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का अभिप्राय यह है कि आध्यात्मिक व्यक्तियों का संसर्ग और उनसे जीवन की गहराइयों का श्रवण चित्त पर स्थायी प्रभाव डालता है और वह व्यक्तित्व-परिवर्तन का प्रेरक बन जाता है। साधना के प्रायाम :
आसक्ति जीवन को संकुचित करती है; हिंसा जावन को मलीन बनाती है; कपायें चेतना की शक्ति को प्रस्फुटित नहीं होने देती हैं (३५).। साधना जीवन को सार्वलौकिक बनाती है, निर्मल करती है और चेतना की शक्तियों को प्रकाश में लाती है। जीवन में साधना के इस महत्त्व के कारण ही दशकालिक ने कहा है कि व्यक्ति शीघ्र ही सिद्धि-मार्ग को समझे और भोग से निवृत्त होवे, क्योंकि जीवन अनित्य है और आयु सीमित है (३३) । इसलिए जब तक किसी को बुढ़ापा नहीं सताता है, जब तक किसी को रोग नहीं होता है, जब तक किसी की इन्द्रियाँ क्षीण नहीं होती है, तब तक ही उसे साधना में उतर जाना चाहिए (३४) ।
उचित साधना से ही सर्वोत्तम की प्राप्ति सम्भव है। इससे ही इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण होता है (२८, ४१) । यहाँ यह समझना आवश्यक है कि साधना के मार्ग पर चला हुआ व्यक्ति ही हमें प्रशस्त वोध दे सकता है। अत: दशवकालिक का कथन है कि व्यक्ति मूल्यों के साधक का आश्रय लें और उससे ही हित-साधन को पूछताछ करे (४१)। इसके साथ साधना का ज्ञान भी साधनामय जीवन की आवश्यक पूर्व शर्त है । इस ज्ञान के लिए ग्रालस्य को त्यागकर स्वाध्याय में लीन रहना जरूरी है (४०) । स्वाध्याय में लगा हुया व्यक्ति सावनामय जीवन से चेतन-शक्तियों का विकास कर लेता है और दूसरों को भी इस मार्ग की ओर चलाने में समर्थ हो जाता है (४७) । दणकालिक का' स्पष्ट विश्वास है कि जो दशवकालिक]
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