Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 17
________________ जड़ है । बहुत गहराई से मोचने, विचारने और अनुभव करने पर यह प्रतीत होता है कि मनुष्य में कुछ ऐसा भी है जो असीमित, अनश्वर और चेतन है । इस तरह से मनुष्य सीमित और असीमित का, नश्वर और अनश्वर का तथा जड़ और चेतन का मिला-जुला रूप है । इस मिले-जुले रूप के कारण ही सुख-दु:खात्मक अवस्था होती है । इस सुख-दुःखात्मक अवस्था के कारण ही मनुष्य इस जगत में अपने से भिन्न दूसरे प्राणियों को पहिचानने लगता है (७) । सामान्यतया ऐसा होता है कि मनुष्य अपने सुख-दुःख को तो समझ लेता है, पर संवेदनशीलता के अभाव में दूसरे प्राणियों की सुखदुःखात्मक अवस्था को नहीं समझ पाता है । अत; दशवकालिक का शिक्षण है कि जीवन में अहिंसा के विकास के लिए यह आवश्यक है कि हम दूसरे प्राणियों को आत्म-तुल्य समझे। दूसरे प्राणियों के सुखदुःखात्मक अस्तित्व का भान होना ही 'करुणा' उत्पन्न होने की पूर्व शर्त है (८) । यहाँ यह समझना चाहिए कि करुणा की उत्पत्ति मनुष्य के भावात्मक विकास की भूमिका में होती है । किन्तु, ज्यों ज्यों मनुष्य में अवलोकन-शक्ति और चिन्तनशीलता का विकास होता है, त्यों-त्यों वह मनुष्यों की तथा मनुष्येतर प्राणियों की विभिन्न सुख-दुःखात्मक अवस्थाओं के समाजातीत सूक्ष्म कारण को समझने का प्रयास करता है । यह सच है कि सामाजिक व्यवस्थाओं के बदलने तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों से प्राणियों की सुख-दुःखात्मक अवस्थाएँ बदली जा सकती हैं, लेकिन यह हो सकता है कि बाहर सब कुछ ठीक हो, फिर भी मनुष्य अशान्ति, भय, शोक आदि अनुभव करे । इस दुःखात्मक अवस्था का कारण अन्तरंग है । यह निश्चित है कि यह कारण अन्तरतम चेतना नहीं हो सकती है। यह मानना युक्ति-युक्त लगता है कि जिन सूक्ष्मताओं से यह अवस्था उत्पन्न होती है, वह पूर्व में अजित 'कर्म' है जो अजीव है, अचेतन है। इस तरह से जीव चेतन है, 'कर्म' अचेतन है, अजीव है । इनका सम्बन्ध दशवकालिक [xvii

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