Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
३९२
श्रीदशवकालिकसूत्रे
मूलम्-अरसं विरसं वावि, सूइयं वा असूइयं ।
८ ९ ११ १२ १० उल्लं वा जइ वा सुक्कं, मंथु-कुम्मास-भोयणं ॥९८॥
१७ १८ १९ १५ उप्पण्णं नाइहीलिज्जा, अप्पं वा बहु फासुयं ।
मुहालद्धं मुहाजीवी भुजिज्जा दोसवञ्जियं ॥९९।। छाया-अरसं विरसं वाऽपि, सूचितं वा असूचितम् ।।
आद्रं वा यदि वा शुष्कं, मन्थु-कुल्माष-भोजनम् ॥९८॥ उत्पन्नं नातिहीलयेत् , अल्पं वा बहु प्रासुकम् ।
मुधालब्धं मुधाजीवी' भुञ्जीत दोषवर्जितम् ।।९९॥ सान्वयार्थः- अरसं-नमक आदि रसरहित वावि-तथा विरसं-अधिक दिनोंकी बनी हुई विरस-बासी सूखी रोटी आदि या पुराने चाँवल आदिका भोजन सूइयं हींग आदिका बघार (छोक) दिया हुआ वा-अथवा असइयं नहीं बघार दिया हुआ शाक उल्लंगीला-करंबा, राइता आदि वा तथा सुक्कं-सूखा-भुने हुए चने भूगडे-आदि जइवा अथवा मंथुकुम्मासभोगणं-बेरके चूरेका भोजन या कुलथीका भोजन अथवा उड़दका बाकुला (यह पूर्वोक्त सब प्रकारका अशादि) उप्पण्णं-जो गोचरी के समय शास्त्रमर्यादा से मिल गया वह अप्पं थोड़ा हो वा-या बहुबहुत हो उसकी नाइहीलिज्जा अवहेलना न करे, किन्तु फासुयं प्रासुक-अचित्त और मुहालद्धं निष्काम-विना किसी प्रत्युपकारके प्राप्त हुए उस अशनादिको मुहाजोवी-निष्काम-सिर्फ संयम-यात्राका निर्वाह से जीनेवाला अर्थात् निरपेक्ष भिक्षा लेनेवाला साधु दोसवज्जियं = भोजनके संयोजनादि दोषोंको टाल कर भुजिज्जा = भोगवे ॥९८॥९९॥ ___टीका 'अरसं' इत्यादि, 'उप्पण्णं' इत्यादि च । अरसं = लवणादिरसरहितम् अप्राप्तरसं बालचणकादिनिष्पादितं वा, अपिवा विरसं चिरकालनिष्पादितत्वेन विगतरसं पूराणौदनादिकं वा, सूचितं = हिङ्ग्वादिसंस्कृतं वा = अथवा असूचितं = तद्वर्जितम् मनोज्ञ घेवर आदि हों, उन दोनोंको समभावसे भोगता है वह श्रमण कहलाता हैं ॥१॥ गर्म या ठंडा अन्नादिक और उसी प्रकारका-गर्म या ठंडा दहो करंबाआदिकों जो संयमयात्राका निर्वाह के लिए समभ व से भोगता है । वह श्रमण कहलाता है ।२।।" इति ॥९७॥
'अरस' इत्यादि, 'उप्पण्णं' इत्यादि च । नमकरहित तथा बाल चणक आदि अरस या बहुत पुराना ओदन आदि विरस, हींग आदि द्वारा छोका हुआ, गीला-करंबा आदि, सूखे भुने हुए चने आदि, बेरका र्ण आदि, अथवा कुलथी या उड़दके बाकला का भोजन । ये सब
अरस त्याह, तथा उप्पण्ण० इत्याहि. भीडाथी हित तथा वा-या आई सरस યા બહુ જૂનો છેદન-આદિ વિરસ, હીંગ આદિથી વઘારેલું યા ન વઘારેલું લીલે કરબે આદિ, સૂકા-ભૂજેલા ચણું આદિ, બોરનું ચૂર્ણ આદિ અથવા કળથી યા અડદના બાકળાનું
શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧