________________ (9) चरित्रखण्ड-श्रमण भगवान महावीर के सम्पर्क में आने वाले अनेक तापसों, परिवाजकों, श्रावकश्राविकानों, श्रमणों, निग्रन्थों, अन्यतीथिकों, पाश्र्वापत्यश्रमणों आदि के पूर्वजीवन एवं परिवर्तनोत्तरजीवन का वर्णन / (10) विविध-कुतूहलजनक प्रश्न, राजगृह के गर्म पानी के स्रोत, अश्वध्वनि, देवों की ऊर्ध्व-अधोगमन शक्ति, विविध वैक्रिय शक्ति के रूप, प्राशीविष, स्वप्न, मेघ, वृष्टि आदि के वर्णन / इस प्रकार इस अंग में सभी प्रकार का ज्ञानविज्ञान भरा हुआ है। इसी कारण इसे ज्ञान का महासागर कहा जा सकता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति के अध्ययन 'शतक' के नाम से प्रसिद्ध है। यह शत (सयं) का ही रूप है। प्रस्तुन आगम के उपसंहार में 'इक्कचत्तालीस इमं रासी जुम्मसयं समत' ऐसा समाप्तिसूचक पद उपलब्ध होता है। इसमें यह बताया गया है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में 101 शतक थे; किन्तु इस समय केवल 41 शतक ही उपलब्ध होते हैं। इस समाप्तिसूचक पद के पश्चात् यह उल्लेख मिलता है कि 'सव्वाए भगवईए अट्ठतीस सयं सयागं' अर्थात्-- अवान्तरशतकों की संख्या सब शतकों को मिला कर 138 होती है, उद्देशक 1925 होते हैं। ये प्रवान्तरशतक 138 इस प्रकार हैं-प्रथम शतक से बत्तीसवें शतक तक और इकतालीसवें शतक में कोई अवान्तरशतक नहीं है 1 ३३वें शतक से ३९वें शतक तक जो 7 शतक हैं, इनमें 12-12 अवान्तर शतक हैं। ४०वें शतक में 21 अवान्तर शतक है। अतः इन 8 शतकों की परिगणना 105 अवान्तरशतकों के रूप में की गई है। इस तरह अवान्तरशतक रहित 33 शतकों और अवान्तरशतक सहित 105 शतकों को मिलाकर कूल 138 शतक होते हैं। शतक में उद्देशक रूप उपविभाग हैं / उद्देशकों की जो 1925 संख्या बताई गई है, गवेषणा करने पर भी उसका आधार प्राप्त नहीं होता। कुछ शतकों में दस-दस उद्देशक हैं; कुछ में इससे भी अधिक हैं / इकतालीसवें शतक में 196 उद्देशक हैं। नौवें शतक में 34 उद्देशक हैं। शतक शब्द से सौ की संख्या का कोई सम्बन्ध नहीं है, यह अध्ययन के अर्थ में रूढ़ है। 41 शतकों में विभक्त विशालकाय भगवतीसूत्र में श्रमण भगवान महावीर के स्वयं के जीवन की, गणधर मौतम ग्रादि उनके शिष्यवर्ग की, तथा भक्तों, गहस्थों, उपासक-उपासिकायों, अन्यतीथिकों और उनकी मान्यताओं की विस्तृत जानकारी मिलती है। ग्राजीवक संघ के प्राचार्य गोशालक के सम्बन्ध में इसमें विस्तृत और प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है। यत्र-तत्र पुरुषादानीय भगवान् पाश्र्वनाथ के अनुगामी साधु-श्रावकों का तथा उनके चातुर्याम धर्म का एवं वातर्याम धर्म के बदले पंचमहाव्रत रूप धर्म स्वीकार करने का विशद उल्लेख भी प्रस्तुत ग्रागम में मिलता है। इसमें सम्राट कणिक और गणतंत्राधिनायक महाराजा चेटक के बीच जो महाशिलाकण्टक और रथमूशल महासंग्राम हुए, तथा इन दोनों महायुद्धों में जो करोड़ों का नरसंहार हुअा, उसका विस्तात मार्मिक एवं चौंका देने वाला वर्णन भी अंकित है। ऐतिहासिक दृष्टि से प्राजीवक संघ के प्राचार्य मंखली गोशाल, जमालि, शिवराजगि, स्कन्दक परिवाजक, तामली तापस आदि का वर्णन अत्यन्त रोचक है। तत्त्वचर्चा की दृष्टि से जयन्ती श्राविका, मददुक श्रमणोपासक, रोह अनगार, सोमिल ब्राह्मण, भगवान् पार्व के शिष्य कालास्यवेशीपुत्र, तुगिका नगरी के श्रावक आदि प्रकरण बहुत ही मननीय हैं। इक्कीस से लेकर तेईसवें शतक तक वनस्पतियों का जो वर्गीकरण किया गया है, वह अद्भुत है। पंचास्तिकाय के प्रतिपादन में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और ग्राकाशास्तिकाय, ये तीनों अमूर्त होने से अदृश्य हैं, वर्तमान वैज्ञानिकों ने धर्मास्तिकाय को 'ईथर' तत्त्व के रूप में तथा आकाश को 'स्पेस' के रूप में स्वीकार कर लिया है। जीवास्तिकाय भी अमूर्त होने से प्रदश्य है, तथापि शरीर के माध्यम से होने वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org