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के विकास हेतु समर्थ होता है (४७) । स्व-अधीन भोगों के प्रति अनासक्त होने वाला ही त्यागी-तपस्वी कहलाता है (२) ।
दशवकालिक में ५७५ सूत्र हैं, जो दस अध्ययनों तथा दो चूलिकाओं (परिशिष्टों) में विभक्त हैं । इनमें सामाजिक-नैतिक व्यवहार तथा आध्यात्मिक विकास के सूत्र वर्णित हैं । इसमें साधनामय जीवन-पद्धति का विशद कथन है । यहाँ आध्यात्मिक गुरु का महत्त्व विवेचित है । अहंकार-रहितता (विनय) को धर्म (शान्ति) का मूल कहा गया है । अहंकारिता अशान्ति की जनक मानी गयी है । पूज्यता और साधुता के जीवन-मूल्य इसमें प्रतिपादित हैं । यहाँ निःस्वार्थ जीवन की दुर्लभता को इंगित किया गया है । सामान्य क्रियाओं को भी जागरूकतापूर्वक करने का निर्देशन सूत्रों से प्राप्त है । चार कषायों-क्रोध, मान, माया और लोभ को अनिष्टकर कहा गया है । ध्यान, स्वाध्याय और अनासक्तता का महत्त्व प्रदर्शित है। जीव-अजीव की प्रकृति को समझने के द्वारा ही साम्यावस्था की प्राप्ति बताई गई है । वचन-शुद्धि पर बल दिया गया है ।
दशवकालिक के इन ५७५ सूत्रों में से ही हमने १०० सूत्रों का चयन 'दशवकालिक-चयनिका' शीर्षक के अन्तर्गत किया है । इस चयन का उद्देश्य पाठकों के समक्ष दशवकालिक के उन कुछ सूत्रों को प्रस्तुत करना है, जो मनुष्यों में अहिंसा, संयम, तप. स्वाध्याय, ध्यान, अनासक्तता, जागरूकता, विनय, साधुता आदि की मूल्यात्मक भावना को दृढ़ कर सकें, जिससे उनमें नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की चेतना सघन बन सके । अब हम इस चयनिका की विषयवस्तु की चर्चा करेंगे : जीव-अजीव-विवेक और उसका फल :
___ मनुष्य केवल शरीर नहीं है । यह शरीर सीमित, नश्वर और xvi ]
[चयनिका