Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 55
________________ 83. (जो) (व्यक्ति) (नैतिक-आध्यात्मिक) ग्रन्थों का अध्ययन करके श्रुत-साधना में संलग्न (होता है), (वह) (मूल्यात्मक) जान को (प्राप्त करता है), तथा एकाग्रचित्त वाला (होता है)। (और) (वह) (स्वयं) (मूल्यों में) जमा हुआ (रहता है) (और) दूसरे को भी (मूल्यों में) जमाता है । 84. (जो) कर्म-क्षय का इच्छुक (व्यक्ति) (है), (वह) सदा अनेक प्रकार के शुभ परिणामों को (उत्पन्न करने वाले) तप में लीन (रहता है) तथा वह (संसारो फल की) आशा से शून्य होता है। (इस तरह से) (जो) तप-साधना में सदा संलग्न (रहता है), वह तप के द्वारा पुराने पापों को नष्ट कर देता है। 85. .(जो) जिन-वचन में लीन है, (जो) बड़बड़ करने वाला नहीं (है), (जो) आत्मा में (आत्मा के साथ) सन्तुष्ट है, (जो) मोक्ष (परम-शान्ति) का इच्छुक (है), (जो) जितेन्द्रिय (है), (जो) (अपने को) (आत्म)-स्वभाव से जोड़ने वाला (है), (वह) आचार-साधना से युक्त होता है । 86. (जो) चारों समाधियों (साधनाओं) को (गुरु के) उपदेश से' (ग्रहण करता है), (वह) मनुष्य विशुद्ध एवं प्रशान्त (हो जाता है) तथा वह (इसके फलस्वरुप) प्रचुर हित (एवं) सुख-जनक कल्याण को अपने लिए प्राप्त करता है। चयनिका ] [33

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