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96. (दुराचारी व्यक्ति) मन से भोगों को अत्यधिक भोगकर
(और) इसी भाँति असंयम को बहुतायत से ग्रहण करके, (इसी लोक में) अवांछित दुःख और स्थिति को प्राप्त करता है, तथा उसके लिए अध्यात्म ज्ञान वार-बार (जन्म लेने पर भी) आसानी से प्राप्त नहीं (होता है)।
97. जिसका बुाद्ध इस प्रकार हा निश्चित होती है 'कि) 'देह को
त्याग दूंगा, किन्तु नैतिकता के अनुशासन को ही,' तो उस जैसे (मनुष्य) को इन्द्रिय-विषय विचलित नहीं कर सकते हैं, जैसे कि समीप आता हुआ (तेज) वायु सुदर्शन पर्वत को,
(विचलित नहीं कर सकता है)। 98. जहाँ कहीं धीर (व्यक्ति) मन से, वचन से या काया से खराब
(कार्य) किया हुआ (अपने में) देखे, वहाँ ही (वह) (अपने को) पीछे खींचे, जैसे कुलीन घोड़ा लगाम को (देखकर) (अपने को) तुरन्त (पीछे खींच लेता है)।
99.
निस्सन्देह आत्मा पूरी तरह से सभी उपशमित इन्द्रियों द्वारा सदा सुरक्षित को जानी चाहिए । अरक्षित (आत्मा) जन्ममार्ग की ओर जाती है। सुरक्षित (आत्मा) सब दुःखों से छुटकारा पाती है।
100. निस्सन्देह किसी (सांसारिक) लाभ के विना देने वाले दुर्लभ
(हैं), (तथा) किसी (सांसारिक) लाभ के बिना जीने वाले भी दुर्लभ (हैं) । किसी (सांसारिक) लाभ के विना देने वाले (और) किसी (सांसारिक) लाभ के विना जीने वाले दोनों ही सुगति (श्रेष्ठ अवस्था) को प्राप्त होते हैं ।
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