Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 467
________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० ३९-मद्यपायिनोदोषप्रकटनम् वर्द्ध ते = वृद्धिं गच्छति । - 'मुंडिया' इत्यनेन मधपायिनो मद्यासक्तिरपरिहार्या भवतीति सूचितम् । मद्यासक्ती सत्यां माया मृषा च कदापि तं न विजहाति मायामृषावृद्धौ स्वपरपक्षे निन्दाऽवश्यम्भाविनी निन्दायामपि सत्या मद्यपानासक्तस्याऽनिर्वृतिः साहचर्य न मुञ्चति, तथा सति सर्वथा साधुपदानधिकारित्वमुपजायतेऽतः सर्वानर्थमूलं मद्यपानमिति बोध्यम् ॥ ३८ ॥ उक्तमेवार्थ प्रकारान्तरेण द्रढयति-'निच्चुम्विग्गो' इत्यादि । मूलम्-निचुब्बिग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। तारिसो मरणंतेऽपि, नाराहेइ संवरी॥३९॥ छाया--नित्योद्विग्नः यथा स्तेनः, आत्मकर्मभिर्दुर्मतिः। तादृशः मरणान्तेऽपि, न आराधयति संवरम् ॥ ३९ ॥ सान्वयार्थ-जहा = जिस प्रकार तेणो = चोर अत्तकम्मेहिं = अपने किये हुए दुश्चरित्रोंसे निच्चुग्विग्गो= हमेशा व्याकुल बना रहता है, उसी तरह तारिसो= मदिरा पीनेवाला वह दुम्मई = दुर्बुद्धि साधु भी नित्य उद्विग्न बना रहता है, फिर वह मरणंतेवि = मरण समय तक भी संवरं-संवरधर्म चारित्रको नाराहेइ = नहीं आराध सकता है, अर्थात् वह साधु जिन्दगीभर चारित्रसे वञ्चित रहता है ॥ ३९ ॥ __टीका-यथा स्तेनः = तस्करः आत्मकर्मभिः = स्वकीयदुश्चरितः नित्योद्विग्नः = अतः उसकी असाधुता बढ़ती है । 'सुंडिया' पदसे यह सूचित किया है कि शराबीको शराब पीनेकी आदत छुटनी कठिन होती है । मदिरामें आसक्ति होने पर माया-मृषा मदिरापायोका काना-पीछा नहीं छोड़ती, अर्थात् वह माया-मृषा दोषोंमें तत्पर रहता है। माया और मृषाकी वृद्धि होनेपर स्वपक्ष परपक्षमें निश्चय हो निन्दा होती है और निन्दा होनेपर भी मदिरा पानमें मस्त होकर मदिरा-पान नहीं त्यागता । ऐसी अवस्थामें वह साधु कहलाने योग्य बिलकुल ही नहीं रहता ॥३८॥ इसी विषयको दूसरी तरहसे कहते हैं-'निच्चुम्बिग्गो' इत्यादि । ચિગ્ય આચરણથી હીન હોવાને કારણે એ સાધુ કહેવાવાને યોગ્ય નથી રહેતું, એટલે એનિ અસાધુતા વધે છે. 'सुडिया' शम्४थी मेम सूयित युछ शराभीनी शराम पापानी माहत यूवी કઠિન હોય છે. મદિરામાં આસક્તિ થતાં માયામૃષા મદિરાપાન કરનારનો પીછો છોડતી નથી, અર્થાત્ એ માયા-મૃષા દોષોમાં તત્પર રહે છે. માયા અને મૃષાની વૃદ્ધિ થતાં સ્વ-પક્ષ પર પક્ષમાં જરૂર નિંદા થાય છે, અને નિંદા થવા છતાં પણ મંદિરો૫ નમાં મસ્ત થઈ મદિરાપાન ત્યાગતો નથી, એવી અવસ્થામાં તે જરાએ સાધુ કહેવાવાને ગ્ય રહેતું નથી. से विषयने भी शते ४ छ-निच्चुब्बिग्गो० प्रत्याहि. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧

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