Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 18
________________ कैसे हुआ ? यहाँ यह विचारना अभीष्ट नहीं है । किन्तु हमारा या किसी भी प्राणी का संसार में पदार्पण चेतना की शक्तियों का सीमितीकरण है, अर्थात् चेतना या जीव का कर्म-युक्त होना है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जब तक हम चेतना या जीव की शक्तियों को तथा सीमितीकरण के कारण अजीव या कर्म को नहीं समझेगे, तव तक हम चेतन-शक्ति के विकास की ओर उन्मुख नहीं हो सकते (१०) । जीव (चेनन) और अजीव (कर्म) को समझे विना हमारे यह समझ में आना कठिन है कि संयमित जीवन का क्या उद्देश्य है ? उसका क्या महत्त्व है ? यह सच है कि जो मनुष्य चेतना या जीव की शक्तियों तथा कर्म या अजीव के प्रभाव को समझने की ओर . चल पड़ा है, वह कर्मों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए चेतनशक्ति के विकास की ओर चल पड़ता है । अतः संयम की ओर झुक जाता है (११) । जब मनुष्य कर्मों से उत्पन्न विभिन्न अवस्थाओं को समझने लगता है, तो जीवों की विभिन्न स्थितियाँ समझ में आने लगती हैं (१२) । इसका परिणाम यह होता है कि पशुवत् प्रवृत्तियों को तथा भोगात्मक वृत्तियों को वह छोड़ देता है। साथ में आसक्ति को तथा आसक्ति के कारण जो वाह्य संयोग रहते हैं, उनसे भी परे होने लगता है (१५) । अनासक्त भाव की ओर बढ़ते जाने से कर्म निस्तेज होकर समाप्त होने लगते हैं, तो अनन्त ज्ञान, साम्यावस्था आदि गुण प्राप्त हो जाते हैं (१६ से २०) । यही जीव-अजीव (कर्म) के विवेक से उत्पन्न फल है। यही आध्यात्मिक मूल्यों की साधना का परिणाम है । जव कोई व्यक्ति आसक्ति के प्रभाव से भोगात्मक वृत्ति में रम जाता है और आध्यात्मिक मूल्यों को छोड़ देता है, तो यह कहना उचित है कि वह मूच्छित व्यक्ति है और अपने उज्ज्वल भविष्य को धूमिल कर रहा है. (६४) । दशवैकालिक की यह धारणा बड़ी मनोवैज्ञानिक है कि मनुष्य मंगलप्रद और अनिष्टकर दोनों को ही सुनकर समझता है (8) । संभवतया कहने xviii ] [ चयनिका

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