Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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રૂર
श्रीदशवैकालिकसूत्रे ९ १० १२ ११ . ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहर पाणभोयणं ।
१४ १० १५ १८ १६ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिस ॥३१॥ छाया-संहृत्य निक्षिप्य, सचित्तं घट्टयित्वा ।
तथैव श्रमणार्थम्, उदकं संप्रणुध ॥३०॥ अवगाह्य चालयित्वाऽऽहरेत्पानभोजनम् ।
ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३१॥ सान्वयार्थः-समणहाए-साधुके लिए साहटु-संहरण करके अर्थात् एक वरतनसे दसरे वरतनमें डालकरके, निक्खवित्ताणं-सचित्त वस्तु पर आहारादिको रखकर अथवा आहारादिके ऊपर सचित्त वस्तुको रखकर, सचित्त सचित्त वस्तुका घट्टियाणिय-संघट्टास्पर्श-करके, तहेव-उसीप्रकार उदगं-सचित्त अप्कायको संपणुल्लिया इधर-उधर रखकर, ओगाहइत्तावर्षासे आँगनमें भरे हुए पानीमें अवगाहन-प्रवेश-करके, चलइत्तारुके हुए जलको नालीद्वारा या हाथ से बाहर निकालकर यदि पाणभोयणं आहार-पानी आहरे देवे तो दितियं देती हुई उस बाईसे (साधु) पडियाइक्खे-कहे कि तारिस इस प्रकारका आहारपानी मे= मुझे न कप्पइ नहीं कल्पता है ॥३०-३१॥
टीका-'साहटु०' इत्यादि, 'ओगाहइत्ता' इत्यादि च । यदि श्रमणार्थ भिक्षुनिमित्तं संहृत्य-भाजनाद्भाजनान्तरे संहरणं कृत्वा,
संहरणस्य चतुभेङ्गो यथा(१) सचित्ते सचित्तस्य, (२) सचित्तेऽचित्तस्य, (३) अचित्ते सचित्तस्य, (४)
'साहटु०' इत्यादि, और 'ओगाहइत्ता.' इत्यादि । यदि श्रमणके लिए एक बर्तन से दूसरे वर्तनमें संहरण करके (निकालकर), निक्षेपण करके (एक के ऊपर दूसरेको रखकर), सचित्तके साथ संघटा करके (जलको हिलाकर), तथा अवगाहन करके-वर्षा ऋतु घरके आंगनमें रुके (भरे) हुए वारिसके जलमें प्रवेश करके या उसे नालीद्वारा निकालकर पान-भोजन देवे तो देनेवालीसे श्रमणकहे कि 'ऐसा अन्न-पान आदि मुझे ग्राह्य नहीं है ।
पहले संहरणका वर्णन करते हैं-संहरणकी चौभंगो इस प्रकार होती है--
साहटु० ४त्यादि भने ओगाहइत्ता० इत्यादि. श्रभने माटे ४ वासरमाथा બીજા વાસણમાં સંહરણ કરીને (કાઢીને), નિક્ષેપણ કરીને (એકની ઉપર બીજાને રાખીને). સચિત્તની સાથે સંઘટે કરીને, જળનું ઉપમર્દન કરીને (જળને હલાવીને) તથા અવગાહને કરીને, વર્ષા ઋતુમાં ઘરના આંગણામાં ભરેલા વરસાદના પાણીમાં પ્રવેશ કરીને યા એને નાળી (ખાળ) વડે કાઢી નાંખીને ભેજન-પાન આપે તો એ આપનારીને શ્રમણ કહે કે "मेव अन्न-पान मारे ा नथी."
પહેલાં સંહરણનું વર્ણન કરે છે. સંહણની ચૌભંગી આ પ્રકારે થાય છે –
શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧