Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ दकाकालिक-चयनिका 1. अहिंसा, संयम (और) तप धर्म (है) । (इससे ही) सर्वोच्च कल्याण (होता है । जिसका मन सदा धर्म में (लीन है), उस (मनुष्य) को देव भी नमस्कार करते हैं । जो प्राप्त किए गए मनोहर और प्रिय.भोगों को पीठ करता है (दिखाता है) (तथा) स्व-अधीन भोगों को छोड़ता है, वही त्यागी है । इस प्रकार कहा जाता है। 3. (ऐसा होता है कि) राग-द्वप रहित चिन्तन में भ्रमण करता हुमा मन कभी (सम अवस्था से) वाहर (विपमता में) चला जाता है । (उस समय व्यक्ति यह विचारे कि) वह (विषमता) मेरी नहीं (है), निश्चय ही मैं भी उसका नहीं (हूँ) । इस प्रकार उस (विषमता) से (वह) आसक्ति को हटावे। (तू) (अपने को). तपा; अति-कोमलता को छोड़; इच्छाओं को वश में कर; (इससे) निश्चय ही दुःख पार किए गए (हैं) । (तू) द्वष को नष्ट कर; राग को हटा; इस प्रकार तू संसार में सुखी होगा। -जयनिका ] [ 3

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103