Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ 46. 43. हे पात्मवान् ! (तू) नपी-तुली, निश्चित, अखण्ड, व्यक्त' (स्पष्ट), परिचित', वाचालता-रहित खेद-रहित, (तथा) देखी गई (वात) को (प्रकट करने वाली) भापा को वोल । 44. (इन्द्रियादि विपयों के) उन पुद्गलों के परिवर्तन को निस्संदेह अनित्य जानकर, (व्यक्ति) मनोज्ञ विषयों में आसक्ति को न बैठाए। उन पुद्गलों के परिणमन को जैसा (है), वैसा जानकर (व्यक्ति) (जिसके द्वारा) लालसा दूर की गई (है), ठंडी (तनाव-मुक्त) हुई आत्मा में रहे । जिस श्रद्धा से (कोई) (आत्म)-गुणों की सर्वोच्च प्राप्ति के लिए (घर से) वाहर निकला (है), उस ही (श्रद्धा) का (तथा) प्राचार्य के द्वारा स्वीकृत गुणों का (वह) रक्षण करें। 47. (जो) सदा संयम में चेप्टा करता है, (सदा) स्वाध्याय में चेप्टा (करता है) तथा (सदा) इस (उपदिष्ट) तप को (करता है), (वह) निज (के विकास के लिए समर्थ होता है (तथा) दूसरों (के विकास) के लिए (भी) समर्थ होता है जैसे कि (शत्रु की) सेना से (घिरा हुआ) (वह) वीर, (जिसके द्वारा) समस्त हथियार (इकट्ठे किए हुए हैं), (निज की व दूसरों की रक्षा के लिए समर्थ होता है)। . 48. स्वाध्याय पीर सद्-ध्यान में लीन (व्यक्ति) का, उपकारी का, निप्पाप मन (वाले) का, तप में लीन (व्यक्ति) काइन सबका पूर्व में किया हुआ जो भी दोष (है), (वह) शुद्ध हो जाता है, जैसे कि अग्नि के द्वारा झकझोरे हुए सोने का मैल (शुद्ध हो जाता है)। व्याकरणिक विश्लेषण देखें । दसवेयालिय (सं. मुनि नथमल पृ.411) चयनिका ] [ 17

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103