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प्रकाशकीय
प्राकृत भारती अकादमी और श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर के संयुक्त प्रकाशन के रूप में प्राकृत भारती का 37वां पुष्प " दशवैकालिक चयनिका" पाठकों के करकमलों में प्रस्तुत करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है ।
"दशवैकालिक" संस्कृत का स्वीकृत रूप है और इसके प्राकृत रूप हैं: - दसवेकालिय दसवेयालिय और दसवेतालिय । निश्चित समय पर पठन योग्य इस ग्रन्थ में मुख्यतः दस अध्ययन होने के कारण इसका नाम दशर्वकालिक ही रूढ हो गया ।
अल्पवयस्क क्षुल्लक निर्ग्रन्थ / श्वमरण, अल्पतम समय में ही निर्ग्रन्थ के आचार धर्म का स्वरूप हृदयंगम कर, तदनुरूप आचरण कर, ग्रात्मसिद्धि के सोपान पर चढ़ सके, इसी दृष्टि से मनक-पिता श्रुतघर आचार्य शय्यंभव ने श्रागम शास्त्रों का दोहन कर सार रूप में इस लघुकायिक ग्रन्थ / शास्त्र का निर्मारण किया था । आगमों एवं ग्राचार शास्त्र का नवनीत होने के कारण परवर्ती श्राचार्यों ने इस दशवैकालिक को महत्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित कर दिया और यह नैतिक प्रावधान कर दिया कि जो भी नवदीक्षित हो वह जब तक इस शास्त्र का अध्ययन / योगोद्वहन न कर ले तब तक उसे वृहद् 'दीक्षा प्रदान न की जाए। इस परम्परा का श्राज भी प्रांशिक रूप में यथावत् पालन हो रहा है । प्रांशिक रूप में इसलिये कि अब दस अध्ययनों में से प्रारम्भ के चार अध्ययनों को मूल मात्र ( अर्थ
दशवेकालिक ]
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