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91.
92.
(तुम) दूसरे को मत कहो (कि) 'यह दुश्चरित्र' (है)। जिससे दूसरा कुपित हो उस (वात) को भी (तुम) मत कहो । जो (व्यक्तियों के) पुण्य-पाप को अलग-अलग जानकर अपने को (उनसे) ऊँचा नहीं दिखाता है, वह साधु है । जो (मनुष्य) जाति के कारण मद-युक्त नहीं (है), (जो) (शारीरिक) सौंदर्य के कारण मद-युक्त नहीं (है), (जो) लाभ के कारण मद-युक्त नहीं (है), और (जो) ज्ञान के कारण मद-युक्त नहीं (है), तथा (जो) (अन्य) सभी मदों को छोड़कर शुभ ध्यान में लीन (रहता) है), वह साधु (है)।
93. साधु अनश्वर हित में स्थितबुद्धि (होता है) । (अतः (वह)
उस अपवित्र (तथा) नश्वर देहरूपी वस्त्र की उपेक्षा करता है। (और) (अन्त में) जन्म-मरण के बन्धन को नष्ट करके मोक्ष गति को प्राप्त करता है।
94.
जब अधम (व्यक्ति) भोग के प्रयोजन से धर्म (अध्यात्मिक मूल्यों) को सर्वथा छोड़ देता है, (तो) (यह कहना ठीक है कि) वह अज्ञानी उस (भोग) में मूछित (है)। (इस तरह से) (वह) (अपने) भविष्य को नहीं समझता है ।
95. नैतिकता से विचलित (व्यक्ति) का, अनैतिकता का सेवन
करने वाले का तथा खण्डित आचरण वाले का गमन (परलोक में) नीचे की ओर (नरक प्रदेश में) होता है। (तथा) इस लोक में भी (व्यक्ति) कर्तव्य-रहित, यश-रहित, कीति-रहित और साधारण लोगों में बदनाम किए जाने योग्य (हो जाता है)।
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