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30. ज्ञानपूर्वक अथवा अज्ञानपूर्वक अनुचित कर्म को करके (व्यक्ति) अपने को तुरन्त रोके (और फिर ) वह उसको दूसरी बार न करे ।
31. दुराचरण का सेवन करके (मनुष्य) ( उसको) कभी न छिपाए (तथा) न (ही) (उसको) मना करे । ( वह) सदा पवित्र (वने), प्रकट मनःस्थिति में ( रहे), अनासक्त (तथा) जितेन्द्रिए (होवे ) ।
32. (व्यक्ति या समाज) महान् ग्रात्मा, ग्राचार्य के वचन को सफल करे । उस वचन को स्वीकार करके कार्य द्वारा ( उसका ) सम्पादन करे |
33. (व्यक्ति) जोवन को ग्रनित्य जानकर निज की आयु को सीमित ( जाने ) । ग्रतः सिद्धि-मार्ग को समझकर ( वह ) भोगों से निवृत्त होवे ।
34.
35.
जव तक (किसी को) वुढ़ापा नहीं सताता है. जब तक (किसी को) रोग नहीं बढ़ता है, जब तक ( किसी की ) इन्द्रियां क्षीण नहीं होती है, तब तक ( उसको) धर्म (आध्यात्मिकता) का आचरण कर लेना चाहिए ।
आत्मा के हित को चाहता हुआ (मनुष्य) पाप को बढ़ाने वाले (इन) चार दोषों को क्रोध और मान को, माया और लोभ को - निश्चय ही बाहर निकाले ।
36. क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, श्रहंकार विनय का नाशक (होता है), कपट मित्रों को दूर हटाता है, (और) लोभ सव ( गुणों का) विनाशक (होता है) ।
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