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व्यक्ति नैतिक-याध्यात्मिक ग्रन्थों का अध्ययन करके ध्रुत-साधना में संलग्न होता है, वह मूल्यात्मक ज्ञान को प्राप्त करता है तथा एकाग्रचित्त वाला बन जाता है । वह स्वयं मूल्यों में जमा हुअा रहता है और दूसरों को भी मूल्यों में जमाता है।
साधना के लिए संकल्प की दृढ़ता यावश्यक है । 'देह को त्याग दूंगा, किन्तु नैतिकता के अनुशासन को नहीं ऐसी हड़ता वाला व्यक्ति ही इन्द्रिय-विपयों से विचलित नहीं किया जा सकता है (६७) । साधक के जीवन में मूल्यों का विकास समाज में उसके व्यवहार को मृदु, अाकर्षक एवं अनुकरणीय बना देता है । वह समझता है कि क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, अहंकार विनय का नाशक होता है, कपट मित्रों को दूर हटाता है और लोभ लव गुणों का विनाशक होता है (३६) । इसलिए वह क्षमा की साधना से कोष को नष्ट करता है, विनय की साधना से अहंकार को जीतता है, सरलता की साधना से कपट को तथा सन्तोष की साधना से लोम को जीतता है (३७) । दशवकालिक का शिक्षण है कि साधक दूसरों का अपमान न करे, अपने को ऊंचा न दिखाए, ज्ञान का लाभ होने पर गर्व न करे, जाति का, अनासक्त होने का तथा वृद्धि का गर्व न करे (२६)। ज्ञानपूर्वक तथा अनानपूर्वक अनुचित कर्म हो जाए तो वह अपने को तुरन्त रोके (३८) और उसको दूसरी बार न करे (३०) । वह सदा पवित्र वने, दोप को न छिपाए, प्रकट मनःस्थिति में रहे, इन्द्रियों को जीते तथा अनासक्त बने (३१) । मूल्यों का सावक ऐसी भापा न बोले जिससे दूसरे को मानसिक पीड़ा हो और वह शीत ऋोत्र करने लगे (४२) । वह सदैव नपी-तुली बात कहे (४३) । असत्य वचन से वह दूर रहे (२४) । ध्यान रखे कि दुर्वचन वैरकारक होते हैं (७५)।
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