
साधना के लिए संकल्प की दृढ़ता यावश्यक है । 'देह को त्याग दूंगा, किन्तु नैतिकता के अनुशासन को नहीं ऐसी हड़ता वाला व्यक्ति ही इन्द्रिय-विपयों से विचलित नहीं किया जा सकता है (६७) । साधक के जीवन में मूल्यों का विकास समाज में उसके व्यवहार को मृदु, अाकर्षक एवं अनुकरणीय बना देता है । वह समझता है कि क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, अहंकार विनय का नाशक होता है, कपट मित्रों को दूर हटाता है और लोभ लव गुणों का विनाशक होता है (३६) । इसलिए वह क्षमा की साधना से कोष को नष्ट करता है, विनय की साधना से अहंकार को जीतता है, सरलता की साधना से कपट को तथा सन्तोष की साधना से लोम को जीतता है (३७) । दशवकालिक का शिक्षण है कि साधक दूसरों का अपमान न करे, अपने को ऊंचा न दिखाए, ज्ञान का लाभ होने पर गर्व न करे, जाति का, अनासक्त होने का तथा वृद्धि का गर्व न करे (२६)। ज्ञानपूर्वक तथा अनानपूर्वक अनुचित कर्म हो जाए तो वह अपने को तुरन्त रोके (३८) और उसको दूसरी बार न करे (३०) । वह सदा पवित्र वने, दोप को न छिपाए, प्रकट मनःस्थिति में रहे, इन्द्रियों को जीते तथा अनासक्त बने (३१) । मूल्यों का सावक ऐसी भापा न बोले जिससे दूसरे को मानसिक पीड़ा हो और वह शीत ऋोत्र करने लगे (४२) । वह सदैव नपी-तुली बात कहे (४३) । असत्य वचन से वह दूर रहे (२४) । ध्यान रखे कि दुर्वचन वैरकारक होते हैं (७५)।
'xx ]
[चयनिका
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साधक अन्तर्यात्रा पर चलता है । स्वाध्याय के वल पर वह अपने में कुछ गुण विकसित करने में सफल हो जाता है । किन्तु आध्यात्मिक ऊँचाइयों को जीने के लिए गुरु की श्रावश्यकता है । साधारणतया कोई भी विना श्राध्यात्मिक गुरु के पार नहीं पहुँच सकता है । जो कोई भी गुरु के विनां आध्यात्मिक रहस्यों में उतरने का प्रयास करता है, वह कई प्रकार के खतरों को जन्म दे देता है | गुरु के होने पर गुरु की आज्ञानुसार चलना ही अन्तर्यात्रा को सुगम बनाता है ( ७२ ) । गुरु की अवजा कई समस्याओं को उत्पन्न कर देती है और साधक परम-शान्ति के मार्ग से च्युत हो जाता है (५२, ५४) । अतः आध्यात्मिक सुख का इच्छुक साधक गुरु प्रसाद के लिए प्रयास करे तथा उनकी सेवा में संलग्न रहे (५५, ६० ) । सदैव यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि गुरु का किसी प्रकार का अपमान न हो जाए । गुरु का अपमान अहितकारक ही होता है ( ५१, ५३ ) | दशवैकालिक इस बात पर खेद व्यक्त करता है कि कई साधक ग्रहकार के कारण, कपट और प्रमाद के कारण गुरु के समीप होते हुए भी आध्यात्मिक आचरण में नहीं लगते हैं (४६) । यहाँ यह सम
ना चाहिए कि व्यक्ति जिनके पास अध्यात्म की बातों को सीखता है, उनके सामने विनम्र रहना और उनका सदैव सम्मान करना उच्च कोटि का आचरण है (५६) ।
साधना में विकास विनय से होता है । इसीलिए इसे धर्म का मूल कहा गया है ( ६२ ) । विनय अहंकार रहितता है । अहंकार मानवीय सम्बन्धों को गड़बड़ा देता है । अहंकारी में ग्रहणशीलता का प्रभाव होता है । विनयवान सबका प्रिय वन जाता है । वह शीघ्र ही अपने में ज्ञान आदि गुणों को विकसित करने में सफल हो जाता है । संसार मार्ग में तथा अध्यात्म मार्ग में सभी उसको चाहने लगते हैं । विनीत मनुष्य ही यश और वैभव प्राप्त करने के अधिकारी होते
दशवेकालिक ]
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इस पुस्तक के अनुवाद एवं इसकी प्रस्तावना को पढ़कर उपयोगी सुझाव दिए । डॉ. उदयचन्द जैन एवं डॉ. हुकमचन्द जैन ( जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय ) तथा डॉ. सुभाष कोठारी व श्री सुरेश सिसोदिया ( श्रागम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर) के सहयोग के लिए आभारी हूँ ।
मेरी धर्मपत्नी श्रीमती कमला देवी सोगाणी ने इस पुस्तक की गाथाओं का मूल ग्रन्थ से सहर्ष मिलान किया है तथा मेरे भतीजे श्री संगम सोगारणी ने प्रूफ-संशोधन का कार्य रुचिपूर्वक किया है, अतः मैं दोनों का आभार प्रकट करता हूँ ।
इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए प्राकृत भारती का - दमी, जयपुर के सचिव श्री देवेन्द्रराजजी मेहता तथा संयुक्त सचिव एवं निदेशक महोपाध्याय श्री विनयसागर जी ने जो व्यवस्था की है, उसके लिए उनका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ ।
प्रोफेसर
दर्शन विभाग
मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राजस्थान )
२५.१.८७
xxiv 1
कमलचन्द सोमाणी
[ चयनिका
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कार्वकालिक-चयनिका
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दशवैकालिक-चयनिका
1. धम्मो मंगलमुक्किटु अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो॥
2. जे य कंते पिए भोए लद्ध विप्पिट्टि कुवई ।
साहीणे चयई भोए से हु चाइ ति वुच्चई ॥
3. समाए पेहाए परिव्ययंतो,
सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महं नो वि अहं पि तीसे, इच्चेव तारो विणएज्ज रागं ॥
4. पायावयाही चय सोगुमल्लं,
कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिदाहि दोसं विणएज्ज रागं,
एवं सुही होहिसि संपराए। 21
[ दशवकालिक
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दकाकालिक-चयनिका
1. अहिंसा, संयम (और) तप धर्म (है) । (इससे ही) सर्वोच्च
कल्याण (होता है । जिसका मन सदा धर्म में (लीन है), उस (मनुष्य) को देव भी नमस्कार करते हैं ।
जो प्राप्त किए गए मनोहर और प्रिय.भोगों को पीठ करता है (दिखाता है) (तथा) स्व-अधीन भोगों को छोड़ता है, वही त्यागी है । इस प्रकार कहा जाता है।
3. (ऐसा होता है कि) राग-द्वप रहित चिन्तन में भ्रमण करता
हुमा मन कभी (सम अवस्था से) वाहर (विपमता में) चला जाता है । (उस समय व्यक्ति यह विचारे कि) वह (विषमता) मेरी नहीं (है), निश्चय ही मैं भी उसका नहीं (हूँ) । इस प्रकार उस (विषमता) से (वह) आसक्ति को हटावे।
(तू) (अपने को). तपा; अति-कोमलता को छोड़; इच्छाओं को वश में कर; (इससे) निश्चय ही दुःख पार किए गए (हैं) । (तू) द्वष को नष्ट कर; राग को हटा;
इस प्रकार तू संसार में सुखी होगा। -जयनिका ]
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5. कह चरे? कह चिट्ठ? कहमासे ? कहं सए ? ।
कहं भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ? ॥
6. जयं चरे जयं चिट्ठ जयमासे जयं सए।
जयं भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ॥
7. सव्वभूयऽप्पभूयस्स सम्म भूयाई पासो।
पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई ।।
8. पढमं नाणे तन्नो दया एवं चिट्ठइ सव्वसंजए।
अन्नाणी कि काही? कि वा नाहिइ छेय पावगं? ॥
9.. सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं । . उभयं पि जाणई सोच्चा जं छेयं तं समायरे ।
10. जो जीवे विन याणति अजीवे वि न याणति । : ।
जीवाऽजीवे प्रयाणंतो कह.सो नाहिइ संजमं? ।।।
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[ दशवकालिक
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5. (व्यक्ति) कैसे चले ? कैसे खड़ा रहे ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? किस प्रकार खाता हुआ और बोलता हुआ (नक्ति) शुभ कर्म को नहीं बांधता है ?
6. (व्यक्ति) जागरूकतापूर्वक चले, जागरूकतापूर्वक खड़ा रहे, जागरुकतापूर्वक बैठे, जागरुकतापूर्वक सोए (ऐसा रता हुना तथा ) जागरूकतापूर्वक भोजन करता हुआ (और) बोलता हुआ (व्यक्ति) अशुभ कर्म को नहीं बांधता है ।। 7. सब प्राणियों का ( सुख-दु:ख ) अपने समान ( होने) के करण ( जो व्यक्ति ) ( उन ) प्राणियों में (स्व-तुल्य श्रात्मा ) अच्छी तरह से दर्शन करने वाला (होता है), (वह) कि हुए ग्राव के कारण (तथा) ग्रात्म-नियन्त्रित होने के कारण अशुभ कर्म को नहीं बांधता है ।
1
8. सर्वप्रथम ( प्राणियों की आत्म-तुल्यता का ) ज्ञान ( करो ); वाद में ( ही ) ( उनके प्रति ) करुणा (होती है) । इस प्रकर प्रत्येक ( ही ) संयत (मनुष्य) श्राचरण करता है । (प्राणि की श्रात्म-तुल्यता के विषय में) अज्ञानी (व्यक्ति) क् - करेगा ? ( वह) हित (और) ग्रहित को कैसे जानेगा ? 9. (मनुष्य) मंगलप्रद को सुनकर समझता है; ( वह) अनिष्ट कर को ( भी ) सुनकर ( ही ) समझता है; ( वह ) दोन ( मंगलप्रद श्रीर अनिष्टकर) को भी सुनकर (ही) समझत है । ( इसलिए ) ( इन दोनों में से) जो मंगलप्रद ( है ), ( वह ) उसका श्राचरण करे ।
10. जो जीवों को भी नहीं समझता है, प्रजीवों को भी नही समझता है, वह जीवों और जीवों को नहीं समझता हुआ संयम को कैसे समझेगा ?
चयनिका ]
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11. जो जोवे वि वियाणति श्रजोवे वि वियाणति । जीवाऽजीवे वियाणंतो सो हु नाहिइ संजमं ॥
12 जया जीवमजीवे य दो वि एए वियाणई | तया गई बहुविहं सव्वजीवाण जाणई ॥
1.
4.
जया गई बहुविहं सव्वजीवाण जाणई । तया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं च जाणई ॥
जया पुण्णं च पावं च वंघं मोक्खं च जाणई । तया निव्विदए मोए जे दिव्वे जे य माणुसे |
15. जया निव्विदए भोए जे दिव्वे जे य माणुसे । तया चयइ संजोगं सव्भतरवाहिरं ॥
16. जया संवरमुक्कट्ठ धम्मं फासे प्रणुत्तरं । तया घुणइ कम्मरयं प्रवोहिकलसं कर्ड |
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17. जया घुणइ कम्मरयं श्रवोहिकलर्स कडे तया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिंगच्छई ॥
[ दशवैकालिक
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12.
11. जो जीवों का भी समझता है, अजीवों को भी समझता है,
(वह) जीवों और अजीवों को समझता हुआ संयम को निश्चय ही समझेगा। जव (कोई) जीव-समूह और अजीवों-इन दोनों को ही समझता है, तव (वह) सब जीवों की अनेक प्रकार की गति
को समझ लेता है। 13. जब (कोई) सब जीवों की अनेक प्रकार की गति को
समझता है, तव (वह) पुण्य और पाप को (तथा) बंध और मोक्ष को समझ लेता है। जव (कोई) पुण्य और पाप को (तथा) बंध और मोक्ष को समझता है, तव (वह) देव-सम्बन्धी तथा मनुष्य-सम्बन्धी भोगों को अच्छी तरह समझ लेता है । जब (कोई) देव-सम्वन्धी तथा मनुष्य-सम्वन्धी भोगों को अच्छी तरह समझ लेता है, तव (वह) (आत्म-भाव की ओर जाने के लिए) निज के (राग-द्वे पात्मक) भीतरी संयोग को
(और) (सांसारिक) बाह्य (संयोग) को छोड़ देता है । " 16. जव (कोई) उत्कृष्ट प्रात्म-नियन्त्रण (और) सर्वोत्तम
चरित्र का पालन करता है, तव (वह) धारण किए हुए अज्ञानरूपी मैल को (तथा) (धारण की हुई) कर्मरूपी धूल
को हटा देता है। 17. जव (कोई) धारण किए हुए अज्ञानरूपी मैल को (तथा)
(धारण की हुई) कर्मरूपी धूल को हटा देता है, तव (वह) सर्वव्यापी ज्ञान और दर्शन को प्राप्त कर लेता है ।
15.
चयनिका ]
[
7
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18. जया सव्वत्तगं नाणं दसरणं चामिगच्छई ।
तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली ।।
19. जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली ।
तया जोगे निरु भित्ता सेलेसि पडिवज्जई।
20. जया जोगे निकै भित्ता सेलेसि पडिवज्जई ।
तया कम्मं खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरनो।
21. तस्थिमं पढमं ठाणं महावीरेण देसियं ।
अहिंसा निउणा दिट्ठा सन्वभूएसु संजमो॥
22. जावंति लोए पाणा तसा अदुव थावरा ।
ते जाणमजाणं वा न हणे नो वि घायए।
23. सव्वजीवा वि इच्छंति जीविख्न मरिज्जिउं ।
तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं॥
24. अप्पणट्ठा परट्ठा वा कोहा वा जइ वा भया ।
हिसगं न मुसं बूया नो वि अन्नं वयावए।
8 ]
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[ दशवकालिक
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18. जब (कोई) सर्वव्यापी ज्ञान (और) दर्शन को प्राप्त कर
लेता है, तब (वह) महामानव सर्वज्ञ (हो जाता है) और '
(संपूर्ण) लोक-अलोक को जान लेता है। 19. जव (कोई) सर्वज्ञ महामानव लोक (और) अलोक को जान
लेता है, तव (वह) योगों (मन-वचन-काय की क्रियाओं) का निरोध करके निश्चल साम्यावस्था प्राप्त कर लेता है । जव (कोई) योगों (मन-वचन-काय की क्रियाओं) का निरोध करके निश्चल साम्यावस्था को प्राप्त कर लेता है, तव (वह) शुद्ध (आत्मा) (शेप) कर्म (समूह) को नष्ट करके सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। वहाँ पर (व्रतों आदि में) (अहिंसा का) यह सर्वप्रथम स्थान महावीर के द्वारा उपदिष्ट (है)। (महावीर के द्वारा) अहिंसा सूक्ष्म रूप से जानी गई है। (उसका सार है)-सब प्राणियों के प्रति करुणाभाव ।
21.
22. लोक में जितने भी प्राणी (है) : त्रस अथवा स्थावर (कोई
भी) जानते हुए या (प्रमाद से) न जानते हुए उनको न
मारे, न ही मरवाए। 23. सव ही जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरने की नहीं; __ इसलिए संयत (व्यक्ति) उस पीड़ादायक प्राणवध का परि
त्याग करते हैं। 24. (मनुष्य) निज के लिए या दूसरे के लिए क्रोध से या भले
ही भय से पीड़ा कारक (वचन) (और) असत्य (वचन)
(स्वयं) न वोले, न ही दूसरे से बुलवाए। चयनिका ]
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25. मुसावाओ य लोगम्मि सवसाहूहि गरहियो ।
अविस्सासो य भूयाणं तम्हा मोसं विवज्जए ।
26. चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं ।
दंतसोहणमेत्तं पि प्रोग्गहं सि अज़ाइया ।
27. न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा ।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इइ वृत्तं महेसिणा॥
28. परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए
चउक्कसायावगए अणिस्सिए । स निद्धरणे धुण्णमलं पुरेकर्ड
पाराहए लोगमिणं तहा परं ॥
29. न बाहिरं परिभवे अत्ताणं न समुक्कसे ।
सुयलामे न मज्जेज्जा जच्चा तवसि बुद्धिए ॥
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[ दशवकालिक
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25. निस्संदेह जगत में झूठ बोलना सब साधुओं (पवित्रात्माओं)
द्वारा निन्दित (है) । (झूठ बोलने से) मनुष्यों में (झूठ बोलने वाले के प्रति) बिल्कुल भरोसा नहीं (रहता है)। इसलिए (व्यक्ति) झूठ बोलने को छोड़े। बहुत या भले ही थोड़ी सचित्त या अचित्त (दूसरों की) (वस्तु) को (तथा) दाँत स्वच्छ करने वाली (सींक) के बराबर भी (अन्य की) (वस्तु) को बिना मांगकर (तू) (यदि) लेने में (तत्पर) है, (तो अनुचित है)।
26.
27. (प्राणियों के) उपकारी महावीर के द्वारा वह (संयम और .
लज्जा की रक्षा. के लिए आवश्यक) (वस्तु) परिग्रह नहीं कही गई (है) । मूर्छा परिग्रह कही गई (है)। इस प्रकार (यह) महर्षि, (महावीर) द्वारा कहा गया है ।
28. (जो) सोच-समझकर बोलने वाला (है), (जिसका) इन्द्रिय
- समूह अत्यन्त शान्त (है), (जिसके द्वारा) चारों कषाएँ नष्ट कर दी गई (हैं), (जो) आसक्ति-रहित (है), वह पूर्व में किए हुए पाप रूपी मैल को, दूर कर देता है, (और) (इस तरह से) (वह) इस लोक और पर (लोक) की भक्ति करता है अर्थात् अपने इस लोक और परलोकं को सुधारता है।
29.
(व्यक्ति) बाह्य (दूसरे) का तिरस्कार न करे, अपने को ऊँचा न दिखाए, ज्ञान का लाभ होने पर गर्व न करे, (तथा) जाति का, तपस्वी (होने) का (और) बुद्धि का (गर्व न करें)।
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30. से जाणमजाणं वा कट्ट, आहम्मियं पयं ।
संवरे खिप्पमप्पाणं वीयं तं न समायरे ।।
31. अणायारं परक्कम्म नेव गृहे, न निण्हवे ।
सुई सया वियडभावे असंसत्ते जिइंदिए ।
32. अमोहं क्यणं कुज्जा पायरियस्स महप्पणो ।
तं परिगिझ वायाए कम्मुणा उववायए ।
33. अधुवं जीवियं नच्चा सिद्धिमग्गं वियाणिया ।
विणियमुज्ज भोगेसु, पाउं परिमियमप्पणो ।।
34. जरा जाव न पोलेई वाही जाव न वड्ढई ।
जाविदिया न हायंति ताव धम्म समायरे ॥
35. कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववड्ढणं ।
बमे चत्तारि दोसे उ इच्छंतो हियमप्पणो ।
36. कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो ।
माया मित्ताणि नासेड. लोभो सम्वविणासणो ।
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30. ज्ञानपूर्वक अथवा अज्ञानपूर्वक अनुचित कर्म को करके (व्यक्ति) अपने को तुरन्त रोके (और फिर ) वह उसको दूसरी बार न करे ।
31. दुराचरण का सेवन करके (मनुष्य) ( उसको) कभी न छिपाए (तथा) न (ही) (उसको) मना करे । ( वह) सदा पवित्र (वने), प्रकट मनःस्थिति में ( रहे), अनासक्त (तथा) जितेन्द्रिए (होवे ) ।
32. (व्यक्ति या समाज) महान् ग्रात्मा, ग्राचार्य के वचन को सफल करे । उस वचन को स्वीकार करके कार्य द्वारा ( उसका ) सम्पादन करे |
33. (व्यक्ति) जोवन को ग्रनित्य जानकर निज की आयु को सीमित ( जाने ) । ग्रतः सिद्धि-मार्ग को समझकर ( वह ) भोगों से निवृत्त होवे ।
34.
35.
जव तक (किसी को) वुढ़ापा नहीं सताता है. जब तक (किसी को) रोग नहीं बढ़ता है, जब तक ( किसी की ) इन्द्रियां क्षीण नहीं होती है, तब तक ( उसको) धर्म (आध्यात्मिकता) का आचरण कर लेना चाहिए ।
आत्मा के हित को चाहता हुआ (मनुष्य) पाप को बढ़ाने वाले (इन) चार दोषों को क्रोध और मान को, माया और लोभ को - निश्चय ही बाहर निकाले ।
36. क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, श्रहंकार विनय का नाशक (होता है), कपट मित्रों को दूर हटाता है, (और) लोभ सव ( गुणों का) विनाशक (होता है) ।
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37. उसमेण हणे कोहं, माणं मददया जिणे।
मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसनो जिणे ।।
38. कोहो य माणो य अणिग्गहीया
माया य लोभो य पवढमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया
सिंचंति मूलाई पुरणन्मवस्स ।।
39. राइणिएसु विणयं पउंजे
धुवसीलयं सययं न हावएज्जा । कुम्मो व्व अल्लीण-पलीणगुत्तो
परक्कमेज्जा तव-संजमम्मि । 40. निहं च न बहुमन्नेज्जा, सप्पहासं विवज्जए ।
मिहोकहाहि न रमे, सन्झायम्मि रो सया ॥
41. इहलोग-पारत्तहियं जेणं गच्छइ सोग्गई।
बहुसुयं पज्जुवासेज्जा, पुच्छेज्जत्थविणिच्छयं ।।
42. अप्पत्तियं जेण सिपा, आसु कुप्पेज्ज वा परो ।
सम्वसो तं न भासेज्जा भासं अहियगामिणि ॥
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37. क्षमा से क्रोध को नष्ट करे, विनय से मान को जीते, सरलता
मे कपट को तथा संतोष से लोभ को जीते ।
38.
क्रोध और मान, माया और लोभ-ये चार अनिष्टकर कषाएँ, (जो) जन्म-जात (हैं) (और) (वर्तमान जीवन में) बढ़ती हुई (हैं). पुनर्जन्म के आधारों को सींचती हैं।
39.
(व्यक्ति) संयमियों के प्रति विनय करे, अचल (आत्म)स्वभाव का सदा (कभी भी) तिरस्कार न करे, तप (और) संयम में प्रवृत्ति करे (तथा) कछुवे की तरह (स्व में) (कभी)
थोड़ा लीन (और) (कभी) अति लीन प्रवृत्तिवाला (बने)। 46. (संयमी मनुष्य) निद्रा का अत्यधिक आदर विल्कुल त करे,
हंसी-ठट्ठ को छोड़े । गुप्त रूप से (भी) (अशुभ) कथाओं में न टिके । स्वाध्याय में सदा लीन (रहे)।
41.
जिसके द्वारा इस लोक में (व्यक्ति का) पारलौकिक कल्याण (होता है) (तथा) (वह) (यहाँ) अच्छी अवस्था प्राप्त करता है, (उसको जानने के लिए) (व्यक्ति) (मूल्यों के) . विद्वान् (साधक) का आश्रय ले (तथा) (उससे) (हित) साधन के परिज्ञान की पूछताछ करे ।
42.
जिससे मानसिक पीड़ा हो और दूसरा शीघ्र क्रोध करने लगे, उस अहित करने वाली भाषा को (व्यक्ति) बिल्कुल न वोले।
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43. दिट्ठ मियं श्रसंदिद्ध पडिदुष्णं वियं जियं । पिर- मणुविग्गं भासं निसिर अत्तयं ॥
44. विसएस मणुष्णेसु पेमं नाभिनिवेसए ।
45. योग्गलाण परीणामं तेसि णच्चा जहा तहा । विणीयतहो विहरे सोईभूएण अप्पणा ||
afणच्चं तेसि विष्णाय परिणामं पोग्गलाण य ॥
46. जाए सद्धाए निक्वंतो परियायद्वाणमुत्तमं । तमेव श्रणुपालेज्जा गुणे श्रायरियम्मए ॥
47. तवं चिमं संजमजोगयं च
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16 ]
सज्झायजोगं च सया श्रहिए । सूरे व सेणाए समत्तमाउहे
श्रलमप्पणी होइ श्रलं परेसि ||
सज्झाय-सज्झाणरयस्स ताइणो
पावभास् तवे रयस्स । विसुज्भई जं से मलं पुरेकर्ड समीरियं रूप्पमलं व जोइणा ॥
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46.
43. हे पात्मवान् ! (तू) नपी-तुली, निश्चित, अखण्ड, व्यक्त'
(स्पष्ट), परिचित', वाचालता-रहित खेद-रहित, (तथा) देखी
गई (वात) को (प्रकट करने वाली) भापा को वोल । 44. (इन्द्रियादि विपयों के) उन पुद्गलों के परिवर्तन को निस्संदेह
अनित्य जानकर, (व्यक्ति) मनोज्ञ विषयों में आसक्ति को न बैठाए। उन पुद्गलों के परिणमन को जैसा (है), वैसा जानकर (व्यक्ति) (जिसके द्वारा) लालसा दूर की गई (है), ठंडी (तनाव-मुक्त) हुई आत्मा में रहे । जिस श्रद्धा से (कोई) (आत्म)-गुणों की सर्वोच्च प्राप्ति के लिए (घर से) वाहर निकला (है), उस ही (श्रद्धा) का (तथा) प्राचार्य के द्वारा स्वीकृत गुणों का (वह) रक्षण
करें। 47. (जो) सदा संयम में चेप्टा करता है, (सदा) स्वाध्याय में
चेप्टा (करता है) तथा (सदा) इस (उपदिष्ट) तप को (करता है), (वह) निज (के विकास के लिए समर्थ होता है (तथा) दूसरों (के विकास) के लिए (भी) समर्थ होता है जैसे कि (शत्रु की) सेना से (घिरा हुआ) (वह) वीर, (जिसके द्वारा) समस्त हथियार (इकट्ठे किए हुए हैं),
(निज की व दूसरों की रक्षा के लिए समर्थ होता है)। . 48. स्वाध्याय पीर सद्-ध्यान में लीन (व्यक्ति) का, उपकारी
का, निप्पाप मन (वाले) का, तप में लीन (व्यक्ति) काइन सबका पूर्व में किया हुआ जो भी दोष (है), (वह) शुद्ध हो जाता है, जैसे कि अग्नि के द्वारा झकझोरे हुए सोने का मैल (शुद्ध हो जाता है)। व्याकरणिक विश्लेषण देखें । दसवेयालिय (सं. मुनि नथमल पृ.411)
चयनिका ]
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49. थंभा व कोहा व मय-प्पमाया
गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे । सो चेव ऊ तस्स अभूइभावो
फलं व कोयस वहाय होइ।।
50. जे यावि मंदे त्ति गुरु विहत्ता .
डहरे इमे अप्पसुए ति नच्चा । होलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा
फरेंति प्रासायण ते गुरूणं ॥
51. जो पावगं जलियमवक्कमेज्जा
पासीविसं वा विहु कोवएज्जा । जो वा विसं खायइ जीवियट्ठी
एसोवमाऽऽसायणया गुरुणं ।।..
52. सिया हु से पावय नो डहेज्जा . . आसीविसो वा कुविमो न भक्खे । सिया विसं हालहलं न मारे ।
न यावि मोक्खो गुल्हीलणाए । 18 ]
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49. (जो) अहंकार के कारण, क्रोध के कारण तथा कपट (और)
प्रमाद (मूर्छा) के कारण गुरु के समीप में भी (यदि) सच्चरित्र को नहीं सीखता है, (तो), जानो, वह (बात) उसके लिए ही दुर्भाग्य की अवस्था (है), जैसे कि बांस का फल (उसी की) समाप्ति के लिए होता है।
50. जो (लोग) भी (आध्यात्मिक) गुरु को ऐसा जानकर (कि)
(ये) (शब्द अभिव्यक्ति में) धीमें हैं, (ये) (उम्र में) छोटे (हैं) तथा (उनको) इस प्रकार जानकर (कि) ये अल्पज्ञानी (हैं), (उनके वचन को) असत्य स्वीकार करते हुए (उनकी) अवज्ञा करते हैं, वे (अध्यात्मिक) गुरु का अपमान करते हैं।
51.
जो (कोई) जली हुई अग्नि को छलांगता है अथवा जहरीले सांप को कुपित करता है अथवा जो (कोई) जीवन का इच्छुक (व्यक्ति) विष को खाता है (तो) उसका (अहित ही होता है) । (इसी प्रकार) (आध्यात्मिक) गुरु का अपमान करने में (भी) यह समानता है अर्थात् गुरु का अपमान करने में भी अहित ही होता है।
52.
संभव (है) (कि) अग्नि न जलाए अथवा कुपित जहरीला सांप न खाए । संभव (है) (कि) समुद्र-मंथन से प्राप्त घातक विष अथवा) सामान्य विष न मारे, किन्तु (आध्यात्मिक) गुरु की अवज्ञा से परम-शान्ति (संभव) ही नहीं (है)।
चयनिका ]
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53. जो पन्वयं सिरसा भेत्तुमिच्छे
सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा । जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं
एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ।।
54. सिया हु सीसेण गिरि पि मिदे
सिया हु सीहो कुविमो न भक्खे । सिया न भिदेज्ज व सत्तिअग्गं
न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ।।
55. पायरियपाया पुण अप्पसन्ना
अबोहि पासायण नस्थि मोक्खो । तम्हा प्राणाबाहसुहाभिकंखी
गुरुप्पसायाभिमुहो रमज्जा ।।
56. जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे
तस्संतिए वेणइयं पजे । सक्कारए सिरसा पंजलीयो
काय गिरा भो ! मणसा य निच्चं ॥
57. लज्जा, दया संजम बंभचेरं
___ कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं । जे मे गुरू सययमणुसासयंति
ते हं गुरू सययं पूययामि ॥
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53. जो (कोई) सिर से पर्वत को भेदने की इच्छा करता है,
अथवा सोए हुए सिंह को जगाता है अथवा जो (कोई) भाले की नोक पर प्रहार देता है, (तो) (उसका अहित ही होता है) । गुरु का अपमान करने में (भी) यहस मानता है अर्थात् गुरु का अपमान करने में भी अहि ही होता है ।
54. संभव (है) (कि) (कोई) सिर से पर्वत को भी भेद दे, संभव
(है) (कि) (किसी को) कुपित सिंह न खाए, संभव (है) (कि) (किसी को) भाले की नोक भी न भेदे, (किन्तु) (आध्यात्मिक) गुरु की अवज्ञा करने से शान्ति (संभव) ही नहीं (है)।
55. (यदि) आचार्य (गुरु) अप्रसन्न होते हैं) (तो) (व्यक्ति के
लिए) ज्ञान का अभाव (होता है), (और) (यदि) (उनकी) अवज्ञा (होती है), (तो) (व्यक्ति के लिए) शान्ति (संभव) नहीं (होती है), इसलिए दुःख रहित सुख का इच्छुक
(व्यक्ति) गुरु-प्रसाद (कृपा) के लिए उद्यत रहे । 56. जिसके पास (मनुप्य) धर्म (अध्यात्म) की बातों को सीखे,
उसके समीप में विनम्रता रखे । ओ ! (इसलिए) (तू) सिर से, जोड़े हुए हाथों से, शरीर से, वाणी से तथा मन से सदा (उनका) सम्मान कर (जिनसे तू अध्यात्म की बातों
को सीखता है)। 57. कल्याण से सम्बन्धित (व्यक्ति) के लिए विनय, दया, संयम
तथा ब्रह्मचर्य (अपनी) विशुद्धि के कारण हैं) । जो गुरु मुझे सदैव (उनका) अभ्यास कराते हैं, उन गुरु को मैं सदैव
पूजता हूँ। चयनिका ।
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58. जहा निसते तवणऽच्चिमाली
पभासई केवल भारहं तु । एवायरिओ सुय-सोल-बुद्धिए
विरायई सुरमझे व इंदो।
59. जहा ससी कोमुइजोगजुत्ते
नक्खत्त-तारागणपरिवुडप्पा । खे सोहई विमले अन्भमुक्के
एवं गरणी सोहइ भिक्खुमझे।
60 महागरा प्रायरिया महेसी
समाहिजोगे सुय-सील-बुद्धिए । संपाविउकामे अणुत्तराई
पाराहए तोसए धम्मकामी।
61. मूलाओ खंधप्पभवो दुमस्स
खंधाओ पच्छा समुर्वेति साला । साह प्पसाहा विरहंति पत्ता
तो से पुष्पं च फलं रसोय ॥
62. एवं-धम्मस्स विणो मूलं, परमो से मोक्खो ।
जेण कित्ति सुयं सग्धं निस्सेसंचाभिगच्छई ।
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58. जैसा प्रभात में ज्योति से शोभने वाला सूर्य सम्पूर्ण भारत को
प्रकाशित करता है, वैसे ही श्रुत-ज्ञान, चारित्र और विवेक से (शोभने वाले) आचार्य (सवको प्रकाशित करते हैं) और जैसे देवताओं के मध्य में इन्द्र (शोभता है) वैसे ही (साधुओं के मध्य में) (आचार्य) शोभते हैं । जैसे बादलों से रहित निर्मल आकाश में चाँदनी के सम्बन्धसहित चन्द्रमा (पूर्णिमा-चन्द्र) शोभित होता है (और) नक्षत्र (तथा) तारों के समूह से घिरा हुआ सूर्य (शोभित होता है), वैसे ही साधुनों के मध्य में प्राचार्य शोभित
होते हैं। 60. . (जो) आचार्य श्रेष्ठ (मूल्यों) की खोज करने वाले हैं), श्रेष्ठ
(गुणों की) खान (हैं), (तथा) (जो) श्रुत-ज्ञान, चारित्र
और विवेक के द्वारा समाधि (समत्व) की प्राप्ति में (लीन हैं), (उनकी) धर्म (अध्यात्म) प्रेमी (तथा) सर्वोत्तम (गुणों) को प्राप्त करने का इच्छुक (व्यक्ति) सेवा करे
(और) (उनको) सन्तुष्ट करे । 61. पेड़ की जड़ से तना उत्पन्न (होता है), बाद में, तने से
शाखाएँ प्राप्त होती (उपजती) हैं। शाखाओं से शाखाएँ फूटती हैं उसके बाद में पत्ते और फूल (होते हैं) (और फिर) फल और रस (होता है)।
62.
इसी प्रकार धर्म का मूल विनय (है), उसका अन्तिम (परिणाम) परम-शान्ति (है) । जिससे (विनय से) व्यक्ति कीति, प्रशंसनीय ज्ञान और समस्त (गुण) प्राप्त करता हैं।
चयनिका ]
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63. जे य चंडे मिए थद्ध दुव्वाई नियडीसढे ।
वुन्मई से अविणीयप्पा कट्ठ सोयगयं जहा ।।
64. विणयं पि जो उवाएण चोइसो कुप्पई नरो।
दिव्वं सो सिरिमेजति दंडेण पडिसेहए ॥
65. तहेव प्रविणोयप्पा उववज्झा हया गया।
दीसंति दुहमेहंता ग्रामिनोगमुवट्ठिया ।"
66. तहेव सुविणीयप्पा उववज्झा हया गया। ___ दीसंति सुहमेहता इड्ढि पत्ता महायसा ।।
67. तहेव सुविणोयप्पा लोगसि नर-नारियो । ___दोसंति सुहमेहंता इंड्ढि पत्ता महायसा ॥
68. जे पायरिय-उवज्झायाणं सुस्सूसावयणंकरा।
तेसि सिक्खा पवड्दति जलसित्ता इव पायवा ।।
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63. जो प्रतिक्रोधी, अज्ञानी, अभिमानी, अप्रिय बोलनेवाला, कपटी और धूर्त (होता है), वह अविनीत मनुष्य (दुःखरुपी जल के द्वारा) बहा कर लेजाया जाता है, जैसे जल-प्रवाह के द्वारा ( वहा कर) लेजाया गया काठ (होता है) ।
64. विनय में युक्ति के द्वारा भी प्रेरित जो मनुष्य क्रोध करता है, वह तो हुई दिव्य संपत्ति को डंडे से रोक देता है ।
65.
66.
( जिस प्रकार ) राजकीय वाहन के रूप में काम आनेवाले (उदण्ड ) हाथी (श्रीर) घोड़े दु.ख में बढ़ते हुए देखे जाते हैं, उसी प्रकार ( किसी भी प्रकार के ) प्रयास में लगे हुए अविनीत मनुष्य ( भी ) ( दुःख में बढ़ते हुए देखे जाते हैं) ।
( जिस प्रकार ) राजकीय वाहन के रूप में काम आनेवाले (सुशील) हाथी (और) घोड़े सुख में बढ़ते हुए देखे जाते हैं, उसी प्रकार विनीत मनुष्यों ने महान यश के कारण वैभव प्राप्त किया ।
67. ( जिस प्रकार ) लोक में (सुशील) नर-नारियाँ सुख मे बढ़ती हुई देखी जाती हैं, उसी प्रकार विनीत मनुष्यों ने महान यश के कारण वैभव प्राप्त किया ।
68. जो प्राचार्य और उपाध्याय की सेवा (करने वाले हैं) (तथा) (उनके) प्रादेश का पालन करने वाले ( हैं ), उनके ज्ञान और सदाचरण बढ़ते हैं, जैसे कि जल से सींचे हुए वृक्ष ( बढ़ते हैं) ।
चयनिका ]
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69. दुग्गो वा परोएणं चोइओ वहई रहं ।
एवं दुन्बुद्धि किच्चाणं वुत्तो वुत्तो पफुबई ॥
70. विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणियस्स य ।
जस्सेयं दुहरो नायं सिक्खं से अभिगच्छई।
71. जे यावि चंडे मइइड्ढिगारवे
पिसुणे नरे साहस होणपेसणे । अदिदुधम्मे विणए अकोविए
असंविभागी न हु तस्स मोक्खो ॥
72. निद्दे सवत्ती पुण जे गुरूणं
सुयत्थधम्मा विणयम्मि कोविया । तरितु ते पोहमिणं दुरुत्तरं
खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गय ।।
73. पायारमहा विणयं पउंजे
सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं । जहोवइट्ठ अभिकखमाणो
गुरु तु नाऽऽसाययई, स पुज्जो॥
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39. जैसे अंकुश के द्वारा प्रेरित दुष्ट हाथी रथ को आगे चलाता है,
इसी प्रकार दुर्बुद्धि (शिष्य) कर्तव्यों को कहा हुआ, कहा हुआ
(ही) करता है। 70. अविनीत के (जीवन में) अनर्थ (होता है) और विनीत के
(जीवन में) समृद्धि (होती है), जिसके द्वारा यह दोनों प्रकार से जाना हुया (है), वह (जीवन में) विनय को ग्रहण
करता है। 71. जो भी (कोई) मनुप्य अति क्रोधी (है), चुगलखोर (है),
उतावला है, (जिसके) बुद्धि (और) वैभव का अहंकार (है), (जिसका) प्रयोजन निन्दनीय (है), (जिसके द्वारा) धर्म नहीं समझा गया (है), (जो) विनय में निपुण नहीं (है), (जो) (यश यादि को) वांटनेवाला नहीं (है), उसके लिए निश्चय ही परम शान्ति नहीं (है) ।
72. इसके विपरीत जो (आध्यात्मिक) गुरु की आज्ञा में स्थित
(हैं), (जो) विनय में निपुण (हैं), (जिनके द्वारा) धर्म (कर्तव्य) और परमार्थ सुने हुए (हैं), वे कर्म-समूह को नष्ट करके (तथा) इस दुस्तर (कठिनाई से पार किए जाने वाले) संसार को पार करके सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त हुए हैं।
13.
(जो) प्राचार को (ग्रहण करने के लिए विनय को संपन्न करता है, जैसा कि (गुरु के द्वारा) कहा गया है (उसको) चाहते हुए (उसके) कथन को ग्रहण करके तथा (गुरु की) सेवा में उपस्थित रहते हुए (आध्यात्मिक) गुरु की अवजा
नहीं करता है, वह पूज्य (है)। चयनिका ।
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74. सक्का सहेडं आसाए कंटया
प्रमोमया उच्छहया नरेणं । प्रणासए जो उ सहेज्ज कंटए
वईमए कण्णसरे, स पुज्जो ॥
75. मुहत्तदुक्खा हु हवंति कंटया
अप्रोमया, ते वि तमो सुउद्धरा । वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि
वेराणुबंधीणि महन्भयाणि ॥
76. समावयंता वयणाभिघाया
कणंगया दुम्मणियं जणंति । धम्मो ति किच्चा परमग्गसूरे
जिईदिए जो सहई, स पुज्जो ॥
77.
प्रवण्णवायं च परम्मुहस्स
पच्चक्खनो पडिणीयं च भासं । पोहारिणि अप्पियकारिणि च
भासं न भासेज्ज सया, स पुज्जो ॥
28 ]
[ दशवकालिक
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74.
मनुष्य के द्वारा (धन आदि की) आशा से (उत्पन्न) उमंग के कारण लोहे से बने हुए कांटे सहे जाना संभव (है), किन्तु जो (किसी) आशा के बिना कानों के लिए बाण (स्वरूप) काँटों (वचनों) को सहता है, वह पूज्य (है)।
75. लोहे से बने हुए काँटे (शरीर में लगने पर) थोड़ी देर के
लिए ही दुःखमय होते हैं तथा वे बाद में (शरीर से) आसानी से निकाले जा सकने वाले (होते हैं), (किन्तु) वाणी के द्वारा (बोले गए) दुर्वचन (जो काँटों के तुल्य होते हैं) कठिनाई से निकाले जा सकने वाले (कठिनाई से भुलाए जा सकने वाले) (होते हैं), (३) वैर को बाँधने वाले (तथा)
महा भय पैदा करने वाले (होते हैं)। 76. घटित होते हुए वचनों के प्रहार (जो) (किसी के) कानों में
पहुँचे हुए (होते हैं), (वे) (उनमें) मानसिक पीड़ा उत्पन्न करते हैं, (किन्तु) सर्वोत्तम लक्ष्य में पराक्रमी (तथा) जितेन्द्रिए (व्यक्ति) जो (उनको), इस प्रकार समझकर (कि) (यह) (मेरा) कर्तव्य (है), सहता है, वह पूज्य है ।
77.
(जो) विरोधी (व्यक्ति) के लिए भी निन्दा के वचन नहीं बोलता है, सार्वजनिक रुप से (किसी के लिए भी) विद्वेषी बात बिल्कुल (नहीं कहता है), (संदिग्ध के विषय में) निश्चयात्मक वचन (नहीं कहता है) और अप्रीति उत्पन्न
करने वाली भाषा (नहीं बोलता है), वह सदा पूज्य (है) । चयनिका 1
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78. अलोलुए श्रक्कुहए श्रमायी
श्रपिणे यावि श्रदीणवितो । नो भावए नो विय भावियप्पा
श्रको उहले य सया, स पुज्जो ॥
79. गुणह साहू, गेव्हा हि
अगुणेहऽसाहू साहूगुण, सुचसाहू | अप्पगमप्पएणं
जो राग-दोसेहि समो, स पुज्जो ॥
वियाणिया
80. तहेव डहरं व महत्लगं वा
30.]
इत्थी पुमं पव्वइयं गिहि वा । नो हीलए नो वि य खिसएज्जा
थंभं च कोहं च चए, स पुज्जो ॥
81. चिणए १ सुए २ तवे ३ य आधारे ४ निच्चं पंडिया । श्रभिरामयंति श्रप्पाणं जे भवंति जिइंदिया ||
82. पेहेइ हियाणुसासनं १
सुस्सूसई २ तं च पुणो अट्टिए ३ ।
न यमाणमएण मंज्जई ४
farयसमाही आयट्टिए १ ॥
[ दशवैकालिक
}
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73. (जो) चटोरा नहीं (है), नजरबंदी के काम करने वाला
नहीं (है), (जो) निष्कपट (है), (जो) चुगुली खानेवाला नहीं (है) तथा (जिसका) व्यवहार दोनता-रहित (है), (जो) (स्वयं का) प्रदर्शन नहीं करता है और (जो) कभी नहीं (चाहता है) (कि) (वह) (दूसरों के द्वारा) प्रदर्शित व्यक्ति (होवे), और (जो) (कभी) मजाक नहीं (करता है),
वह सदा पूज्य (होता है)। 79. (व्यक्ति) सुगुणों के कारण साधु (होता है), (और) दुर्गुण
समूह के कारण ही असाधु । (अतः) (तुम) साधु (बनने) के लिए सुगुणों को ग्रहण करो (और) (उन दुर्गुणों को) छोड़ो (जिनके कारण) (व्यक्ति) असाधु (होता है) । (समझों) जो (व्यक्ति) प्रात्मा को आत्मा के द्वारा जानकर राग-द्वेष
में समान (होता है), वह पूज्य (है)। 80. (जो) साधु की अथवा गृहस्थ की, उसी प्रकार (जो) वालक
की अथवा बड़े की, स्त्री की अथवा पुरुप की (स्वयं) निन्दा नहीं करता है तथा (दूसरों से) कभी निन्दा नहीं करवाता है
एवं (जो) अहंकार और क्रोध को छोड़ देता है, वह पूज्य है । 81. जो इन्द्रिय-विजयी होते हैं, (वे) बुद्धिमान (व्यक्ति) सदा अपने
को विनय, श्रुत, तप और आचार में तत्परता से लगाते हैं । (जो) मोक्ष (परम शान्ति) का इच्छुक (व्यक्ति) (है) (वह) हितकारी शिक्षण को चाहता है, उसको सनता है और फिर (उसका) अभ्यास करता है तथा जो) किमाभी सहकाररुपी मादकता से पागल नहीं होता है, (उसके अनुवैत में)
विनय-साधना (होती है । परिपहरण संख्या • चयनिका ]
[31
.
....
.
...
..
..
.
...
..
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83. नाणमेगग्ग चित्तो १-२ य ठिश्रो ३ ठावयई परं ४ सुयाणि य अहिज्जित्ता रम्रो सुयसमाहिए २ ॥
84. विविहगुणतवोरए य निच्चं
भवइ निरासए निज्जरट्ठिए । तवसा घुणइ पुराणपावगं जुत्तो सया तवसमाहिए |
85. जिणवयणरए श्रतितिणे पडिपुण्णाययमाययट्ठिए
प्रायारसमाहिसंवडे
32 1
भवइ य दंते भावसंधए ||
86. अभिगम चउरो समाहिश्रो - सुविसुद्धो विजल हियसुहावहं कुव्वइ सो
1
P
सुसमाहियत्पश्रो । पुणो पयखेममध्पणो ॥
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83. (जो) (व्यक्ति) (नैतिक-आध्यात्मिक) ग्रन्थों का अध्ययन
करके श्रुत-साधना में संलग्न (होता है), (वह) (मूल्यात्मक) जान को (प्राप्त करता है), तथा एकाग्रचित्त वाला (होता है)। (और) (वह) (स्वयं) (मूल्यों में) जमा हुआ (रहता है) (और) दूसरे को भी (मूल्यों में) जमाता है ।
84.
(जो) कर्म-क्षय का इच्छुक (व्यक्ति) (है), (वह) सदा अनेक प्रकार के शुभ परिणामों को (उत्पन्न करने वाले) तप में लीन (रहता है) तथा वह (संसारो फल की) आशा से शून्य होता है। (इस तरह से) (जो) तप-साधना में सदा संलग्न (रहता है), वह तप के द्वारा पुराने पापों को नष्ट कर देता है।
85. .(जो) जिन-वचन में लीन है, (जो) बड़बड़ करने वाला
नहीं (है), (जो) आत्मा में (आत्मा के साथ) सन्तुष्ट है, (जो) मोक्ष (परम-शान्ति) का इच्छुक (है), (जो) जितेन्द्रिय (है), (जो) (अपने को) (आत्म)-स्वभाव से जोड़ने वाला (है), (वह) आचार-साधना से युक्त होता है ।
86. (जो) चारों समाधियों (साधनाओं) को (गुरु के) उपदेश से'
(ग्रहण करता है), (वह) मनुष्य विशुद्ध एवं प्रशान्त (हो जाता है) तथा वह (इसके फलस्वरुप) प्रचुर हित (एवं) सुख-जनक कल्याण को अपने लिए प्राप्त करता है।
चयनिका ]
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87. सम्मदिट्ठी सया अमूढे
अस्थि हु नाणे तवे य संजमे य : तवसा धुणई .पुराणपावगं
मण-वय-कायसुसंवुडे जे, स भिक्खू ।।
88. न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा
न य कुप्पे निहुइदिए पसंते । । संजमधुवजोगजुत्ते
उवसंते अविहेडए जे, स भिक्खू ॥
89. हत्थसंजए
पायसंजए वायसंजए संजईदिए । अझप्परए सुसमाहियप्पा
सुत्तत्थं च वियाणई जे, स भिक्खू ॥
90. अलोलो भिक्खू न रसेसु गिद्धे
उंछ चरे जीविय नाभिकंखे । इट्टि च सकारण पूयणं च
चए ठियप्पा अणिहे जे, स भिक्खू ।।
34 ]
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87. जो सम्यक् दृष्टिवाला (अध्यात्म-दृष्टिवाला) (है), सदा
व्याकुलता रहित (है), ज्ञान, तप और संयम में ही (स्थित) है, तप से पुराने पाप-(समूह) को नष्ट करता है, (तथा) मनवचन-काय में पूरी तरह संवर-युक्त (पाप प्रवृत्ति रहित) है, वह साधु (होता है)।
88. जो कलह-संबंधी बात विल्कुल नहीं कहता है, (जो) क्रोध
विल्कुल नहीं करता है, (जिसकी) इन्द्रिय-(समूह) शान्त (है), (जो) स्वस्थचित्त (है), (जो) संयम में निश्चल प्रवृत्ति सहित (है), (जो) (आत्म)-सन्तुष्ट (है), (जो) (गुणी का) आदर करने वाला (है), वह साधु (पवित्रात्मा) है।
89. (जिसके) हाथ संयमित (हैं), पैर संयमित (हैं), (जिसकी)
वाणी संयमित (है), (जिसका) इन्द्रिय-(समूह) संयमित है, (और) जो मनुष्य पूरी तरह से शान्त (है), (जो) अध्यात्म में लीन (है), तथा (जो) सूत्र के अर्थ को जानता है, वह साधु (है)।
90. (जो) (मनुष्य) अचंचल (होता है), (जो) रसों में आसक्त
नहीं (होता है), (जो) भिक्षा के लिए जाता है (तथा) (जो) (असंयमित) जीवन को नहीं चाहता है (वह) साधु (होता है) । तथा जो (योग से प्राप्त) वैभव की, (अपने) सत्कार एवं सम्मान की उपेक्षा करता है, (जो) स्थितबुद्धि (है)
और धीर (है), (वह) साधु (होता है)। चयनिका ]
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________________
91. न परं वएन्जासि 'अयं कुसोले'
लेणऽन्नो कुप्पेज्न न तं वएज्जा। नाणिय पत्तय पुण्ण-पावं
अत्ताणं न समुक्कसे जे, स भिक्खू ॥
92. न नाइमत्ते न य स्वमत्त
न लाभनत्त न सुएण मत्त । मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता
धम्मज्माणरए य जे, स मिक्खू ।।
93. तं देहवासं असुई असासयं
सया चए निच्चहियद्रियप्पा । छिदित्त जाई-मरणल्स बंधणं
उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई ।। 94. लया य चयई धम्म अणज्जो भोगकारणा।
ये तत्य मुच्छिए वाले प्रायइं नाववन्झई ।।
95. इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती
दुन्नामधेन्जं च पिहृज्नम्मि । . न्यस्त धम्मानो अहम्मसेविणो
संमिन्नवित्तस्स य हेहो गई ।
36 ]
[ दशवकालिक
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________________
91.
92.
(तुम) दूसरे को मत कहो (कि) 'यह दुश्चरित्र' (है)। जिससे दूसरा कुपित हो उस (वात) को भी (तुम) मत कहो । जो (व्यक्तियों के) पुण्य-पाप को अलग-अलग जानकर अपने को (उनसे) ऊँचा नहीं दिखाता है, वह साधु है । जो (मनुष्य) जाति के कारण मद-युक्त नहीं (है), (जो) (शारीरिक) सौंदर्य के कारण मद-युक्त नहीं (है), (जो) लाभ के कारण मद-युक्त नहीं (है), और (जो) ज्ञान के कारण मद-युक्त नहीं (है), तथा (जो) (अन्य) सभी मदों को छोड़कर शुभ ध्यान में लीन (रहता) है), वह साधु (है)।
93. साधु अनश्वर हित में स्थितबुद्धि (होता है) । (अतः (वह)
उस अपवित्र (तथा) नश्वर देहरूपी वस्त्र की उपेक्षा करता है। (और) (अन्त में) जन्म-मरण के बन्धन को नष्ट करके मोक्ष गति को प्राप्त करता है।
94.
जब अधम (व्यक्ति) भोग के प्रयोजन से धर्म (अध्यात्मिक मूल्यों) को सर्वथा छोड़ देता है, (तो) (यह कहना ठीक है कि) वह अज्ञानी उस (भोग) में मूछित (है)। (इस तरह से) (वह) (अपने) भविष्य को नहीं समझता है ।
95. नैतिकता से विचलित (व्यक्ति) का, अनैतिकता का सेवन
करने वाले का तथा खण्डित आचरण वाले का गमन (परलोक में) नीचे की ओर (नरक प्रदेश में) होता है। (तथा) इस लोक में भी (व्यक्ति) कर्तव्य-रहित, यश-रहित, कीति-रहित और साधारण लोगों में बदनाम किए जाने योग्य (हो जाता है)।
चयनिका ]
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96. भुजित्तु भोगाई पसज्झ चेयसा
तहाविहं कटु असंजमं बहुँ । गई च गच्छे अणभिझियं दुहं,
बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो ।।
97. जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ
चएज्ज देह, न उ धम्मसासरणं । तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया।
उतवाया व सुदंसणं गिरि ॥
98. जत्थेव पाले कइ दुप्पउत्तं
कारण वाया अदु माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा
पाइण्णो खिप्पमिव स्खलोणं ॥
99. अप्पा खलु सययं रक्खियन्वो
सविदिएहि सुसमाहिएहि । अरक्खिो जाइपहं उवेई
सुरक्खिनो सव्वदुहाण मुच्चइ ॥
100. दुल्लहा उ मुहादाई मुहाजोवी वि दुल्लहा । ।
मुहादाई मुहाजोवी दो वि गच्छंति सोग्गई।
28
| दशवैकालिक
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96. (दुराचारी व्यक्ति) मन से भोगों को अत्यधिक भोगकर
(और) इसी भाँति असंयम को बहुतायत से ग्रहण करके, (इसी लोक में) अवांछित दुःख और स्थिति को प्राप्त करता है, तथा उसके लिए अध्यात्म ज्ञान वार-बार (जन्म लेने पर भी) आसानी से प्राप्त नहीं (होता है)।
97. जिसका बुाद्ध इस प्रकार हा निश्चित होती है 'कि) 'देह को
त्याग दूंगा, किन्तु नैतिकता के अनुशासन को ही,' तो उस जैसे (मनुष्य) को इन्द्रिय-विषय विचलित नहीं कर सकते हैं, जैसे कि समीप आता हुआ (तेज) वायु सुदर्शन पर्वत को,
(विचलित नहीं कर सकता है)। 98. जहाँ कहीं धीर (व्यक्ति) मन से, वचन से या काया से खराब
(कार्य) किया हुआ (अपने में) देखे, वहाँ ही (वह) (अपने को) पीछे खींचे, जैसे कुलीन घोड़ा लगाम को (देखकर) (अपने को) तुरन्त (पीछे खींच लेता है)।
99.
निस्सन्देह आत्मा पूरी तरह से सभी उपशमित इन्द्रियों द्वारा सदा सुरक्षित को जानी चाहिए । अरक्षित (आत्मा) जन्ममार्ग की ओर जाती है। सुरक्षित (आत्मा) सब दुःखों से छुटकारा पाती है।
100. निस्सन्देह किसी (सांसारिक) लाभ के विना देने वाले दुर्लभ
(हैं), (तथा) किसी (सांसारिक) लाभ के बिना जीने वाले भी दुर्लभ (हैं) । किसी (सांसारिक) लाभ के विना देने वाले (और) किसी (सांसारिक) लाभ के विना जीने वाले दोनों ही सुगति (श्रेष्ठ अवस्था) को प्राप्त होते हैं ।
चयनिका ]
[39
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________________
(अ)
नक
श्रनि
आशा
कर्म
(त्रिवि)
for in it
तुवि
भवि
भाव
40 ]
1
-
=
13
=
=
-
117
अव्यय ( इसका अर्थ भूकृ
लगाकर लिखा
व
गया है)
संकेत - सूची
कर्मक क्रिया
अनियमित
आज्ञा
कर्मवाच्य
क्रिया विशेषण
अव्यय ( इसका अर्थ
लगाकर
लिखा
गया है)
तुलनात्मक विशेषण
पुल्लिंग
प्रेरणार्थक क्रिया
भविष्य कृदन्त
भविष्यत्काल
भाववाच्य
भूतकाल
वकृ
वि
विधि
विधिकृ
स
संकृ
सक
सवि
स्त्री
हेक
( )
=
1=
=
-
=
-
भूतकालिक कृदन्त वर्तमानकाल
सम्बन्ध भूत कृदन्त
सकर्मक क्रिया
सर्वनाम विशेषरण
स्त्रीलिंग
हेत्वर्थं कृदन्त
इस प्रकार के
कोष्ठक में मूल
शब्द रक्खा गया
है ।
)+( ). ..]
कोष्ठक के अन्दर +
=
वर्तमान कृदन्त
विशेषण
विधि
विधि कृदन्त
सर्वनाम
[(
)+( इस प्रकार के
चिह्न किन्हीं शब्दों में संधि का द्योतक है | यहाँ अन्दर के कोष्टकों में गाथा
के शब्द ही रख दिये गये हैं ।
[ दशवैकालिक
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[ (
इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर चिह्न ममाम का द्योतक है ।
) - ( ) - ( ) ........ |
,
I 1
1/2
2/1
2/2
3/1
3/2
4/1
4/2
5/1 =
5/2
6/1
6/2
1 / 1 प्रक. या सक उत्तम पुरुष / 7 /1
•
जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल
आदि)
मंख्या (जैसे 1 / 1, 2 / 1 ही लिखी है, वहाँ उम कोष्टक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है ।
: • जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त श्रादि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं, वहाँ कोष्टक के बाहर 'प्रनि' भी लिखा गया है ।
एक वचन
1/2 प्रक या सक= उत्तम पुरुष /
बहुवचन
2/1 अक या सक= मध्यम पुरुष /
एक वचन
* 2/2 अंक या सक = मध्मम पुरुप /
3/1 अक या
3/2 अक या
चयनिका ]
बहुवचन
सक = अन्य पुरुष /
एक वचन सक = अन्य पुरुष /
बहुवचन
7/2
8/1
8/2
÷
-
-
=
=
=
=
-
=
1
=
=
प्रथमा / marat
प्रथमा / वहुवचन
द्वितीया / एकवचन
द्वितीया / बहुवचन
तृतीया / एकवचन
तृतीया / बहुवचन
चतुर्थी / एकवचन
चतुर्थी / बहुवचन
पंचमी / एकवचन
पंचमी / बहुवचन
षष्ठी / एकवचन
षष्ठी / बहुवचन
सप्तमी / एकवचन
सप्तमी / बहुवचन
संवोधन / एकवचन
संबोधन / बहुवचन
[ 41
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व्याकरणिक विश्लेषण
1. धम्मो (धम्म) 1/1 मंगलमुक्किट्ठ [(मंगल) + (उक्किट्ठ)] मंगलं
(मंगल) 1/1 उक्किट्ठ (उक्किट्ठ) 1/1 वि अहिंसा (अहिंसा) 1/1 संजमो (संजम) 1/1 तवो (तव) 1/1 देवा (देव) 1/2 वि (अ)
=भी तं (त) 2/1 स नमसंति (नमंस) व 3/2 सक जस्स (ज) - 6/1 स धम्मे (धम्म) 7/1 सया (अ)=सदा मणो (मण) 1/1 2. जे (ज) 1/1 सवि य (अ)=और कंते (कंत) 2/2 वि पिए (पिन)
2/2 वि भोए (भोर) 212 लद्धे (लद्ध) 2/2 वि विप्पिट्टि (विप्पिट्ठि) मूल शब्द 2/1 कुन्वई (कुव) व 3/1 सक साहीरणे [(स) + (अहीणे)] [(स) - (अहीण) 2/2 वि] चयई* (चय) व 3/1 सक भोए (भोर) 2/2 से (त) 1/1 सवि हु (अ)=ही चाइ (चाइ) मूल शब्द 1/1 वि ति (अ)=इस प्रकार उच्चई (वुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि • पद्य में किसी भी फारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है।
यह नियम विशेषण के लिए भी काम में लाया जा सकता है । (पिशल:
प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 517) * छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'ई' को 'ई' किया गया है । ६ पूरी या आधी गाथा के अन्त में माने वाली 'ई' क्य क्रियामों में बहुधा 'ई'
हो जाता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138)।
स्त्री
3. समाए (सम---समा) 7/1 वि पेहाए (पेहा) 7/1 परिव्वयंतो
(परिव्वय) वकृ 1/1 सिया (अ)= कभी मणो (मण) 1/1 निस्सरई (निस्सर) व 3/1 अक बहिद्धा (अ)=वाहर न (अ) =नहीं सा (ता) 1/1 सवि महं (अम्ह) 6/1 स नो (अ)=नहीं • छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है।
42 ]
[ दशवकालिक
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वि (प्र) = निश्चय ही अहं (अम्ह) 1/1 स पि (अ)=भी तीसे (ती)6/1 स इच्चेव (अ)=इस प्रकार ताओ (ता) 5/1 स विणएज्ज (वि - पी + वि -गएज्ज) विधि 3/1 सक अनि रागं (राग)
2/1
4. पायावयाही* (आयावय) प्रेरक अनि विधि 2/1 सक चय (चय)
विधि 2/1 सक सोगुमल्ल (सोगुमल्ल) 2/1 कामे (काम) 2/2 कमाही* (कम) विधि 2/1 सक कमियं (कम) भूक 1/1 खु (अ)= निश्चय ही दुक्खं (दुक्ख) 1/1 छिदाहि* (छिंद) विधि 2/1 सक दोसं (दोस) 2/1 विणएज्ज (वि-णी+विणएज्ज) विधि 2/1 सक अनि राग (राग) 2/1 एवं (अ)-इस प्रकार सुही (सुहि) 111 वि होहिसि (हो) भवि 2/1 अक संपराए (संपराअ) 7/1
प्रातप (अय) आतापय → पायावय । * यहाँ रूप बनना चाहिए-पायावयहि, पर कभी-कभी विधि में अन्त्यस्थ प्र
(य) के स्थान पर मा (या) हो जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-158) इसी प्रकार 'रिदाहि' मोर 'फमाही' हैं। यहां छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'हिं को ही किया गया है।
5. कहं (अ)= कैसे चरे (चर) विधि 3/1 सक कहं (अ)=कैसे चिट्ठ
(चिट्ठ) विवि 3/1 अक कहमासे [(कहं। + (आसे)] कहं (अ)= कैसे. प्रासे (पास) विधि 3/1 अक कह (अ) कैसे सए (सम) विधि 3/1 अक कहं (अ)=किस प्रकार भुजंतो (भुज) व 1/1 भासंतो (भास) व 1/1 पावं (पाव) 2/1 वि कम्मं (कम्म) 2/1 न (अ) =नहीं बंधई (वंध) व 3/1 सक
पुरी गाथा के अन्त में पाने वाली 'ई' का क्रियापदों में वहुधा 'ई' हो जाता है। (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138)।
चयनिका ]
[ 43
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6. जयं (क्रिवित्र)-जागरूकतापूर्वक चरे (चर) विधि 3/1 सक चिट्ठ
(चिट्ठ) विधि 3/1 अक जयमासे [(जयं) + (प्रासे)] जयं (क्रिवित्र) -जागरूकतापूर्वक. आसे (पास) विधि 3/1 अक सए (संघ) विधि 3/1 अक भुजंती (मुज) व 1/1 भासंतो (भास) वकृ 1/1 पावं (पाव) 2/1 वि कम्मं (कम्म) 2/1 न (अ) = नहीं बंधई (वंध) व 3/1 सक • पूरी गाया के अन्त में आने वाली 'ई' का क्रियापदों में बहुधा '६ हो जाता __ है। (पिशलः प्राकृत भाषामों का व्याकरण पृष्ठ, 138)।
7. सव्वभूयऽप्पभूयस्स [ (सव्व) + (भूय) + (अप्प) + (भूयस्स).]
[(सव्व)-(भूय)*-(अप्प)-(भूय)• 6/1x वि] सम्मं (अ)= अच्छी तरह से भूयाई (भूय) 2/2 पासपो (पास) .1/1 वि पिहियासवस्स [(पिहिय) + (आसवस्स)] [(पिहिय) मूक अनि -(प्रासव) 6/1] दंतस्स (दंत) भूक 6/1 अनि पावं (पाव) 2/1 वि कम्मं (कम्म) 2/1 न (अ)=नहीं बंधई (वंध) व 3/1 सक .
* भूय प्राणी • भूय (वि)=समान. कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया या पंचमी
के स्थान पर पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) । * कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया
जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) । 8 पूरी गाथा के अन्त में आने वाली 'इ' का क्रियामों में 'ई' हो जाता है।
(पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138) ।
है. पढम (अ)=सर्वप्रथम नाणं (नाण) 21 तमो (अ)बाद में क्या
(दया) 1/1 एवं (अ)=इस प्रकार चिट्ठइ (चिट्ठ) व 3/1 अक सम्वसंजए [(सव्व)-(संजन) 1/1 वि] अन्नाणी (अन्नाणि) 1/1
44 1
[ दशवकालिक
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वि किं (किं) 2/1 वि काही (काही) भवि 3/1 सक कि वा (अ)
=कसे नाहिइ (ना) भवि 3/1 सक छेय* (छेय) मूल शब्द 2/1 पावगं (पावग) 2/1 • पिशलः प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 771 (अर्धमागधी में 'काही'
भी होता है)। * किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा-शब्द काम में लाया का सकता है।
(प्राकृत भाषानों का व्याकरण, पृष्ठ 517)।
. सोच्चा (सोच्चा) संकृ अनि जाणइ (जाण) व 3/1 सक कल्लारणं
(कल्लाण) 2/1 वि पावगं (पावग) 2/1 वि उभयं (उभय) 2/1 वि पि (अ)=भी जारई (जाण) व 3/1 सक जं (ज) 1/I सवि छेयं (छेय) 1/1 वि तं (त) 2/1 सवि समायरे* (समायर) विधि 3/1 सक • छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'ई' को 'ई' किया गया है । * पिशलः प्राकृत भाषानों का व्याकरण, पृष्ठ 683 ।
10. जो (ज) 1/1 सवि जीवे (जीव) 2/2 वि (अ)=भी न (अ)=
नहीं याणति (याण) व 3/1 सक अजीवे (अजीव) 2/2 जीवाऽजीवे [(जीव) + (अजीवे)] [(जीव)-(अजीब) 2/1] अयाणतो (अयाण) वकृ 1/1 कह (अ)=कैसे सो (त) 1/1 सवि नाहिह
(ना) भवि 3/1 सक संजमं (संजम) 2/1 11. जो (ज) 1/! सवि जीवे (जीव) 2/2 वि (अ) =भी वियाणति .. (वियाण) व 3/1 सक अजीवे (अजीव) 2/2 जीवाऽजीवे [(जीव)
+ (अजीवे)] [(जीव)-(अजीव) 2/2] वियाणंतो (वियाण) वकृ 1/1 सो (त) 1/1 सवि हु (अ)=निश्चय ही नाहिइ (ना) भवि 3/1 सकं संजमं (संजम) 2/1
चयनिका ]
[ 45
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12. जया (अ) जव जीवमजीवे [ (जीवं) + (अजीवे)] जीवं (जीव)
2/1 अजीवे (अजीव) 2/2 य (अ)=और दो (दो) 2/2 वि वि (अ) ही एए (एम) 2/2 सवि वियाणई* (वियारण) व 3/1 सक तया (अ)=तव गई (गइ) 2/1 बहुविहं (बहुविह) 2/1 दि सव्वजीवाण [(सव्व)-(जीव) 6/2] जागई* (जाण) व 3/1 सक * पूरी या आधी गाथा के अन्त में माने वाली 'इ' का क्रियापदों में बहुधा 'ई'.
हो जाता है । (पिगलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138)। 13. जया (प्र)-जव गई (गइ) 2/1 बहुविहं (बहुविह) 2/1 वि
सव्वजीवाण [(सन्व)-(जीव) 6/2] जाएई* (जाण) व 3/1 सक तया (अ)=तब पुण्णं (पुण्ण) 2/1 च. (अ)=और पावं (पाव) 2/1 बधं (बंध) 2/1 मोक्खं (मोक्ख) 2/1 * पूरी या प्राधी गाया के अन्त में आने वाली 'ई' का क्रियापदों में बहुधा ''
हो जाता है । (पिशल: प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 138)। • कभी-कभी वाक्यांश को जोड़ने के लिए 'च' का दो बार प्रयोग कर दिया
जाता है। 14. जया (अ)जब पुण्णं (पुण्ण) 2/1 च(अ) और पावं (पाव) 2/1
बंधं (बंध) 2/1. मोक्खं (मोक्ख) 2/1 च (अ)=और जाई* (जाण) व 3/1 सक तया (अ) तव निविदए (निविद) व 3/1 सक भोए (भोर) 2/2 जे (अ)=पाद-पूर्ति दिव्वे (दिव्व) 2/2 वि जे (अ)=पाद-पूर्ति य (अ)=और माणुसे (माणुस) 2/2 वि * पूरी या प्राधी गाथा के अन्त में प्राने वाली 'ई' का क्रियाओं में वहूघा 'ई' हो
__ जाता है । (पिशलः प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 138) । 15. जया (अ)जव निविदए (निविद) व 3/1 सक भोए (भोर)
2/2 जे* (अ)-पाद-पूर्ति दिव्वे (दिन्व) 2/2 वि जे* (अ)=पाद
पूर्ति य (अ)=और माणुसे (माणुस) 2/2 वि तया (अ) तव चयइ - (चय) व 3/1 सक संजोगं (संजोग) 2/1 सभितरवाहिरं [(स) +
46 ]
[दमावकालिक
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(प्रोन्भतर) + (वाहिर)] [(स)-(अभितर) वि-(बाहिर) 2/1
वि] 16. जया (अ)=जब संवरमुक्कट्ठ [(संवरं) + (उक्कट्ठ)]संवरं (संवर)
2/1 उक्कट्ठ (उक्कट्ठ) 2/1 वि धम्म (धम्म) 2/1 फासे (फास) व 3/1 सक प्रगुत्तरं (अणुत्तर) 2/1 वि तया (अ)=तव धुरगइ (धुण) व 3/1 सक कम्मरयं [(कम्म)-(रय) 2/1] अवोहिकलुसं
[(अबोहि) वि-(कलुस) 2/1] कडं (कड) भूक 2/1 अनि 17. जया (अ) जव धुणइ (धुरण) व 3/1 सक कम्मरयं [(कम्म)
(रय) 2/1] प्रचोहिकलुसं [(अवोहि) वि-(कलुस) 2/1] कर्ड (कड) भूक 2/1 अनि तया (अ)-तब सम्वत्तर्ग' (सव्वत्तन) 2/1 वि नाणं (नाण) 2/1 दसणं (दंसरण) 2/1 चाभिगच्छई [(च)+ (अभिगच्छई)] च (अ) = और अभिगच्छई* (अभिगच्छ) व 3/1
सक
* पूरी या माघी गाथा के अन्त में भाने वाली 'ई' का क्रियापदो में 'ई' हो
जाता है। (पिशलः प्रा. भा. व्या., पृष्ठ 138) . सध्यत्तग (सर्वत्रग) सर्वव्यापी (Omnipresent) Monier
Williams, Dict. P. 1189. 18. जया (अ)=जव सव्वत्तगं* (सव्वतग) 2/1 वि नारणं (नाण) 2/1
दंसणं (दंसरण) 2/1 चाभिगच्छई [(च)+(अभिगच्छई)] च (अ) और अभिगच्छई (अभिगच्छ) व 3/1 सक तया (अ) = तव लोगमलोगं [(लोगं) + (अलोगं)] लोगं (लोग) 2/1 अलोगं (अलोग) 2/1 च (अ) =और जियो (जिण) 1/1 जाणइ (जाण) व 3/1 सक केवली (केवलि) 1/1 वि
गाथा 17 देखें। • पूरी या प्राधी गाथा के अन्त में पाने वाली 'ई' का क्रियापदों में 'ई' हो
जाता है । (पिशल प्रा. भा. व्या., पृष्ठ 138)।
चयनिका ]
[47
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________________
19. जया.(अ)-जव लोगमलोगं [(लोग) + (अलोगं)] लोग (लोग).
2/1 अलोग (अलोग) 2/14 (अ) =और जिणो (जिण) 1/1 जाणइ (जाण) व 3/1 सक केवली (केवलि) 1/1 वि तया (प्र) =तब जोगे (जोग) 2/2 निहभित्ता (निरंभ) संकृ सेलेसि . (सेलेसी) 2/1 पडिवजई* (पडिवज्ज) व 3/1 सक * पूरी या माधी गाथा के अन्त में पाने वाली 'ई' का क्रियापदों में हो
__ जाता है । (पिशल: प्रा. भा. व्या., पृष्ठ 138)। 20. जया (अ)जब जोगे (जोग) 2/2 निरुभित्ता (निरंभ) संकृ
सेलेसि (सेलेसी) 2/1 परिवज्जई* (पडिवज्ज) व 3/1 सक तया (अ)=तव कम्मं (कम्म) 2/1 खवित्तारणं (खव) संकृ.सिद्धि (सिद्धि) 2/1 गच्छद (गच्छ) व 3/1 सक नीरओ (नीरस) 1/I वि
* पूरी या प्राधी गाथा के अन्त में माने वाली 'इ' का क्रियापदों में 'ई' हो
____ जाता है । (पिशलः प्रा. मा. व्या., पृष्ठ 138) 21. तत्पिमं [(तत्य) + (इम)] तत्थ (अ)=वहां पर इमं (इम) 1/1
सवि पढनं (पढम) 1/1 वि ठाणं (ठाण) 1/1 महावीरेण (महावीर) 3/1 देसियं (देस) भूक 1/1 अहिंसा (अहिंसा) 1/1 निउणा
स्त्री (क्रिवित्र) =सूक्ष्म रूप से दिट्ठा (दिदु-~दिट्ठा) भूकृ 1/1 अनि सव्वभूएसु [(सव्व)-(भूप) 7/2] संजमों* (संजम) 1/1
* संजम-संयम-करुणा को भावना, दयाभाव (पाप्टे : संस्कृत-हिन्दी कोश) 22. जावंतिजावं-ति (अ)-जितने भी लोए (लोअ) 7/1 पारणा
(पाण) 1/2 तसा (तस) 1/2 वि अदुव (अ)=अथवा थावरा (थावर) 1/2 वि ते (त) 2/2 सवि जाणमजाणं [(जाणं) + (अजाणं)] जाणं (जाणं) व 1/! अनि अजाणं (अजाणं) व 1/I अनि वा (अ) -या न (अ)-न हणे (हरण) विधि 3/1 सक नो (प्र)=न वि (अ) =भी घायए (घाय) विधि 3/1 सक .
48 ]
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23. सम्बजोवा [ ( सन्त्र) वि- (जीव ) 1/2] वि (प्र) = ही इच्छति (इच्छ) व 3/2 सक जोविरं * (जीव) हेकृ न ( ) = नहीं मरिज्जिउं (मर) है तम्हा (प्र) = इसलिए पाणवहं [ ( पारण) - (वह) 2 / 1] घोरं (घोर) 2/1 विनिग्गंधा (निग्गंथ ) 1 / 2 वज्जयंति ( वज्जयंति ) व 3 / 2 सक अनि रणं (न) 2 / 1 स
* इच्छायंक धातुम्रों के साथ हेत्वयं कृदन्त का प्रयोग होता है।
'मर' क्रिया में 'ज्ञ' प्रत्यय लगाने पर अन्त्य 'म' का 'इ' होने से 'मरिज्ज' बना घोर इसमें हेत्वधं कृदन्त के 'उ' प्रत्यय को जोड़ने से पूर्ववर्ती 'प्र' का 'ड' होने के कारण 'मरिज्जित' बना है। इसका श्रयं 'मरिउ" की तरह ही होगा । परट्ठा
1 / 1]
या कोहा (कोह)
(भय) 5 / 1 हिंसगं
बूया* ( वूया ) (अन्न) 2/1
24. श्रप्पणट्ठा [ ( अप्परण) + (अट्ठा ) ] [ (अप्पा) - (अट्ठा) [(पर) + (अट्ठा)] [(पर) - ( श्रट्टा ) 1/1 ] वा (प्र) 5/1 वा (अ) = या जइ वा ( अ ) = भले ही भया - (हिसंग ) 2 / 1 विन (अ ) = न मुंस ( मुसा ) 2 / 1 विधि 3 / 1 मक अनि नो () =न वि (अ) ही अन्नं श्राव (प्रेरक) वि वयावए ( वय
वयाव ) विधि 3 / 1 सक
• नियम से प्रेरणार्थक धातुयों के साथ मूल धातु के कर्ता में तृतीया होती है, किन्तु बोलना, जाना, जानना प्रादि श्रयों वाली धातुओं के प्रेरणात्यंक रूप के साथ मूल धातु के कर्ता में तृतीया न होकर द्वितीया होती है। इसलिए यह 'अ' में featया है ।
free: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण,
पृष्ठ
685 1
25. मुसाचा (मुसावा ) 1 / 1 य ( अ ) = निस्संदेह लोगम्मि (लोग) 7 / 1 सव्वसाहू [ ( सव्व) वि- ( साहु ) 3/2] गरहिथ्रो (गरह ) भूकृ 1 / 1 श्रविस्सासो ( श्रविस्सास) 1 / 1 य (न) = बिल्कुल भूयाणं *
* कभी-कभी पष्ठी विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-134)
*
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(भूय) 6/2 तम्हा (अ) इसलिए मोसं (मोस) 2/1 विवज्जए (विवज्ज) विधि 3/1 सक
26. चित्तमंतमचितं [(चित्तमंतं) + (अचित्तं)] चित्तमंतं (चित्तमंत),2/1
अचित्तं (प्रचित्त) 2/1 वा (प्र) =या अप्पं (अप्प) 2/1 वि वा (प्र) =या जइ वा (अ)- भले ही बहुं (बहु) 2/1 वि दंतसोहणमेतं [(दंत)-(सोहण) वि-(मेत्त) 2/1] पि (प्र)= भी भोग्गहें* (प्रोग्गह) - 2/1 सि (अस) व 2/1 अक प्रजाइया (प्र-जाय) संकृ
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया।
जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 27. न (म)==नहीं सो (त) 1/1 सवि परिग्गहो (परिग्गह) 1/1 वृत्तो
(वृत्त) भूकृ 1/1 अनि नायपुत्तेण (नायपुत्त) 3/1 ताइणा (ताइ) 3/1 वि मुच्छा (मुच्छा) 1 परिगहों* (परिग्गह) / वृत्तो* (वुत्त) भूक 1/1 अनि इइ (प्र) =इस प्रकार वृत्तं (वृत्त) भूकृ 1/। अनि महेसिणा (महेसि) 3/1 ___ * एक वाक्य में यदि स्त्रीलिंग और पुल्लिग शब्द है तो किया पु. के अनुसार
होगी। 28. परिक्खभासी [(परिक्ख) संकृ अनि-(भासि) 1/1 वि] सुसमाहिइदिए
[(सुममाहिप्र) + (इंदिए)] [(सु-समाहिअ) भूक अनि-(इंदिन) 1/1] चउक्कसायावगए [(चउ) + (क्कसाय) + (अवगए)] [(चउ) वि-(क्कसाय)-(अवग) भूकृ 1/! अनि] परिणस्सिए (अपिस्सिम) 1/1 वि स (त) 1|| सवि निद्धणे (निद्धरण) व 3/1 सक धुणमलं [(धुण्ण) वि-(मल) 2/1] पुरेकर (पुरेकड) 2/1 वि पाराहए (पाराह) व 3/1 सक लोगमिणं [(लोग) + (इणं)]
लोगं (लोग) 2/1 इणं (इम) 2/1 सवि तहा (अ)=और परं • (पर) 2/1 वि
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विधि 3 / 1
•
29. न ( अ ) = नहीं बाहिरं ( बाहिर) 2 / 1 वि परिभवे (परिभव) सक प्रत्ताणं ( अत्तारण ) 2 / 1 समुक्कसे (समुक्कस) विधि 7 / 1] मज्जेज्जा ( मज्ज) अनि तवसि * (तवसि ) मूल
3/1 सक सुयलामे [ ( सुय ) - ( लाभे)
( जच्चा )
6/1
·
विधि 3 / 1 अक जच्चा शब्द 6/1 वि बुद्धिए
(बुद्धि) 6 / 1
(विशेषरण भी) काम में लाया जा
* किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द सकता है । (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) अपभ्रंश में पष्ठी में भी मूल शब्द ही काम में लाया जाता है ।
विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में हृस्व हो जाते हैं । (पिशल: प्रा. भा. व्या. पृष्ठ 182) ।
30. से (त) 1 / 1 सवि जारणमजाणं [ ( जाणं) + (अजाणं)] जाणं (त्रिवि) = ज्ञानपूर्वक अजार* (क्रिवित्र) = अज्ञानपूर्वक वा ( अ ) = अथवा कट्टु ( अ ) = करके या कट्टु ( कट्टु ) संकृ अनि आहम्मियं ( हम्मिय) 2 / 1 वि पयं ( पय) 2 / 1 संवरे ( संवर) विधि 3 / 1 सकखिष्पमप्पा [ ( खिप्पं ) + (अप्पा)] खिप्पं ( अ ) = तुरन्त अप्पारणं (अप्पारण) 2/1 बीयं ( 7 ) = दूसरी वार तं (त) 2 / 1 सवि न ( अ ) = न समायरे ( समायर) विधि 3 / 1 सक
* जाणं, प्रजाणं नपुंसक लिंग एक वचन में प्रयुक्त हैं, इसलिए इन्हें क्रिविन कहा गया है । इन्हें 'नि' वर्तमान कृदन्त एक वचन भी माना जा सकता है, किन्तु प्रथं क्रिविग्र मानने से ठीक बैठता है ।
31. अणायारं (अरणायार ) 2 / 1
परक्कम्म (परक्कम्म) संकृ अनि नेव (अ) = कभी न गृहे (गृह) विधि 3 / 1 सक न ( अ ) = नहीं निहवे ( निण्हव) विधि 3 / 1सक सुई (सुइ) 1 / 1 विसया
| = सदा वियडभावे
[ ( वियड ) - (भाव) 7 / 1] (जिइंदि) 1 / 1 वि
( अ ): (असत) 1 / 1 वि जिदिए
असंसते
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32. प्रमोहं (अमोह) 2/1 वि वयणं (वयण) 2/1 कुन्जा (कु) विवि
3/1 सक पायरियस (आयरिय) 6/1 महप्परगो (महप्पण) 6/1 तं (त) 2/1 सवि परिगिज्म (परिगिज्म) संक अनि वायाए* (वाया) 7/1 कम्मुणा' (कम्म) 3/1 उववायए (उववाय) विधि 3/1 सक
* 'कम्म' के रूपों में थोड़ी विशेषता होती है। (दोशी: प्राकृतमार्गोपदेशिका,
पृष्ठ 180)। कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पागदाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) ।
मयुवं (अधुव) 2/1 वि जीवियं (जीविय) 2/1 नच्चा (नच्चा) संकृ अनि सिद्धिमग्गं [ (सिद्धि)-(मग्ग) 2/1] वियाणिया (वियाण) संकृ विणियट्टज (विरिणयट्ट) विधि 3/1 अक भोगेसु* (भोग) 712 आउं (आउ) 2/1 परिमियमप्पणो [(परिमियं) + (अप्पणो)] परिमियं (परिमिय) 2/1 वि अप्पणो (अप्पण) 6/1 * कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग पाया जाता है।
हिम प्राकृत व्याकरण : 3-136) ।
34. जरा (जरा) 1/1 जाव (अ)-जव तक न (अ) नहीं पीलेइ
(पील) व 3/1 सक वाही (वाहि) 1/1 वड्ढई* (वड्ढ) व 3/1 अक जाविदिया [(जाव)+ (इंदिया)] जाव (अ) जब तक. इंदिया (इंदिय) 1/2 हायति (हाय) व 3/2 अक ताव (अ)-तब तक धम्म (धम्म) 2/1 समायरे (समायर) विधि 3/1 सक * पूरी या प्राधी गाथा के अन्त में पाने वाली 'इ' का क्रियापदों में हो
जाता है । (पिशल: प्रा. भा. व्या., पृष्ठ 138)।
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35. कोहं ( कोह) 2 / 1 2 / 1
मारणं (माग) 2 / 1 च (अ) =और मायं (माया) * (अ) = और लोभं (लोभ) 2 / 1 पाववड्ढणं [ (पाव) - (वड्ढग ) 2 / 1 वि] वमे ( वम) विधि 3 / 1 सक चत्तारि (चउ) 2/2 दोसे ( दोस) 2/2 उ ( अ ) = निश्चय ही इच्छंतो (इच्छ) वकृ 1/1 हिमपण [ ( हियं ) + (अप्पणो ) ] हियं (हिय) 2 / 1 अप्परणो
( अप्पण) 6/1
* कभी-कभी वाक्यांश को जोड़ने कलए 'च' का प्रयोग दो बार कर दिया जाता है ।
36. कोहो ( कोह) 1 / 1 पीई (पीई) 2 / 1 परणा सेइ (पणास ) व 3/1 सक माणो (माग) 1 / 1 विजयनासणी [ (विरणय ) - ( नासरण) 1/1 वि] माया (माया) 1 / 1 मित्तारिण ( मित्त) 2 / 2 नासेइ (नास) व 3/1 तक लोभी (लोभ) 1/1 सव्वविणासरणो [ ( सव्व) वि- (विरणासण) 1 / 1 वि]
37. उवसमेण ( उवसम) 3 / 1 हरणे
1
2/1 मारणं ( माण ) 2 / ( जिरण) विधि 3 / 1 सक + (प्रज्जव) + (भावेण ) ]
3 / 1 ] लोभं (लोभ) 2 / 1
⭑ संतोसाप्रो == संतोसनो विभक्ति जुड़ते समय दोघं स्वर बहुधा कविता में ह्रस्व हो जाते हैं । (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 182 ) ।
(हरण) विधि 3 / 1 सक कोहं ( कोह) मध्वया ( मद्दव ) स्वार्थिक 'य' 5 / 1 जिणे मायं (माया) 2 / 1 चऽज्जवभावेण [ (च) च (प्र) = और [ ( प्रज्जव ) - (भाव) संतोस प्रो* ( संतोस ) 5 / 1
1 / 1
38. कोहो ( कोह) 1 / 1 य * (अ) = और मारणो (माग) प्रणिग्गहीया ( प्रणिग्गहीया ) भूकृ 1 / 2 अनि माया ( माया) लोभो (लोभ) 1 / 1 पवड्ढमारणा (पवड्ढ ) वकृ 1 / 2 चत्तारि ( उ )
1 / 1
* वाक्यांश को जोड़ने के लिए कभी-कभी 'य' का प्रयोग दो बार कर दिया जाता है ।
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1/2 वि एए (एम) 1/2 सवि कसिणा (कसिण) 1/2 वि कसाया
(कसाय) 1/2 सिचंति (सिंच) व 3/2 सक मूलाई (मूल) 2/2 • पुरणग्भवस्स (पुणभव) 6/1 39. राइणिएसु (राइणिन) 7/2 विणयं (विणय) 2/1 पउंजे (पटंज)
विधि 3/1 सक धुवसीलयं [(धुव। वि-(सील) स्वार्थिक 'य' 2/1] सययं (अ)=सदा न (अ)=नहीं हावएज्जा (हाव) विधि 3/1 सक कुम्मो (कुम्म) 1/1 व्व (अ) की तरह अल्लीण-पलीणगुत्तो [(अल्लीण) वि-(पलीण) वि-(गुत्त) 1/I वि] परक्कमेन्जा
(परक्कम) विधि 3/1 अक तव-संजमम्मि [(तव)-(संजम) 7/1] 40. निद (निद्दा) 2/1 च (अ)-बिल्कुल न (अ)=न बहु (क्रिविन)
=अत्यधिक मन्नेज्जा (मन्न) विधि 3/1 सक सप्पहासं-संप्पहामं (संप्पहास) 2/1 विवज्जए (विवज्ज) विधि 3/1. सक मिहो (अ)= गुप्त रूप से कहाहि* (कहा) 3/2 न (अ) =न रमे (रम) विधि 3/1 अक सज्झायम्मि (सन्झाय) 7/1 रनो (रअ) 1/1 वि सया (अ)-सदा
* कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया . जाता है । (हम प्राकृत व्याकरण : 3-137) । 41. इहलोग-पारतहियं [(इहलोग)-(पारत) वि-(हिय) 1/1] जेणं
(अ)-जिसके द्वारा गच्छइ (गच्छ) व 3/1 सक सोग्गई (सोग्गइ) 2/1 बहुसुयं (बहुसुय) 2/1 वि पन्जुवासेज्जा (पज्जुवास') विधि 3/1 सक पुच्छेज्जन्यविणिच्छयं [(पुच्छेज्ज) + (अत्थ) + (विणिच्छयं)] पुच्छेज्ज (पुच्छ)* विधि 3/1 सक [(अत्य)(विणिच्छय) 2/1] • • * 'पुच्छ द्विकर्मक क्रिया है। • पर्युपास् (पज्जुवास)=आश्रय लेना । (माप्टे : संस्कृत-हिन्दी कोश,
पृष्ठ 167)।
54 ]
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42. अप्पत्तियं (अप्पत्तिय) 1/1 जेण (अ)जिससे सिया* (सिया)
विधि 3/1 अक अनि मासु (अ)=शीघ्र कुप्पेज्ज (कुप्प) विधि 3/1 पक वा (अ)=ौर परो (पर) 1/1 सव्वसो (अ)=सर्वथा/विल्कुल तं (त) 2/1 स न (प्र) =न भासेज्जा (भास) विधि 3/1 सक भास (भास) 2/1 पहियगामिरिण [(अहिय)-(गामिणी) 2/1 वि] • पिशल: प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 6851
43. दिटुं (दिट्ठ) भूक 21 अनि मियं (मिय) 2/1 वि असंदिद्ध
(प्रसंदिद्ध) 2/1 वि परिपुण्णं (पडिपुण्ण) 2/1 वि वियं* (विय) 2/1 वि जियं (जिय) 2/1 वि अयंपिर-मविगं [(अयंपिरं) + (प्रणुम्बिग्गं)] अयंपिरं (प्रयंपिर) 2/1 वि अणुन्विग्गं (अणुबिग्ग) 2/1 वि भासं (भास) 2/1 निसिर (निसिर) विधि 2/1 सक प्रत्तव (प्रतवन्त--प्रत्तवन्तो+अत्तवं) 8/1 वि [विय-व्यक्त, जियपरिचित] ___ * दसवेवातियं-सं. मुनि नयमल पृष्ठ 411।
• अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ट 4271
44. विसएसु (विसप्र) 7/2 मणपणेसु (मणुण्ण) 7/2 वि पेमं (पेम) 2/1
नाभिनिवेसए [(न) + (अभिनिवेसए)] न (प्र) =न अभिनिवेसए (अभि-निवेस) विधि 3/1 सक प्रणिचं (अणिच्च) 2/1 वि तेसि (त) 6/2 स विणाय (विण्णा) संकृ परिणाम (परिणाम) 2/1 पोग्गलाणं (पोग्गल) 6/2 4 (अ)=निस्संदेह
45. पोग्गलाण (पोग्गल) 612 परीणामं (परीणाम) 2/1 तेसि (त)
6/2 गच्चा (बच्चा) संकृ अनि जहा (अ)-जसा तहा (अ)= वैसा विणीयतहो [(विरणीय) भूक अनि-(तह) 1/1] विहरे
चयनिका ]
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स्त्री ( विहर) विधि 3 / 1 ग्रक सोईनएण* [ ( सोध- (सोई ) - (मूल) नूकृ 3 / 1 पनि ] भरपणा * ( प्रप्पण) 3/1
⭑
46. जाए (जा) 3 / 1 स सढाए (सदा) 3 / 1 निम्तो* (निक्रांत) श 1 / 1 पनि परियापट्टणमुत्तमं [ ( परियाय) + (ट्टा ) + (उत्तमं ) ] [ ( परियाय) - ( द्वारा ) * 2 / 1] 2 / 1 चि तमेव [ ( तं) + (एव) ] तं (त) 2 / 1
उत्तमं
(उत्तम) स अनुपालेज्जा (मपाल ) विधि
3 / 1सक गुणे ( गुण) 2 / 2 प्रायरियसम्मए [ ( प्रायरिय ) - ( सम्म) मूक 2/2 धनि ]
कभी-कभी सणमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पादा जाता है । (हम प्राकृत व्याकरण: 3-137 ) 1
56 ]
* यहाँ भूक का प्रयोग कर्तृवाच्य में हुआ है।
·
.
'गति' प्रयं को क्रिया के साथ द्वितीया का प्रयोग हुपा है ।
47. तवं ( तय ) 21 चिमं [ (च) + ( इमं ) ] (प्र) और इम (इम) 2/1 सवि संजमजोगयं [ ( संजम ) - ( जोग ) 2 / 1 स्वाधिक 'य' प्रत्यय ] सम्झाथजोगं [ ( सज्झाय ) - ( जोग) 2 / 1] सपा (प्र) = सदा अहिट्ठए ( हिट्ठ) व 3 / 1 सक सूरे (सुर) 1 / 1 विव (प्र) = जैसे कि सेलाए (सेरणा ) 3 / 1 समत्तमाउहे [ ( समत्तं ) + (उहे ) ] समत्तं * (समत्त ) 2 / 1 वि श्राउ ( श्राउह) 1 / 1 अलमप्पणी [ ( प्रलं) + अप्पणो ) ] अलं (प्र) = समयं अप्पणी (अप्परण) 4 / 1 होइ (हो) व 3 / 1 प्रक परेसि (पर) 4/2
* कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137 वृत्ति) ।
'मोर' प्रयं में 'च' कभी-कभी प्रत्येक शब्द के साथ प्रयुक्त किया जाता है ।
[ दशवैकालिक
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48: सम्भाय-सभापरयस्स [(सज्झाय)-(सज्माण)-(रय) 6/1 वि]
ताइणो (ताइ) 6/1 वि प्रपावभावस्स [(अपाव)-(भाव) 6/1] तवे (तंव) 7/1 रयस्स (रय) 6/1 वि विसुन्झई* (विसुज्झ) व 3/1 अक जं (ज) 1/1 सवि से' (अ) = वाक्य की शोभा मलं (मल) 1/1 पुरेकर (पुरेकड) 1/1 वि समीरियं (समीर) भूकृ 1/1 रुप्पमलं [(रुप्प)-(मल) 1/1] व (अ)-जैसे कि जोइणा (जोइ) 3/1
* छन्द की मावा की पूर्ति हेतु'को '६ किया गया है। • वाक्य की शोभा (पिशलः प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 624) ।
49. पंभा* (थंभ) 5/14 (अ) तथा कोहा* (कोह) 5/1 व (अ)=
भी मय-प्पमाया [(माया--मया'+मय)-(पमाय)* 5/1] गुरुस्सगासे [(गुरु)-(स्सगास) 7/1] विरणयं (विणय) 2/1 न (अ)
नही सिरखे (सिक्ख) व 3/1 सक सो (त) 1/1 सवि.चेव (अ)= ही क (अ) सूचनार्थक तस्स (त) 4/1 स अभूइभावो [(प्रभूइ)-(भाव) 1/1] फलं (फल) 1/1 व (प्र) = जैसे कि कीयस्स (कीय) 6/1 वहाय (वह) 4/1 होइ (हो) व 3/1 अक * किसी कार्य का कारण व्यक्त करने वाली संज्ञा में तृतीया या पंचमी विभक्ति
का प्रयोग किया जाता है। • शन्दों में भादि में रहे हुए 'मा' का विकल्प से 'महमा करता है।
(हेम प्राकृत व्याकरण : 1-67)। अ. दीर्घ स्वर के भागे यदि संयुक्त प्रक्षर हो तो उस दीर्घ स्वर का हस्व स्वर हो
जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण :1-84)।
50. जे (ज)1/2 सवि यावि (अ)=भी मंदे (मंद) 1/1 ति (अ)=
ऐसा गुरु (गुरु) 2/1 विइत्ता (विन) संकृ डहरे (डहर) 11 वि इमे (इम) 1/1 सवि अप्पसुए (अंप्पसुप्र) 1/1 वि ति (अ) =
चयनिका ]
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इस प्रकार नच्चा (नच्चा ) संकृ अनि होलंति (हील) व 3 / 2 सक मिच्छं (मिच्छ ) 2 / 1 वि पडिवज्जमारा ( पडिवज्जमारण) वकु 1/2 करेंति (कर) व 3 / 2 संक आसायण ( श्रासारण ) * मूलशब्द 2 / 1 ते ( त ) 1/2 सवि गुरूणं (गुरु) 6/2
* किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 )
·
58 ]
किसी वर्ग को बतलाने के लिए एकवचन अथवा बहुवचन का प्रयोग किया जा सकता है । या बहुवचन 'का प्रयोग सम्मान प्रदर्शित करने के लिए भी होता है ।
51. जा (ज) 1 / 1 सवि पावर्ग ( पावग ) 2 / 1 जलियमवक्क मेज्जा [(जलियं) + (अवक्कमेज्जा ) ] जलियं (जल) भूक 2/1 अवक्कमेज्जा (अवक्कम) व 3 / 1 सक श्रासीविसं (प्रासीविस) 2 / 1 वा (प्र) = अथवा वि ( अ ) पाद पूर्ति हु ( अ ) = पाद पूर्ति कोवएज्जा (कोवन) * प्रेरक अनि व 3/1 सक विसं (विस) 2 / 1 खायइ ( खाय) व 3 / 1 सक जीविट्ठी. [ ( जीविय) + (अट्ठी ) ] [ ( जीविय ) - (अट्ठि) 1 / 1 वि] एसोवमाssसायरया [ ( एसा ) + ( उवमा ) + ( श्रसायणया ) ] एसा ( एता ) 1 / 1 वि उवमा ( उवमा ) 1 / 1 श्रसायरणया (आसायरणा असायरणया) 3 / 1 अनि गुरूणं (गुरु) 6/2
* कुप् +अय (प्रेरक) कोपय कोवन कोवएज्जा ।
● किसी वर्ग को बतलाने में एकवचन अथवा बहुवचन का प्रयोग किया जा जा सकता है या बहुवचन का प्रयोग सम्मान प्रदर्शित करने के लिए भी होता है ।
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137)
[ दशवैकालिक
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:52. बिया (अ)संभव हु (अ)=किन्तु से (प)-वाक्य को शोभा
पाक्य (पावय) मूल शब्द 1/I नो (अ)=न उहेज्जा (डह) विधि 3/1 सक मासोविसो (आसीविस) 1/1 वा (प्र)=अथवा कुविनो (कुविन) 1/1 विन (अ)=न भक्खे (भक्ख) विधि 3/1 सक विसं (विस) 1/1 हालहलं (हालहल) 1/1 मारे (मार) विधि 3/1 सक यावि (प्र) ही मोक्खो (मोक्ख) 1/1 गुरुहोलगाए [(गुरु)
स्त्री होलण--+हीलणा: 3/1] . कर्ता कारक के स्थान पर मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है।
(पिशलः प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 518) । * पिशल: प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 6241 B किसी कार्य का कारण व्यक्त करने के लिए तृतीया या पंचमी विभक्ति का
प्रयोग होता है। 53. जो (ज) 1/1 सवि पव्वयं (पन्वय) 2/1 सिरसा (सिर) 3/1
भेत्तुमिच्छ [(भेत्तु) + (इच्छे)] भेत्तु (भेत्तु) हेकृ अनि इच्छे (इच्छ) व 3/1 सक सुत्तं (सुत्त) भूक 2/1 अनि 4 (अ) अथवा सोहं (सीह) 2/1 परियोहएज्जा (पडिबोहा). प्रेरक अनि व 3/1 सक वा (अ) अथवा वए (दां) व 3/1 सक सत्तिप्रग्गे [(सत्ति)(अग) 7/1] पहारं (पहार) 2/1 एसोवमा सायगया [(एसा) + (उवमा) + (प्रासायणया)] एसा (एता) 1/1 सवि उवमा (उवमा) 11 प्रासायणा" (प्रासायणा-+प्रासायणया) 3/1 अनि गुरुण: (गुरु) 6/2 * 'इच्छा' अर्थ के साप हे का प्रयोग होता है। • बुध+प्रय (प्रेरक)-बोधय → बोहम→ बोहएज्जा ।
दा, दत्ते →दए। £ किसी वर्ग को बतलाने में एकवचन प्रथवा बहुवचन का प्रयोग किया जा
सकता है या बहुवचन का प्रयोग सम्मान प्रदशित करने के लिए भी
होता है। ॐ कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया
जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137) 1 .
चयनिका ]
. [ 59
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54. सिया (अ)=संभव हु (अ) =पाद पूर्ति सोसेण (सीस) 311 गिरि
(गिरि) 2/1 पि (प्र)=भी भिदे (भिद) विधि 3/1 सक हु (अ) पाद पूर्ति सीहो (सीह) 1/1 कुविभो (कुविन) 1/1 वि न (अ)-न भक्खे (भक्ख) विधि 3/1 सक न (अ)=न भिदेज्ज (भिंद) विधि 3/1 सक व (अ)=भी सत्तिमग्गं [(सत्ति)-(अग्ग) 1/1] यावि (अ)=ही मोक्खो (मोक्ख) 1/1 गुरुहोलणाए [(गुरु)
स्त्री (हीलण*--+हीलणा) 3/1] • किसी कार्य का कारण व्यक्त करने के लिए तृतीया या पंचमी विभक्ति का
प्रयोग होता है। 55. आयरियपाया* (आयरियपाय) 1/2 पुण (अ) = पाद पूति अप्पसन्ना
(अप्पसन्न) 1/2 वि अबोहि' (अवोहि) मूल शब्द 1/1 प्रासायण' (प्रासायण) मूल शब्द 1/1 नत्यि (अ)=नहीं मोक्खो (मोक्ख) 1/1 तम्हा (अ)=इसलिए आणाबाहसुहाभिकंखी [(प्राणाबाह)+ (सुह) + (अभिकंखी)][(अण+आवाह-+अणावाह-+आणावाह) -(सुह)-(अभिकखि)1/1 वि] गुरुप्पसायाभिमुहो[(गुरु) + (प्पसाय) + (अभिमुहो)] [(गुरु)-(प्पसाय)-(अभिमुह) 1/1 वि] रमेज्जा (रम) विधि 3/1 अक * अतिशय मादर व्यक्त करने के लिए कर्तृ कारक का बहुवचनान्त रूप व्यक्तियों
की उपाधियों या नामों के साथ जोड़ दिया जाता है। • कर्ताकारक के स्थान में केवल मूल संज्ञा शब्द भी काम में लाया जा
सकता है। - समासगत शब्दों में रहे हूए स्वर परस्पर हस्व के स्थान में दीर्घ मौर दीर्घ
के स्थान पर हस्व हो जाया करते हैं। यहाँ प्रण - प्राण हुमा है। (हेम .
प्राकृत व्याकरण, 1-4)। 56. नस्संतिए [(जस्स) + (अंतिए)] जस्स (ज) 6/1 स अंतिए
(अंतिम) 7/1 धम्मपयांई [(धम्म)-(पय) 2/2] सिक्ले* (सिक्ख) व
60 ]
[ दशवकालिक.
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3/1 सक तस्संतिए [(तस्स) + (अंतिए)] तस्स (त). 6/1 स अंतिए (अंतिम) 7/1 वेणइयं (वेणइय) 2/1 पउंजे(पउंज) विधि 3/1 सक सक्कारए (सक्कार) विधि 2/1 सक सिरसा (सिर) 3/1 पंजलीप्रो (पंजलि) 5/1 काय (काय) मूल शब्द 3/1 गिरा (ग्गिरा) 3/1 अनि भो (अ)=ो! मणसा (मण) 3/1 य (अ)= तथा निच्चं (अ)=सदा
* पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 672 । • प्रा. भा. व्या. पृष्ठ 683 । x प्रा. भा. व्या. पृष्ठ 6811 8 किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द का प्रयोग किया जा सकता है।
(प्रा. भा. व्या., पृष्ठ 517)।
57. लज्जा (लज्जा) 1/1 दया (दया) 1/1 संजम* (संजम) मूल शब्द
1/1 बंभचेरं (बंभचेर) 1/1 कल्लाणभागिस्स [(कल्लाण)-(मागि) 4/1 वि] विसोहिठाणं [(विसोहि)-(ठाण) 1/1] जे° (ज) 1/2 सवि मे (अम्ह) 7/1 स गुरू (गुरु) 1/2 सययमणुसासयंति [(सययं) + (अणुसासयंति)] संययं. (अ)=सदैव अणुसासयंति (अणुसासय) प्रेरक अनि व 3/2 सक ते. (त) 2/2 सवि हं (अम्ह) 1/1 स गुरू' (गुरु) 2/2 सययं (अ)=सदैव पूययामि (पूययामि) व 1/1 सक अनि * कर्ता कारक के स्थान में केवल मूल संज्ञा शब्द भी काम में लाया जा
सकता है। • यहाँ बहुवचन का प्रयोग सम्मान के लिए हुआ है। 8 कभी-कभी सप्तमी विभक्ति का प्रयोग द्वितीया के स्थान पर पाया जाता है।
(हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135)। .
58. जहा (अ)=जैसे निसंते (निसंत) 7/1 तवरणच्चिमाली [(तवण)
+ (अच्चि)+ (माली)] [(तवण)-(अच्चि)-(मालि) 1/1 वि]
ग्यनिका ]
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पभासई* (पभास) व 3/1 सक केवलं (केवल) 2/1 वि भारई (भारह)2/17 (अ)=ोर एवाऽयरिमो [(एव) + (प्रायरिपो)] एव (प्र)=वैमे ही. पायरियो (प्रायरिय) 11 सुय-सोल-बुद्धिए [(सुय)-(सील)-(बुद्धि) • 3/1] विरायई (विराय) व 31 अक सुरमझे [(मुर)-(मझ)7/1] व (प्र) =जैसे इंदो (इंद) 1/1
• छन्द की माता को प्रति हेतु '' को किया गया है। • (पापं प्रयोग) या रविता में 'ड' पौर 'उ' कभी-कभी टीपं नहीं होने,
बल्कि जसे के तैसे रह जाते हैं। पिन न मापात्रों का व्याकरण,
पृष्ठ 181). 59. जहा (अ) जैसे. ससी (ससि) I/! कोमुइजोगजुत्त [(कोमुड):
(जोग)-(जुत) 1/1 वि] नक्लत्त-तारागणपरिवडप्पा [(नक्वत्त) + (तारा)+ (गण) + (परिवुड) + (अप्पा)][(नक्वत्त)-(तारा) -(गण)-(परिवुड)-(अप्प)1/1]से (ख) 7/1 सोहई (मोह)व 3/1 अक विमले (विमल) 7/1 वि अन्ममुक्के [(प्रम)-(मुक्क) 7/1 वि] एवं (अ)-वैसे ही गणी (गरिण) 1/1 सोहइ (सोह) व 3/1 प्रक भिक्खमझे [(भिक्खु)-(मज्झ) 7/1] * छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'ई' को 'ई' किया गया है। • समासगत शन्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में दीर्घ केन्यान पर हग्य हो जाया
करते हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण. 1-4)। 60. महागरा [(मह) + (आगरा)] [(मह) वि-(प्रागर) 1/2]
प्रायरिया (पायरिय) 1/2 महेसी [(मह) + (एसी)] [(मह) वि(एसि) 112 वि] समाहिजोगे [(समाहि)-(जोग) 7/1] सुय-सीलबुद्धिए* [(सुय)-(सील)-(बुद्धि) 3/1] संपाविउ (संपाव) हेक कामे (काम) 1/1 वि अगुत्तराई (अणुत्तर) 1/2 वि माराहए (पाराह) विधि 3/1 सक तोसए (तोस) विधि 3/1 सक धम्मकामी [(धम्म)-(कामि) 1/1 वि] * कविता में '' और '' कभी-कभी दोघं नहीं होते, बल्कि जैसे तैसे रह
जाते हैं। (पिगलः प्राकृत भाषामों का ध्याकरण, पृष्ठ 181) | . प्राय: हेत्वयं कृदन्त के माय प्रयुक्त ।
दशवकालिक ]
[ 62
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61. मूलामो (मूल) 5/1 खंषप्पभवो [(संघ)-(प्पभव)* 1/1 वि]
दुमस्स (दुम) 6/1 संघामो (खंघ) 5/1 पच्छा (अ)-बाद में समुर्वेति (समुवे) व 3/2 सक साला (साला) 2/2 साह (साहा) मूल शब्द 5/28 पसाहा (प्पसाहा) 1/2 विरहंति (विरुह) व 3/2 अक पत्ता (पत्त) 1/2 तमो (प्र)-बाद में से (त) 6/1 स पुफ्फं (पुफ्फ) 1/1. (प्र)=और फलं (फल) 1/1 रसो (रस) 1/l य (अ)-और * समास के अन्त में इसका अर्थ 'उत्पन्न होता है। यह विशेषण होता है। • साहा → साह पागे संयुक्त प्रभार पाने से दीर्घ का हस्व हुमा है (हेम
प्राकृत व्याकरण, 1-84)। यहां मूल शब्द हो रहा है। किसी भी कारक के लिए मूल संशा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशल : प्राकृत
भाषामों का व्याकरण : पृष्ठ 517) ।
a उत्पन्न होना या निकलना भयं में पंचमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। 62. एवं (म)=इसी प्रकार धम्मस्स (धम्म) 6/1 विणो (विण)1/1
मूलं (मूल) 1/1 परमो (परम) 1/1 वि से (त) 6/1 स मोक्खो (मोक्स) 1/1 जेण (अ)-जिससे कित्ति (कित्ति) 2/1 सुयं (सुय) 2/1 सग्धं (सग्घ) 2/1 वि निस्सेसं (निस्सेस) 2/1 वि चाभिगच्छई [(च) + (अभिगच्छई)] च (अ)=ौर. अभिगच्छई* (आभिगच्छ). व 3/1 सक * पूरी या माघी गाया के अन्त में माने वाली 'ई' का क्रियापदों में बहुधा ''
हो जाता है। (पिएलः प्राकृत भाषानों का व्याकरण, पृष्ठ 138)।
63. जे (ज) 1/1 सवि य (अ)=और चंडे (चंड) 1/1 वि मिए (मित्र) . 1/1 वि थढे (थद्ध) 1/1 वि दुब्वाई (दुव्वाइ) 1/1 वि नियडीसो
[(नियही) वि-(सढ) 1/1 वि] भई* (बुन्भइ) व कर्म 3/1 सक पनि से (त) 1/1 सवि प्रविनीयप्पा [(अविणीय) + (अप्पा)]
चयनिका 1
.[63
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[(अविरणीय) वि-(अप्प) 1/1] कटुं (कट्ठ) 1/1 सोयगयं [(सोय) -(गय) 1/1 वि] जहा (अ)-जैसे कि
* छन्द को माता की पूर्ति हेतु 'इ' को 'द किया गया है। 64. विणयं* (विणय) 2/1 पि (प्र)=भी जो (ज) 1/1 सवि. उवाएण.
(उवात्र) 3/1 चोइसो (चोप) भूक 1/1 कुप्पई (कुप्प) व 3/1 अक नरो (नर) 1/1 दिव्वं (दिव्व) 2/1 वि सो (त) 1/1 सवि सिरिमेजति [(सिरि) + (एजति)] सिरि (सिरी) 2/1 एज्जति
स्वी (ए + एज्ज + एज्जत-→ एज्जंती) व 2/1 दंटेण (दंड) 3/1 पडिसेहए (पडिसेह) व 3/1 सक ___ * कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया
जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137)। .. छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'ई' को '६ किया गया है। 65. तहेव (अ)=उसी प्रकार प्रविरणीयप्पा [(अविरणीय) + (अप्पा)]
[(अविरणीय) वि-(अप्प) 1/2] उववझा (उववझ) 1/2 वि हया (हय) 1/2 गया (गय) 1/2 दीसंति (दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि दुहमेहंता [(दुई) + (एहंता)] दुह (दुह) 2/1 एहंता (एह) व 1/2 आमिमोगमुवट्ठिया [(आभियोगं) + (उवट्ठिया)] आभिप्रोगं* (माभिप्रोग) 2/1 उवडिया (उवट्ठिय) भूकृ 1/2 अनि * कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया
जाता है। (हेम प्राकृत भ्याकरण': 3-137)। 66. तहेव (अ)=उसी प्रकार सुविणीयप्पा [(सुविणीय) + (अप्पा)]
[(सुविणीय)वि-(अप्प) 1/2] उववरमा (उववझ) 1/2 वि हया (हय) 1/2 गया (गय) 1/2 वीसंति (दीसंति) व कर्म 3/2 सक अंनि सुहमेहता [(सुहं)+ (एहंता)] सुह* (सुह) 2/1 एहंता (एह) वकृ
[ दशवकालिक
64 ]
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1/2 इंड्ढि ( इड्ढि ) 2 / 1 पत्ता (पत्त ) भूकृ 1/2 प्रति महायसा
[ ( महा ) - ( यस ) 5 / 1]
*
•
· यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में हुआ है । 'कारण' अर्थ में तृतीया या पंचमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है । 57. तहेव ( अ ) = उसी प्रकार सुविरणीयप्पा [ ( सुविणीय) + ( अप्पा ) ] [ ( सुविणीय) वि - ( अप्प ) 1/2] लोगंसि (लोग) 7/1 नर-नारियो * (दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि 2 / 1 एहंता ( एह ) वकृ 1 / 2 (पत्त ) भूकृ 1 / 2 अनि महायसा£
[ (नर) - (नारी) 1/2 ] दोसंति सुहमेहंता [ ( सुहं) + ( एहंता ) ] सुहं इडिट ( इडिट) 2 / 1 पत्ता
[ ( महा) - ( यस ) 5 / 1]
*
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के
नारीप्रो→ नारिप्रो. विभक्ति जुड़ते समय दोघं स्वर बहुधा कविता में हृस्व हो जाते हैं । (पिशल: प्रा. भा. व्या. पृष्ठ 182 ) ।
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137 ) ।
यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में हुमा है ।
£ 'कारण' अर्थ में तृतीया या पंचमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । 68. जे (ज) 1/2 सवि प्रायरिय-उवज्झायाणं * [ ( आयरिय ) - ( उवज्झाय) 6/2] सुरसावणंकरा [ ( सुस्सूसा) - (वय) - (कर) छ 1/2 वि ] तेसि (त) 6/2 सिक्खा (सिक्खा 1/2 पवति (पवड्ढ ) व 3/2 क जलसित्ता [ (जल) - ( सित्त) भूकृ 1 / 2 अनि ] इव ( अ ) - जैसे
कि पायवा ( पायव) 1/2
•
स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया
8
जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137 ) ।
* यहाँ द्वन्द्व समास के कारण बहुवचन हुआ है ।
यहाँ अनुस्वार का श्रागम हुआ है । (हम प्राकृत व्याकरण : 1-26 वृत्ति
सहित) |
समास के अन्त में 'कर' का प्रयं 'करने वाला' होता है ।
चयनिका ]
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69. दुग्गमो (दुग्गन) 1/1 वा (अ)जैसे पनोएणं (पप्रोम) 3/1
चोइओ (चोअ) भूक 1/1 वहई* (वह) व 3/1 सक रहं (रह) 2/1 एवं (अ)=इसी प्रकार दुबुद्धि (दुन्बुद्धि) मूल शब्द 1/1 किच्चाण (किच्च) 6/2 वृत्तो (वृत्त) भूक 1/1 अनि पकुम्बई (पकुल्च) 3/1 सक • किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द का प्रयोग किया जा सकता है
(पिशलः प्रा. मा. व्या. पृष्ठ,517)। 3 कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग
पाया जाता है । हिम प्राकृत व्याकरण : 3-134)। ६ पूरी या प्राधी गाथा के अन्त में आने वाली 'इ' का क्रियापदों में बहुधा 'ई
हो जाता है। (पिशलः प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ, 138) । * छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'ई' को 'ई' किया गया है।
70. विवत्ती (विवत्ति) 1/1 अविनीयस्स (अ-विणीय) 6/1 वि संपत्ती
(संपत्ति) 1/I विरणीयल्स (विणीय) 6/1 वि य (अ)-और पस्सेयं [(जस्स) + (एयं)] जस्स* (ज) 6/1 एवं (एय) I/I सवि दुहमो (अ)-दोनों प्रकार से नायं (नाय) भूक I/ अनि सिक्खं (सिक्खा) 2/1 से (त) 1/1 सवि अभिगच्छई' (अभिगच्छइ) व 3/1 सक * कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रगोग तृनीया के स्थान पर होता है। (हेम
प्राकृत व्याकरण: 3-134)। • पूरी या माधी गावा के अन्त में पाने वाली 'ई क्रियापदों में ई हो जाती
है। (पिशलः प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 138)। 71. जे (अ) II सवि यावि (म):=भी बरे (चंड) 1/1• वि महइदिए . गारवे [(मइ)-(इड्ढि)-(गारव) 1/1] पिसुणे (पिसुण) 1/1 वि
नरे (नर) 1/1 साहस* (साहस) मूल शब्द 1/1 वि होणपेसणे [(हीण) वि-(पेसण) 1/1] भविषम्मे [(प्रदिट्ठ) विं-(धम्म) 1/1] विगए (विण) 7/1 अकोविए (प्र-कोविन) 1/1 वि
66 ]
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पसंविभागो (मसंविभागि) 1/1 वि न (म)=नहीं है (म)= निश्चय ही. तस्स (त) 4/1 स मोक्खो (मोक्स) ||1
साहसDOver-hasty (उतावला) (Monier Williams, Sans.Eng. Dict. P. 1212 Col. II)। किसी भी कारक के लिए मूल संशा शन्द काम में लाया जा सकता है। (पिसः प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 517) ।
72. निसबती [(
निस)-(वत्ति) 1/2 वि] पुण (म)=इसके विपरीत जे (ज) 1/2 सवि गुरुण* (गुरु) 6/2 सुयस्थषम्मा [(सुय)
+(प्रत्य)+(धम्मा)] [(सुय) वि-(अत्य)-(धम्म) 1/2] विणयम्मि (विरणय) 711 कोविया (कोविय) 1/2 वि तरित (तर) संकृ ते (त) 1/2 सवि मोहमिरणं [(मोहं) + (इणं)] ओहं (प्रोह) 2/1 इणं (इम) 2/1 सवि दुरुत्तरं (दुरुत्तर) 2/1 वि खवित्त (खव) संकृ कम्म (कम्म) 2/1 गइमुत्तमं ](गई) + (उत्तम)] गई (गइ) 2/1 उत्तमं (उत्तम) 2/1 वि गय' (गय) मूल शब्द भूकृ 1/2 अनि * किसी वर्ग विशेष का बोध कराने के लिए एक वचन मथवा बहुवचन का
प्रयोग किया जा सकता है या मादर व्यक्त करने के लिए बहुवचन का प्रयोग
किया जा सकता है। • किसी भी कारक के लिए मूल संशा गन्द काम में लाया जा सकता है। .(प्रा. भा. व्या. पृ. 517)।
यह नियम विशेषण के लिए भी लागू किया जा सकता है। 73. प्रापारमट्ठा [(प्रायारं) + (अट्ठा)] आयारं (आयार) 2/1 अट्ठा
(भट्ठा) 1/1 विणयं (विणय) 2/1 पउँने (पंउंज) व. 3/1 सक सुस्मसमापो (सुस्सूस) व 1/1 परिगिझ (परिगिज्झ) संकृ पनि वर्क (वक्क) 2/1 बहोवइ8 (अ)जैसा कि कहा गया है. प्रमिकक्षमाणो (अभिकंख) व 1/1 गुरू (गुरु) 2/1तु (अ) =तथा नासायई [(ना) + (प्रासाययई)] ना (अ)=नहीं
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आसाययई* (आसाययइ) व 3/1 सक अनि स (त) 1/I सवि पुन्जो (पुज्ज) 1/1 वि
* छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'ई' को 'इ' किया गया है। 74. सक्का* (सक्क) विधि कृ 1/2 अनि सहे* (सह) हेकृ पासाए
(आसा)- 3/1 कंटया (कंटय) 1/2 अमओमया (अग्नोमय) 1/2 वि उच्छहया. (उच्हय) 5/1 स्वार्थिक 'य' नरेणं (नर) 3/1 प्रणासए (अण-आसा) 3/1 जो (ज) 1/1 सवि उ (अ)=किन्तु सहेज्ज (सह) व 3/1 सक कंटए (कंटा) 2/2 वईमए (वईमप्र) 2/2 वि कणसरे [(कण्ण)-(सर) 2/2] स (त) 1/1 सवि पुज्जो (पुज्ज) 1/1 वि.
प्रायः हेत्वयं कृदन्त (कमणि अपं में) के साथ प्रयुक्त (Monier
Williams, Sans.-Eng. Dict. P. 1045)। उच्छाह → उच्यह (यहां 'मा' का विकल्प से 'न' हुआ है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-67)।
'कारण व्यक्त करने के लिए तृतीया या पंचमी विभक्ति होती है। ४ भणासाए → प्रणासए : विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में
हस्व हो जाते हैं । (पिशलः प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 182)। 75. मुहत्तदुक्खा [(मुहुत्त)-(दुक्ख) 1/2 वि] हु (अ)=ही हवंति (हव)
व 3/2 अक कंटया (कंटय) 1/2 मनोमया (अनोमय) 1/2 वि ते (त) 1/2 सवि वि (अ) तथा तो (अ)=वाद में सुउद्धरा (सुउद्धर) 1/2 वि वायादुरत्ताणि [(वाया)-(दुरुत्त) 1/2] दुरुद्धरारिण(दुरुद्धर) 1/2 वि बैरागुबंधोरिण [(वेर) + (अणुवंधीणि)]
[(वेर)-(अणुवंघि) 1/2 वि महन्मयाणि (महन्मय) 1/2 वि 76. समावयंता (समावय) वकृ 1/2 वयणाभिधाया [(वयण)+
(अभिघाया)] [(वयण)-(अभिवाय)1/2] कणंगया [(कण्णं)* (गय) भूक 1/2 अनि] दुम्मरिणयं (दुम्मरिणय) 2/1 जणंति (जण)
68 ]
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व 3/2 सक धम्मो (धम्म) 1/I ति (अ)=इस प्रकार किच्चा (किच्चा ) संकृ अनि परमग्गसूरे [(परम) + (अग्ग) + (सूर)] [(परम)-(अग्ग)-(सूर) 1/1 वि] जिइंदिए (जिइंदिन) 1/1 वि जो (ज) 1/I सवि सहई. (सह) व 3/1 सक स (त) 1/1 सवि पुज्जो (पुज्ज) 1/1 वि * यहां अनुस्वार का पागम हसा है (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-26 वृत्ति
सहित)।
• छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'ई' को 'ई' किया गया है । 77. अवण्णवायं [(अवण्ण)-(वाय) 2/1] च (अ)=भी परम्मुहस्स
(परम्मुह) 4/1 वि पच्चक्खनो (क्रिविन)=सार्वजनिक रूप से पडिणीयं (पडिणीया) 2/1 वि च (अं)= विल्कुल भासं (भासा) 2/1 पोहारिणि (मोहारिणी) 2/1 वि अप्पियकारिरिंग (अप्पियकारिणी) 2/1 वि च (अ) =और भासं (भासा) 2/1 न (अ)= नहीं भासेज्ज (भास) व 3/1 सक सया (अ)=सदा स (त) 1/1 सवि पुज्जो (पुज्ज) 1/I वि प्रलोलुए (प्रलोलुए) 1/1 वि अक्कुहए (अक्कुहअ) 1/1 वि अमायी (अमायि) 1/1 वि अपिसुणे (अपिसुण) 1/1 वि यावि (अ)=और प्रदीणवित्ती [(अदीण)-(वित्ति) 1/1] नो (अ)=नहीं भावए
78.
प्रेरक
(भव-+ भावय - भावन) प्रेरक अनि व 3/1 सक नो वि (अ)
=कभी नहीं य (अ)= और भावियप्पा [(भाविय) + (अप्पा)] [(भाविय) भूक-(अप्प) 1/1] अकोउहल्ले (अकोउहल्ल) 1/1 य (अ) =और सया (अ)= सदा स (त) 1/1 सवि पुज्जो (पुज्ज)
1/1 वि 79. गुणेहि* (गुण) 3/2 साहू (साहु) 1/1 अगुणेहऽसाहू ((अगुणे)+
(ह)+(असाहू)] अगुणे (अगुण) 7/1 ह (अ)=ही. असाहू
चयनिका ]
[ 69
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(असाहु) 1/1 गेल्हाहि (गेण्ह) आज्ञा 2/1 सक साहुगुण [(साहू) -(गुण) मूल शब्द 2/2] मुंचसाहू [(मुंच) + (असाहू)] मुच (मुच) आज्ञा 2/1 सक. असाहू (असाहु)1/1 वियाणिया (वियाण) संकृ. अप्पगमप्पएणं [(अप्पगं)+ (अप्पएणं)] अप्पगं (अप्प)स्वार्थिक 'ग' 2/1 अप्पएणं (अप्प) 'अ' स्वार्थिक 3/1 जो (ज) 1/1 सवि राग-दोसेहि* [(राग)-(दोस) 3/2] समो (सम) 1/1 वि स (त) 1/1 सवि पुज्जो (पुज्ज) 1/1 वि * 'कारण' व्यक्त करने के लिए तृतीया या पंचमी का प्रयोग किया जाता है।
कभी-कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) तथा वर्ग विशेष का बोध कराने के लिए
एकवचन तथा बहुवचन का प्रयोग किया जा सकता है। 8 पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 689। समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में हस्व के स्थान पर दीर्घ और और दीर्घ के स्थान पर हस्व हो जाते हैं, (यहां साहु → साहू हुआ है)
(हेम प्राकृत व्याकरण : 1-4)। $ पिशलः प्रा. भा. व्या, पृष्ठ 834.837,8381 * कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभाक्त का प्रयोग पाया
जाता है। (हम प्राकृत व्याकरण : 3-137) । 80. तहेव (अ)=उसी प्रकार उहरं (डहर) 2/1 4 (अ)-अथवा
महल्लगं (महल्ल) स्वार्थिक 'ग' 2/1 वा (अ)=अथवा इत्थी* (इत्थी) मूल शब्द 2/1 पुमं (पुम) 2/1 पन्वइयं (पव्वइय) 2/1 गिहि (गिहि) 2/1 वा (अ)-अथवा नो (अ)-नहीं होलए (हील) व 3/1 सक नो (अ)-नहीं वि (अ)-कभी य (अ) तथा खिसएज्जा (खिस--→ खिसय + खिसअ) प्रेरक अनि व 3/1 सक थंभं (थंभ) 2/1 च (अ)=और कोहं (कोह) 2/1 चए (च) व 3/1 सक स (स) 1/1 सवि पुज्जो (पुज्ज) 1/1 वि * किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है।
(पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517)।
प्रेरक
70 ]
( दशवकालिक
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81. विणए (विण) 7/1 सुए (सुप) 7/1 तवे (तव) 7/1 य (अ) =और आयारे (मायार) 7/1 निच्चं (म)=सदा पंडिया (पंडिय)
प्रेरक 1/2 वि अभिरामयंति (अभिरम-→ अभिरामय) प्रेरक अनि व 3/2 सक अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 जे (ज) 1/2 सवि भवंति (भव) व 3/2 अक जिइंदिया (जिइंदिय) 1/2 वि
82. पेहेइ (पेह) व 3/1 सक हियाणसासणं [(हिय) + (अणुसासणं)]
[(हिय) वि-(अणुसासण) 2/1] सुस्सूसई (सुस्सूस) व 3/1 सक तं (त) 2/1 सवि च (अ)=और पुणो (अ)=फिर अहिट्ठए (अहिट्ठ) व 3/1 सक न (अ)=नहीं य (अ)=तथा माणमएण [(माण)(मन) 3/1] मज्जई* (मज्ज) व 3/1 अक विणयसमाही (विणय)(समाहि) 1/1] आययटिए [(आयय) -(अट्ठिा) 1/1 वि]
· पूरी या माधो गाथा के अन्त में प्राने वाली 'ई' का क्रियापदों में बहुधा ' हो जाता है (पिशल: प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 138)।
83. नागमेगग्गचित्तो [(ना) + (एगग्गचित्तो)] नाणं (नाण) 2/1
एगग्गचित्तो (एगग्गचित्त) 1/1 वि य (अ)=और ठिमो (ठिन)
भूकृ 1/1 अनि ठावयई* (ठव-+ठावय) प्रेरक अनि व 3/1 सक परं (पर) 2/1 वि सुयाणि (सुय) 2/2 य (अ)=और अहिज्जित्ता (अहिज्ज) संकृ रो (रअ) 1/1 वि सुयसमाहिए [(सुय)-(समाहि) 7/1] __ * छन्द की माता की पूर्ति हेतु'ई' को 'इ' किया गया है । • समाहीए- समाहिए, विभक्तिं जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में हम्ब
कर दिये जाते हैं । (पिशल: प्राकृत भाषानों का व्याकरण, पृष्ठ 182)।
चयनिका ]
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84. विविहगुणतवोरए [(विविह)-(गुण)-(तवीर) 1/1] य (अ)=
तथा निच्चं (अ)=सदा भवद (भव) व 3/1 अक निरासए (निरासग्र) स्वार्थिक 'अ' 1/1 वि निज्जरदिए [(निज्जरा) + (अट्ठिए)] [(निज्जरा)-(अद्विन) 1/1 वि] तवसा (तव) 3/1 धुरणइ (धुण) व 3/1 सक पुराणपावगं [(पुराण)-(पावग) 2/1] जुत्तो (जुत्त) 1/1 वि सया (प्र)=सदा तवसमाहिए* ](तव)(समाहि) 7/1] * समाहीए → समाहिए, विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में
हस्य फर दिये जाते हैं । (पिगलः प्राकृत भाषानों का व्याकरण पृष्ठ 182)। 85. जिणवयणरए [(जिण)-(वयण)-(रअ) 1/1 वि] अतितिणे (अ
तितिरण) 1/1 वि पडिपुण्णाययमाययट्ठिए [(पडिपुण्ण) + (प्राययं)
+ (आयय) + (अट्ठिए)] [(पडिपुण्ण)-(प्राययं)* 2/1 'य' स्वार्थिक] [(आयय)-(अट्ठिअ) 1/1 वि] प्रायाग्समाहिसंवडे [(मायार)-(समाहि)-(संवुडे)1/1 वि] भवइ (भव) व 3/1 अक य (अ) = और दंते (दंत) 1/1 वि भावसंघए [(भाव)-(संघ) 1/1 वि] * कभी-कभी मप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वियीया विभविन का प्रयोग पाया
जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137)। 86. अभिगम (अभिगम) मूल शब्द 3/1 चउरो (चउ) 2/2 वि समाहियों*
(समाहि) 2/2 सुविसुद्धो (सुविसुद्ध) 11 वि सुसमाहियप्पो [(सुसमाहिय)-(अप्पन) स्वार्थिक 'अ' 1/1] विलहियसुहावहं [(विउल) वि-(हिय)--(सुहावह) 2/1 वि] पुणो ।अ)=तथा कुव्वद (कुव्व) व 3/1 सक सो (त) 1/1 सवि पपखेममप्पणी [(पयखेमं) + (अप्पणो)] पयखेमं (पयखेम) 2/1 अप्पणो (अप्प) 4/1
समाहीमोसमाहिमो, विभक्ति जुड़ते ममय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में हस्व कर दिये जाते हैं । (पिशलः प्राकृत भाषामों का व्याकरणपृष्ठ 182)।
72 ]
[ दशवकालिक
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87. सम्मविट्ठी (सम्मदिट्ठि) 1/1 वि सया (अ)- सदा अमूढे (अ-मूढ)
1/1 वि अस्थि (अ)=है. हु (अ) ही नाणे (नाण) 7/1 तवे (तव) 7/1 य (अ)=और संजमे (संजम) 7/1 तवसा (तव) 3/1 धुणई (धुण) व 3/1 संक पुराणपावगं [(पुराण) वि-(पावग) 2/1] मण-वय-कायसुसंवडे [(मण)-(वय)-(काय)-(सु-संवुड) 1/1 वि] जे (ज) 1/1 मवि स (त) 1/1 सवि भिक्खू (भिक्खु)
1/1
88. न (अ)=नहीं य (अ)=बिल्कुल वुग्गहियं (वुग्गहिय) 2/1 वि
कहं (कहा) 2/1 कहेज्जा (कह) व 3/1 सक कुप्पे (कुप्प) व 3/1 सक निहुइंदिए [(निहुअ) + (इंदिए)] [निहुअ) वि-(इंदिन) 1/1] पसंते (पमंत) 1/1 वि संजमधुवजोगजुत्ते [(संजम)-(धुव)(जोग) (जुत्त) 1/i वि उवसंते (उवसंत) 1/1 वि प्रविहेडए (अविहेडअ) 1/1 वि जे (ज) 1/1 सवि स (त) 1/1 सवि. भिक्खू
(भिक्खू) 1/1 89. हत्यसंजए [(हत्थ)-(संजय) 1/1 वि] पायसंजए [(पाय)
(संजन) 1/1 वि] वायसंजए [(वाय)-(मंजअ) 1/1 वि] संजईदिए [(संजअ)+ (इंदिए)] [(संजन) वि-(इंदिए) 1/1] अझप्परए [अझप्प)-(रअ) 11 वि] सुसमाहियप्पा [(सुसमाहिय) + (अप्पा)] [सु-समाहिय) वि-(अप्प) 1/1] सुत्तत्थं [(सुत्त) + (अत्थं)] [(सुत्त)-(अत्थ) 2/1] च (अ)=तथा वियाणई* (वियाण) व 3/1 सक जे (ज) 1/1 सवि स (त) 1/1 सवि भिक्खू (भिक्खु) 1/1
* छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'ई' को 'ई' को किया गया है। 90. अलोलो (अलोल) 1/1 वि भिक्खू (भिक्खु) 1/1 न (अ) नहीं
रसेसु (रस) 7/2 गिद्धे (गिद्ध) 1/1 वि उंछ* (उंछ) 2/1 चरे* (चर) व 3/1 सक जीविय' (जीविय) मूल शब्द 2/1 नाभिकले
चयनिका ].
[ 73
।
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[(न) + (अभिकखे)] न (अ)=नहीं अभिकने (अभिकख) व 3/1 सक इड्ढि (इड्ढि) 2/1 च (अ)=तथा सक्कारण. (सक्कारण) मूल शब्द 2/1 पूयणं (पूयण) 2/1 च (अ) --एवं चए (च) व 3/1 सक ठियप्पा (ठियप्प) 1/1 वि अणिहे (अरिणह) 1/1 वि जे (ज) 1/1 सवि स (त) 1/1 सवि भिक्खू (भिवबु) 1/1
* 'गति' प्रर्य की क्रिया के योग में द्वितीया विभक्ति होती हैं।
• किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा गन्द काम में लाया जा सकता हैं। 91. न (अ)=नहीं परं (पर) 2/1 वि वएन्जासि (वन) विधि 2/1
सक अयं (इम) 1/1 सवि कुसीले (कुसील) 1/1 वि जेणऽन्नो [(जेण) + (अन्नो)] जेण (अ)=जिससे अन्नो (अन्न) 1/1 वि कुप्पेज्ज (कुप्प) विधि 3/1 अक तं (त) 2/1 सवि वएज्जा (वन) विधि 2/1 सक नाणिय (जाण) मंक पत्तेय* (अ)=अलग-अलग पुण्ण-पावं [(पुण्ण)-(पाव) 2/1] अत्ताणं (अत्ताण) 2/1 समुक्कसे (समुक्कस) व 3/1 सक जे (ज) 1/1 सवि स (त) 111 सवि भिक्खू (भिक्खु) 1/1
* यहां अनुस्वार का लोप हुआ हैं । (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-29) । 92. न (अ) नहीं नाइमत्त [(जाइ)-(मत्त) 1/1 वि] य (अ)=
और रूवमत्ते [(रूव)-(मत्त) 1/1 वि] लाभमत्ते [(लाभ)(मत्त) 1/1 वि] सुएण* (सुअ) 3/1 मते (मत्त) 1/l वि मयारिण (मय) 2/2 सव्वाणि (सव्व) 2/2 वि विवज्जइत्ता (विवज्ज) संकृ धम्मज्झारणरए [(धम्मज्माण)-(रअ) 1/1 वि] य (अ) तथा जे (ज) 1/1 सवि स (स) 1/1 सवि भिक्खू (भिक्खु) 1/1
* 'कारण' व्यक्त करने के लिए तृतीया या पंचमी का प्रयोग होता है । 93. तं (त) 2/1 सवि देहवासं [(देह)-(वास) 2/1] असुई (असुइ)
2/1 वि असासयं (असासय) 2/1 वि सया (अ)=सदा चए (चन)
व 3/1 सक निच्चहियट्टियप्पा [(निच्च) वि-(हिय)-(ट्ठियप्प) 1/1 74 ]
[ दशवकालिक
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वि] [छवित्त (छिंद) मंकू जाईमरणस्स [ ( जाई ) * - ( मरग) 6 / 17. बंघणं (तंत्ररण) 2/1 उवेइ ( उवे ) व 3 / 1 सक भिक्खु ( भिक्खु ) मूल शब्द 1 / 1 अपुणागमं ( पुगागम) 2 / 1 गई ( गइ ) 2 / 1
* जाइ→ जाई, समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर हृस्व के स्थान पर दोघं और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाया करते हैं । (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4) I
कर्ताकारक के स्थान में मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा मकता है । (पिल: प्राकृत भाषाों का व्याकरण, पृष्ठ 518 ) ।
94. जया ( अ ) = जब य ( अ ) = सर्वथा चपई * ( चय) व 3 / 1 सक धम्मं (धम्म) 2 / 1 अरज्जो ( राज्ज) 1 / 1 वि भोगकारणा [ ( भोग) - ( काररण) 5 / 1] से (त) 1 / 1 सवि तत्थ (त) 7/1 स मुच्छिए (मुच्छित्र) 1 / 1 वि बाले ( बाल ) विप्राय (प्राय) 2 / 1 नावबुज्झई [ (न) + (अवबुज्झई ) ] (अवबुज्झ ) व 3 / 1 सक
1 / 1
न
•
( अ ) = नहीं अवबुज्झई •
* पूरी या प्राधी गाथा के अन्त में आने वाली 'इ' का त्रियापदों में बहुधा 'ई' हो जाता है । (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138 ) ।
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया हैं ।
95. इहेव धम्मो [ ( इह ) + (एव) + (अधम्मो )] इह ( अ ) = इस लोक में एव ( अ ) = भी अधम्मो ( अधम्म ) 1 / 1 वि अयसो ( प्रयस ) 1 / 1 वि अकित्ती (प्र-कित्ति ) 1 / 1 वि दुनामघेज्जं [ ( दुन्नाम) वि( घेज्ज) विधि-कृ 1 / 1 अनि ] च (प्र) = श्रोर पिहज्जणम्मि ( पिहुज्जण) 7/1 चुयस्स ( चुय) भूकृ 6 / 1 अनि धम्माश्रो ( धम्म) 5/1 अहम्मसेविणो [ ( अहम्म ) - ( सेवि ) 6/1] संभिन्नवित्तस्स
-
( भिन्नवित्त) 6 / 1 वि य ( अ ) मा हेट्ठयो (क्रिवि) नीचे की ओर गई (गइ) 1/1
चयनिका ]
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96. भुजितु (मुज) संकृ भोगाई (भोग) 2/2 पसज्झ (अ)= अत्यधिक
चेयसा (चेय) 3/1 तहाविहं (अ)=इसी भांति कट्ट (अ)-करके या कट्ट (कट्ठ) संकृ अनि असंजमं (असंजम) 2/1 बहुं* (अ) बहुतायत से गई (गइ) 21 च (अ)=और गच्छे (गच्छ) व 3/1 सक अणभिझियं (अण-अभिझिय) 2/1 वि दुहं (दुह) 2/1 वोही (बोहि) 1/1 य (अ)=तथा से (त) 4/1 स. नो (अ) = नहीं
स्त्री सुलभा (सुलभ---+सुलभा) 1/1 वि पुणो पुरणो(अ)-वार-बार * बहु → बहुं, वहाँ अनुस्वार का पागम हुमा हैं। (हम प्राकृत व्याकरण :
1-26)। 97. जस्सेवमप्पा [(जस्स) + (एव) + (अप्पा)] जस्स (ज) 6/1 स
एवं (अ)=इस प्रकार अप्पा (अप्प) 1/1 उ (अ) ही हवेज्ज (हव) व 3/1 अक निच्छितो (निच्छिा ) 1/1 वि चएज्ज (चन) भवि 1/1 सक देहं (देह) 2/1 न (अ)=नहीं उ (अ)-किन्तु धम्मसासणं [(धम्म)-(सासण) 2/1] तं (अ)=तो तारिसं (तारिस) 2/1 वि नों (अ) नहीं पयलेंति(पयल) व 3/2 सक इंदिया (इंदिय) 1/2 वि उर्वतवाया [(उर्वत) वक-(वाया). 1/1] व (अ)=जैसे कि सुदंसणं (सुदंसण) 2/1 गिरि (गिरि) "2/1
* यहां वर्तमान काल का प्रयोग विधि' भयं में हुमा है।
• वातृ → वाउ → वाया। 98. जत्येव [(जत्थ) + (एव)] जत्य (अ)=जहाँ एव (अ)=भी पासे
(पास) विधि 3/1 सक कइ (अ)=कहीं दुप्पउत्तं (दुप्पउत्तं) भूक 2/1 अनि कारण (काम) 3/1 वाया (वाया) 3/1 अनि अदु (अ)
=या माणसेणं (माणस) 3/1 तत्थेव [(तत्थ) + (एव)] तत्य (अ)-वहाँ एव (अ) ही घोरो (धीर) 1/1 वि पडिसाहरेज्जा
76 ]
[ दशवकालिक
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(पडिसाहर) विधि 3/1 सक आइण्णो (प्राइण्ण) 1/1 खिप्पमिव [(खिप्पं) + (इव)] खिप्पं (अ)=तुरन्त इव (अ)-जैसे पखलीणं (क्खलीण) 2/1.
* वाच → वाचा → वाया। 99. अप्पा (अप्प) 1/1 खलु (अ)=निस्संदेह सययं (अ)=सदा रक्खि
यन्वो (रक्ख) विधि-कृ 1/1 सविदिएहि [.(सव्व) + (इंदिएहिं)] [(सव्व) वि-(इंदिन) 3/2] सुसमाहिएहि (सु-समाहिर) 3/2 वि अरक्खिनो (अ-रक्खिन) 1/1 वि जाईपहं [(जाइ)-(पह) 2/1 उवेई (उवे) व 3/1 सक सुरक्खिनो (सुरक्खिन) 1/1 वि सव्वदुहाण [(सव्व)-(दुह)* 6/2] मुच्चइ (मुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि * कभी-कभी तृतीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता हैं। (हेम
प्राकृत व्याकरण : 3-134)।
• छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'इ' किया गया हैं। 100. दुल्लहा (दुल्लह) 1/2 वि उ (अ)-निस्सन्देह मुहा (अ)=किसी
के लाभ के बिना दाई (दाइ) 1/2 वि जीवी (जीवि) 1/2 वि विं (अ)=भी दो (दो) 1/2 वि (अ)=ही गच्छति (गच्छ) व 3/2 सक सोग्गई (सोग्गइ) 2/1.
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दशवकालिक चयनिका एवं दशवकालिक
सूत्र-क्रम . चयनिका दशवकालिक चयनिका दशवकालिक चयनिका दशवकालिक क्रम सूत्र-क्रम क्रम सूत्र-क्रम क्रम सूत्र-क्रम
19 77 37 2 8
20 78°38427 39 21 27139 428
22 272 40 429 561 23 273
41 431 24 274
435 • 25 275
436 26 276 283
447 28 388
448
418 12
41948 450 1369 31 42049452 14 70 3242150453 1571 33 42251457 16 743442352 458 17
424
459 : 18763642554460 दसवेयालियसुत्तं (दशवकालिक सूत्र) (श्री महावीर जैन विद्यालय सम्पादक
बम्बई) 1977 मुनि श्री पुण्यविजयजी एवं पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजक 78 ]
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.35
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-
-
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5
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92
AT
चयनिका दशवकालिक चयनिका दशवकालिक चयनिका दशवकालिक क्रम क्रम-सूत्र क्रम सूत्र-क्रम क्रम सूत्र-अम 55 461 71 490 87 527 56 463 72 491
530 57464 73° 49389 535 465
497
90 537 466 75 498
91 538 60 467 76 499
539 469
77 500 93 541 62 ___470 78 501 471
79 502
95 554 64 472 80 503 96 473
510
97 558 474
512
98 573 477
514
99 575 480 84 516
100 213 69 487
85 518 70 489 8 6 519
94
543
62
555
65
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82
67
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चयनिका]
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सहायक पुस्तकें एवं कोश
1. दसवेयालियसुतं
: सम्पादक : मुनि श्री पुण्यविजयजी
एवं पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजक (श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई)
2. दसवेयालियं
: सम्पादक : मुनि नथमल
. (जैन विश्व भारती, लाडनू) 3. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण : व्याख्याता श्री प्यारचन्दजी महाराज भाग 1-2
(श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, व्यावर
राजस्थान) 4. प्राकृत भाषामों का व्याकरण : डॉ. आर. पिशल
(बिहार-राष्ट्र-भाषा-परिपद,
पटना) 5. अभिनव प्राकृत व्याकरण : डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री
(तारा पब्लिकेशन, वाराणसी) 6. प्राकृत भाषा एवं साहित्य का : डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री
मालोचनात्मक इतिहास (तारा पब्लिकेशन, वाराणसी) 7. प्राकृत मार्गापदेशिका : पं. वेचरदास जीवराज दोशी
(मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) 30 ]
[ दशवकालिक
Page #103
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________________ 8. संस्कृत निबन्ध-वशिका : वामन शिवराम आप्टे (रामनारायण, बेनीमाधव, इलाहाबाद) 9. प्रौद-रचनानुवाद कौमुदी : डॉ. कपिलदेव द्विवेदी (विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी) : पं. हरगोविन्दास त्रिकमचन्द सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी) 10. पाइप-सह-महण्णवो 11. संस्कृत हिन्दी-कोश : वामन शिवराम आप्टे (मोतीलाल वनारसीदास, दिल्ली) 12. Sanskrta-English Dictionary : M. Monier Williams (Munshiram Manoharial, New-Delhi) 13. वृहत् हिन्दी-कोरा : सम्पादक : कालिकाप्रसाद आदि (ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस) चयनिका ]